Sunday, January 1, 2017

अस्सी के काशी

आज यानी एक जनवरी 2017 को काशीनाथ सिंह अस्सी साल के हो रहे हैं. इस मौके पर उन्हें और उनके रचनाकर्म को सलाम करते हुए 'बनास जन' के सम्पादक पल्लव ने यह नोट लिखा है और 'काशी का अस्सी' के चुने हुए अंश कबाड़खाने के लिए बाकायदा टाइप करके भेजे हैं. पल्लव का धन्यवाद और काशीनाथ जी को जन्मदिन की बधाई!


पल्लव का नोट:

नयी कहानी के बाद हिन्दी गद्य की दुनिया में काशीनाथ सिंह ने अपना मौलिक योगदान दिया जिसके बगैर आधुनिक हिंदी साहित्य की कोई तस्वीर अधूरी और अविश्वसनीय मानी जाएगी.  कहानी से अपने लेखन का प्रारम्भ करने वाले काशीनाथ सिंह ने अपना मोर्चा जैसा नए ढंग का उपन्यास लिखा. नया इसलिए कि यथार्थ को देखने और लिखने की लम्बी रवायत हमारे यहां रही है लेकिन इस देखने में नया ढंग बहुत कम रचनाओं और रचनाकारों के यहाँ संभव हो पाता है. यथार्थ को ठेठ पारम्परिक ढर्रे से हांकना न केवल पाठकों को दूर ले जाता है बल्कि इससे रचना भी गहरे आशयों से रिक्त हो जाती है. काशी का अस्सी हिन्दी उपन्यास का नया पड़ाव समझा गया जो अब तक के बँधे बँधाए ढर्रे से अलग राह का अन्वेषण करते हुए आया.

काशी का अस्सी उनके लेखन का कीर्तिस्तम्भ है जिसके अंश जब हंस और कथादेश जैसी पत्रिकाओं में छप रहे थे तब खासा हंगामा हुआ. सवाल केवल भाषा में अश्लीलता का नहीं था -सवाल यह भी था कि प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े लेखक एलकेडी लिखेंगे तो क्या यह परम्परा से विच्छेद नहीं होगा. अकारण नहीं कि दक्षिणपंथी समझ वालों से कहीं ज्यादा वे लोग इन अंशों से हैरान-परेशान थे जिन्हें प्रेमचंद की परम्परा कहानी-उपन्यास में गाँव,भोला बाबू,ज्वान और सराय में ही दिखाई देती थी. यह नया ढब था जिसे समझे जाने में समय लगना ही था. काशी का अस्सी छप जाने और ठीक ठाक पढ़े जाने के बावजूद आलोचकों को इसे उपन्यास मानने में असुविधा हुई तो कुछ लोगों को यह समझ नहीं आ सका कि कथा रिपोर्ताज़ के रूप में अंशों के छप जाने के बाद भला अब ये सारे अंश मिलकर उपन्यास कैसे हो सकते हैं? बहरहाल किसी कृति को विद्वत समाज ऐसे ही नहीं स्वीकार लेता अंतत: काशी का अस्सी को हिन्दी उपन्यास का नया पड़ाव माना गया जो अब तक के बँधे बँधाए ढर्रे से अलग राह का अन्वेषण करते हुए आया. इस उपन्यास में संस्मरण, रिपोर्ताज़, कहानी और रेखाचित्र जैसी अलग अलग विधाएँ इस कदर संगुम्फित हैं कि इसके स्वरूप को लेकर बहस होना वाजिब था. यह सचमुच विचार करने योग्य तथ्य है कि भूमंडलीकरण के आगमन के बाद पारंपरिक विधा रूपों में अंतर्कि्रया तेजी से कैसे बढ़ गई? क्या यह यथार्थ की विजय नहीं है कि पाठक को अब ऐसी बात कहीं अधिक अपील कर रही है जो सीधी और बेबुनावट है. 

काशी का अस्सी में तो वे पात्र आ गए जिनको पाठक अस्सी मोहल्ले -चौराहे पर देखते थे-  जानते थे और जो गल्प नहीं सचमुच थे. घटनाएँ और माहौल भी बेबुनावट. यहाँ तक कि लेट कर गए अटल बिहारी करो सोनिया की तैयारी. कुल मिलाकर यह वह किताब बनी जिसे हम खूब पहचान सकते थे लेकिन इस बात में भारी संशय था कि भला पप्पू की दूकान पर चायबाजी और गया सिंह के भाषण से बनी किताब उपन्यास कैसे हो सकती है? हमने इसीलिये इसे गल्पेतर गल्प कहा जो हिन्दी में एक नया ही गद्यरूप है. दूसरी बात भदेस की है. भदेस से मनुष्य बहुत बचता है. मृत्यु से बड़ा कुछ भदेस नहीं और उससे बचना असम्भव है, फिर भी. हम भारतीय और भी ज्यादा. काशी का अस्सी इस भदेस से बचता नहीं बल्कि इसका सामना करता है यही कारण है कि वह सच को साफ-साफ कह पाया है. उपन्यास में आये तल्ख संवाद और अशिष्ट समझे जाने वाले वर्णन परेशान करते हैं. यह परेशानी दरअसल पाखंड की परेशानी है. पाखण्ड यह कि यद्यपि हम सभ्य नागरिक समाज नहीं बन पाए हैं फिर भी हम कैसे मान लें कि हम सभ्य नागरिक समाज नहीं हैं. उत्तर भारतीयों की इस खास मनोवृत्ति को काशी का अस्सी खूब बताता है. फिर एक शहर एक किताब में, एक कृति में कैसे जीवित हो जाता है. शहर भी मामूली नहीं, ऐसा जो अपने बनने के सालों बाद आज भी जीवित है. अपने खास रंग-रूप और शैली के साथ. कुछ मित्रों को इसकी सफलता का कारण चुटीली कहन लगा लेकिन क्या केवल चुटीली कहन ही? यह ठीक है कि यहाँ व्यंग्य आता है, गुदगुदाता है लेकिन यह मजे लेने वाला चालू गद्य नहीं है अपितु अपनी करुणा में यह कबीर और भारतेन्दु की परम्परा का वाहक है. अकारण नहीं कि भूमंडलीकरण के नये दुकानदारों की नजऱ इस शहर पर तबसे टिकी है. तथापि इस शहर का भदेस ही है जो पूरा प्रतिरोध कर रहा है. बता रहा है कि मनुष्यभक्षी राजा चाहे जितना भयानक और बलशाली हो, दुर्वध्य नहीं है. उसका वध सम्भव है.

पाठकों की पसंद का यह उपन्यास अपनी कहन, कथा और चलन तीनों में नयेपन का सूत्रपात करता है. बच्चन सिंह ने इसे उपन्यास के लोकतन्त्र की उपमा दी थी. वस्तुत: यही सच्चा जनतंत्र है कि किसी ठस विधाई ढाँचे की कैद को तोड़ कर रचना प्रवाहित हो और जीवन की शर्त पर. जिन्हें इस पुस्तक में जीवन का संघर्ष नहीं दिखाई दिया वे शायद हँसी और व्यंग्य के ऊपरी खोल पर ही अटके रह गए. एक बार फिर पढऩे में कोई हर्ज नहीं. किताबों के दुर्दिनों में पाठकों को खींचने वाले इस उपन्यास की जीवनशक्ति अदम्य है. ऐसे ही कुछ पाठक चाहते थे कि कोई बड़ा जीवन सन्देश उपन्यास को देना ही चाहिए था. वे रेणु के मैला आँचल को याद कर रहे थे और जाने कैसे गोदान के होरी को भूले जा रहे थे. उपन्यास में अनेक प्रसंग आते हैं जो जीवन की जय में भरोसा लौटाते हैं. ये प्रसंग चूंकि हँसी-चुहल के भेस में आए हैं इसलिए वे सुधी पाठक अनुमान नहीं कर पाए.            


काशीनाथ सिंह की 'काशी का अस्सी' से चुनिन्दा अंश

मित्रो, यह संस्मरण वयस्कों के लिए है, बच्चों और बूढ़ों के लिए नहीं; और उनके लिए भी नहीं जो यह नहीं जानते कि अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और साली-बहनोई का रिश्ता है! जो भाषा में गन्दगी, गाली, अश्लीलता और जाने क्या-क्या देखते हैं और जिन्हें हमारे मुहल्ले के भाषाविद् परम (चूतिया का पर्याय) कहते हैं, वे भी कृपया इसे पढक़र अपना दिल न दुखाएँ-

तो, सबसे पहले इस मुहल्ले का मुख्तसर-सा बायोडॉटा-कमर में गमछा, कन्धे पर लँगोट और बदन पर जनेऊ-यह यूनिफॉर्म है अस्सी का.

हालाँकि बम्बई-दिल्ली के चलते कपड़े-लत्ते की दुनिया में काफी प्रदूषण आ गया है. पैंट-शर्ट, जीन्स, सफारी और भी जाने कैसी-कैसी हाई-फाई पोशाकें पहनने लगे हैं लोग! लेकिन तब, जब कहीं नौकरी या जजमानी पर मुहल्ले के बाहर जाना हो! वरना प्रदूषण ने जनेऊ या लँगोट का चाहे जो बिगाड़ा हो, गमछा अपनी जगह अडिग है!

हर हर महादेव के साथ भोंसड़ी के नारा इसका सार्वजनिक अभिवादन है! चाहे होली का कवि-सम्मेलन हो, चाहे कर्फ्यू खुलने के बाद पी.ए.सी. और एस.एस.पी. की गाड़ी, चाहे कोई मन्त्री हो, चाहे गधे को दौड़ाता नंग-धड़ंग बच्चा-यहाँ तक कि जॉर्ज बुश या मार्गरेट थैचर या गोर्बाचोव चाहे जो आ जाए (काशी नरेश को छोडक़र) -सबके लिए हर हर महादेव के साथ भोंसड़ी के का जय-जयकार!

फर्क इतना ही है कि पहला बन्द बोलना पड़ता है - जरा जोर लगाकर; और दूसरा बिना बोले अपने आप कंठ से फूट पड़ता है.

जमाने को लौड़े पर रखकर मस्ती से घूमने की मुद्रा आइडेंटिटी कॉर्ड है इसका!

नमूना पेश है-

खड़ाऊँ पहनकर पाँव लटकाए पान की दुकान पर बैठे तन्नी गुरु से एक आदमी बोला-किस दुनिया में हो गुरु! अमरीका रोज-रोज आदमी को चन्द्रमा पर भेज रहा है और तुम घंटे-भर से पान घुला रहे हो?

मोरी में पच् से पान की पीक थूककर गुरु बोले- देखौ! एक बात नोट कर लो! चन्द्रमा हो या सूरज-भोंसड़ी के जिसको गरज होगी, खुदै यहाँ आएगा. तन्नी गुरु टस-से-मस नहीं होंगे हियाँ से! समझे कुछ?

जो मजा बनारस में; न पेरिस में, न फारस में- इश्तहार है इसका.
यह इश्तहार दीवारों पर नहीं, लोगों की आँखों में और ललाटों पर लिखा रहता है!

गुरु यहाँ की नागरिकता का सरनेम है.

न कोई सिंह, न पांड़े, न जादो, न राम! सब गुरु! जो पैदा भया, वह भी गुरु, जो मरा, वह भी गुरु!

वर्गहीन समाज का सबसे बड़ा जनतन्त्र है यह :

गिरिजेश राय (भाकपा), नारायण मिश्र (भाजपा), अम्बिका सिंह (कभी कांग्रेस, अभी जद) तीनों की दोस्ती पिछले तीस सालों से कायम है और आने वाली कई पीढिय़ों तक इसके बने रहने के आसार हैं! किसी मकान पर कब्जा दिलाना हो, कब्जा छुड़ाना हो, किसी को फँसाना हो या जमानत करानी हो-तीनों में कभी मतभेद नहीं होता! वे उसे मंच के लिए छोड़ रखते हैं ... अस्सी के मुहावरे में अगर तीनों नहीं, तो कम-से-कम दो-एक ही गाँड़ हगते हैं.

अन्त में, एक बात और. भारतीय भूगोल की एक भयानक भूल ठीक कर लें. अस्सी बनारस का मुहल्ला नहीं है. अस्सी अष्टाध्यायी है और बनारस उसका भाष्य. पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से पूँजीवाद के पगलाए अमरीकी यहाँ आते हैं और चाहते हैं कि दुनिया इसकी टीका हो जाए ... मगर चाहने से क्या होता है?

अगर चाहने से होता तो पिछले खाड़ी-युद्ध के दिनों में अस्सी चाहता था कि अमरीका का व्हाइट हाउस इस मुहल्ले का सुलभ शौचालय हो जाए ताकि उसे दिव्य निपटान के लिए बहरी अलंग अर्थात् गंगा पार न जाना पड़े ... मगर चाहने से क्या होता है?

इति प्रस्तावना.

('देश तमाशा लकड़ी का' से)

13 फरवरी, ’98 की शाम
पप्पू की दुकान.

कोलाहल और ठहाके-अन्दर भी, बाहर भी; बहस और नोंक-झोंक-अन्दर भी, बाहर भी; सरकार गिर रही है, बन रही है-अन्दर भी बाहर भी! हार रहा है, जीत रहा है-अन्दर भी, बाहर भी.

जब मैं दुकान के अन्दर जा रहा था, चार महाकवि बाहर निकल रहे थे- कौशिक रवीन्द्र उपाध्याय, सरोज यादव, श्री प्रकाश, बद्रीविशाल. बने-ठने, सजे-सँवरे, इत्र और फुलेल से गम-गम करते. इनकी रतनार आँखें अँगड़ाइयाँ ले रही थीं. किसी कवि-सम्मेलन की तैयारी थी शायद.

मैंने कई-कई बार इन मौसमी महाकवियों से कहा था कि माई-बाप! जिस त्याग, तपस्या और साधना से आप होली की अमर कविताएँ बनाते हो, उसी से भंगायन (भंग), रंगायन (रंग), गंगायन (गंगा) या लंकायन (लंका) नाम से महाकाव्य न सही, खंडकाव्य ही लिख मारो तो अस्सी की जनता तुम्हारे लिए उस मंगलाप्रसाद पारितोषिक हेतु संघर्ष करने का काम (सौजन्य सोशलिस्ट शब्दकोश) करे जो हिन्दी का नोबेल प्राइज माना जाता था. अगर यह बन्द भी हो गया होगा, तो उसे फिर से चालू करा दिया जाएगा ... लेकिन उन्होंने नहीं सुना.

खैर, जा रहे हो तो जाओ.

जब भाग्य गदहे के फोद से लिखा गया हो तो हवन-पूजन या सलाह क्या कर सकती है?

मैं जैसे ही अन्दर दाखिल हुआ, आवाज आई - आइए-आइए, बड़े अच्छे मौके पर आए, मिठाई लाल फगुवा गाने जा रहे हैं.
(इस आवाज के साथ-साथ दूसरे कोने से एक फुसफुसाहट भी हुई जिसे भला आदमी अनसुना कर जाता है. एक अपरिचित और दूसरे परिचित स्वर के बीच संवाद- ई कौन है बे?’ ‘लेखक हैं भोंसड़ी के’, ‘लिखता क्या है?’ ‘हमारी झाँट. जो हम बोलते हैं, वही टीप देता है.’ ‘अरे, वही तो नहीं देख तमाशा लकड़ीवाला?’ ‘हाँ, वही. देखो तो कितना शरीफ, लेकिन हरामी नम्बर एक).

करुणा यानी सीट की याचना करती बाल और दाढ़ी की सफेदी- अरे, बुढ़ऊ को जगह दो भाई, नहीं खड़े-खड़े टें बोल जाएँगे, जैसी माँग. बैठे ही थे कि तानसेन ने महफिल के पंचों से कहा- तो शुरू करें. गुरु?

मिठाईलाल गुप्त यानी सुरों की चलती-फिरती दुकान. देखने में कहीं से नहीं लगता कि संगीत के आचार्य होंगे किसी विश्वविद्यालय से. हैं सूरदास, रहते हैं तुलसीघाट पर. देखिए तो लगेगा, कि रेलगाड़ी के किसी डब्बे में कटोरा लिये गाते किसी आदमी को पकड़ लिया गया है और गवाया जा रहा है लेकिन गाते हैं तो खुद को तुर्रम खाँ समझनेवाले बैजू बावरा भी भाग खड़े होते हैं.

अन्धापन मिठाईलाल की कमजोरी नहीं, ताकत है. वे निर्भय, नि:शंक बूमरैंग की तरह इस्तेमाल करते हैं उसका. पहुँच गए बनारसीदास गुप्त के यहाँ एक बार; जब वे मुख्यमन्त्री थे. बोले बनारसीदास! तुम भी गुप्ता, मैं भी गुप्ता, कार्यक्रम दिलाओ आकाशवाणी पर. वी.पी. सिंह के जमाने में चले गए दिल्ली दूरदर्शन पर. निदेशक से कहा- भोंसड़ी के थर्ड क्लास कलाकारों से गाना गवाते हो, कभी मुझे भी गवाकर देखो तो फर्क पता चल जाएगा. देश-भर की ट्रेन उनकी है, जिस नगर में पहुँचते हैं आकाशवाणी या दूरदर्शन से इतना ले आते हैं जितने से दस-पन्द्रह दिन चैन से कट जाएँ.

उन्होंने शुरू कर दिया था-

                        बलुरेतिया पे बँगला छवा द किसोरीलाल,
                        आवे लहर जमुना की!

गंगा की क्यों नहीं, जमुना की काहे. कहीं से टिप्पणी हुई.

चुप भोंसड़ी के, गाना सुन.

संशोधन पारित नहीं हो सका. तानसेन गाते रहे, उनका मुँह राग ही नहीं, पूरा आर्केस्ट्रा था. संगत के सारे बाजे उनके मुँह में और बचे-खुचे अंगुलियों में थे-हारमोनियाम भी, ढोलक भी, तबला भी, झाँझ-मजीरा भी.

इस दौरान दड़बे का समूचा जन सैलाब लहराता और ताल देता रहा.

जैसे ही फगुवा खत्म हुआ, माँग हुई कि एक जोगीड़ा हो जाए.

सारा रा रा! जोगीड़ा, सारा रा रा रा रा. सारा रा रा’, तानसेन को सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ी, वे शुरू हो गए-
कवन देस का राजा अच्छा,
कवन देस की रानी?
अरे, कवन देस का राजा अच्छा,
कवन देस की रानी?
कवन देस का कपड़ा अच्छा,
कवन देस का पानी?
जोगीड़ा सारा रा, जोगीड़ा सा रा रा रा...

कानपूर का कपड़ा अच्छा
राजघाट का पानी.
अरे, रामनगर का राजा अच्छा
इटलीगढ़ की रानी
जोगीड़ा सारा रा रा ...

तहलका मच गया दड़बे में. भाजपाइयों की समझ में आए, इसके पहले वीरेन्द्र श्रीवास्तव मेज पर उछलकर नाचने लगे-नारा लगाते हुए करो सोनिया की तैयारी. लेट कर गए अटल बिहारी.

वीरेन्द्र पेशे से वकील लेकिन पप्पू की दुकान की कचहरी है उनकी. साँवले और दुबले-पतले इतने की चार-छह आदमियों के बीच हों तो कहीं नजर न आएँ. कई आन्दोलनों के जेलयाफ्ता. कल तक समाजवादी थे. मैं चकित. यह कांग्रेसी कब से हो गए?

गाना-बजाना बन्द हो गया और राष्ट्रीय स्तर पर नेताओं की गोलमेज शुरू हो गई.

(सन्तों घर में झगरा भारी से)

भदन्तो, यह कथा मैं आपको सुना रहा हूँ जो गया सिंह ने दीनबन्धु तिवारी को सुनाई थी.

प्राचीन काल में इसी वाराणसी में एक समय ब्रह्मदत्त का पुत्र कुमार काशी नरेश हुआ. उसे बचपन से एक आदत थी- मांस-भक्षण की. खाने के लिए चाहे जो पकवान दे दो, अगर उसमें मांस नहीं तो सब व्यर्थ. उसका रसोइया नियम से प्रतिदिन उसके लिए मांस लाता, पकाता और खिलाया करता. एक दिन उससे असावधानी हो गई. कुमार के हिस्से का मांस उसी के पालतू कुत्ते खा गए! रसोइया परेशान-अब क्या करे? न खिलाए तो मारा जाए! वह भागा-भागा श्मशान गया-उसने तुरन्त का मरा हुआ मुर्दा देखा; चुपके से उसकी जाँघ का मांस काट लाया, पकाया और परोस दिया.

राजा यानी कुमार ने जैसे ही एक टुकड़ी जीभ पर रखा, दंग रह गया - इतना सुरस, इतना मीठा, इतना स्वादिष्ट! क्यों नहीं खाया था अब तक ऐसा मांस.

रसोइया तलब किया गया. कुमार ने दुनिया-भर की पूछ-ताछ की उससे-यही मांस पहले क्यों नहीं पकाते थे? कहाँ से लाए थे? किस जीव का था? सच-सच बता, नहीं तो जिन्दा नहीं रहेगा! रसोइए ने सारी बात डरकर ज्यों-की-त्यों बता दी. कुमार बहुत खुश. बोला-आगे से मेरे लिए ऐसा ही मांस पकाया कर. जो मेरे लिए लाया करता था, उसे स्वयं खाया कर!
मुश्किल यह कि रोज-रोज कहाँ से आए मनुष्य का मांस?

कुमार ने कहा- मेरा कारागार बन्दियों से भरा पड़ा है. एक बन्दी-एक-दिन! यही अनुपात रख.

धीरे-धीरे कारागार खाली हो गया. एक भी बन्दी नहीं बचा. मुश्किल फिर आन पड़ी- अब?

कुमार ने सोच-विचार कर फिर रास्ता निकाला- ऐसा कर कि चौराहे पर खड़ा हो जा-प्रतिदिन सुबह! कार्षापणों से भरी हुई थैली सडक़ पर फेंक और जो लोभ में थैली उठाए उसे चोर! चोर!कहके पकड़ और ले आया कर!

यह सिलसिला शुरू हुए कुछ ही महीने बीते थे कि पूरे जम्बूद्वीप में हाहाकार सुनाई पडऩे लगा. किसी का बेटा गायब, किसी की बहन गायब, किसी का पिता गायब, किसी की पत्नी गायब! ऐसा एक भी घर नहीं जिससे कोई-न-कोई गायब न हो. त्राहि-त्राहि करती हुई जनता ने गुहार लगाई सेनापति के यहाँ. क्या है? दुर्ग से निकलकर उसने पूछा. जनता ने बिलखते हुए फरियाद की- इस राज्य में कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई नरभक्षी चोर है. स्वामी! उसे पकड़े और हमारी रक्षा करें! सेनापति ने सात दिन का समय लिया और चारों दिशाओं में अपने गुप्तचर दौड़ा दिए!

आखिर सातवें दिन पकड़ लिया गया चोर! और वह भी रँगे हाथ! उसने दो मकानों के बीच सँकरी गली में एक युवती को मारा था और उसके माँसल हिस्सों को काट-काटकर टोकरी में भर रहा था कि पकड़ लिया गया! लाया गया सेनापति के सामने टोकरी समेत. सेनापति ने पूछा- कौन है तू? ऐसा क्यों करता है? किसके लिए और किसके कहने पर करता है?
चोर ने अपनी विवशता बताते हुए कहा कि मैं राजा का रसोइया हूँ.

तू राजा के सामने ये बातें बोलेगा?

हाँ, बोलूँगा.

उधर जब पिछली रात रसोइया नहीं आया तो भूख से बेहाल राजा समझ गया कि कुछ गड़बड़ है! और जब सुबह जनसभा बुलाई गई तो उसे विश्वास हो गया कि अब बात खुल गई है, छिपाने से कोई लाभ नहीं. जनता की अदालत में रसोइये ने सारा किस्सा बयान किया तो राजा ने कहा- हाँ, यह सच है! मनुष्य का मांस खानेवाला मैं ही हूँ.

राजन्! छोड़ दें यह आदत! सेनापति ने समझाया.

राजा ने कहा- विवश हूँ! नहीं छोड़ सकता!

जब बहुत समझाने-बुझाने पर भी कुमार तैयार न हुआ तो जनता ने अपना निर्णय सुनाया कि राजा को देशनिकाला दे दिया जाए!

ठीक है, मैं जा रहा हूँ! सिंहासन छोड़ते हुए कुमार बोला- लेकिन मुझे अपनी जीवन-रक्षा के लिए एक खड्ग, मांस पकाने का बरतन और एक रसोइया दे दें!

कुमार राज्य के बाहर जंगल में पहुँचा और एक वटवृक्ष के नीचे उसने डेरा जमाया! वह प्रतिदिन मनुष्य की टोह में तलवार लिए निकलता और जैसे ही किसी खाद्य (दुबला, पतला, हडिय़ल नहीं, मोटा, मांसल, स्वस्थ) मनुष्य को देखता, प्रचंड स्वर में दहाड़ता हुआ दौड़ पड़ता- खबरदार! रुक जा! मैं ही हूँ मनुष्य-भक्षी चोर! किसी को मूर्छित और धराशायी कर देने के लिए उसकी दहाड़ ही काफी थी! वह उस आदमी को सिर के बल उलटा पीठ पर लादता और रसोइए को पकाने के लिए दे देता!
हुआ यह कि उस जंगल के रास्ते मनुष्य का आना-जाना बन्द हो गया! कौन जाए उधर जिधर आदमखोर चोर हो! एक दिन की बात है कि सुबह बीती, दोपहर बीती, शाम भी बीत गई- चोर तलवार लिये पेड़ पर बैठा इन्तजार करता रह गया, कोई नहीं आया. भूख और क्रोध से पागल वह डेरे पर लौटा और रसोइए से बोला- चूल्हे का बर्तन चढ़ा. रसोइए ने उसे देखा और कहा- देव! मांस कहाँ है? कुमार ने तलवार से उसे दो टुकड़े किए और कहा- यह रहा मांस! फिर खुद पकाया, खाया और निश्चिन्त हो गया!

मुसीबत आई दूसरे दिन!

कोई धनाढ्य ब्राह्मण पाँच सौ बैलगाडिय़ों पर जजमानी का माल लादे व्यापार करने निकला और पहुँचा जंगल के मुहाने पर! उसे चोर का पता चला. लेकिन व्यापार करना है तो जंगल पार करना जरूरी है. उसने गाँववालों में हजारों कार्षापण बाँटे और कहा - जंगल पार करा दो! लाठी-डंडे समेत रक्षकों से घिरा उसका काफिला जंगल के रास्ते चला. पेड़ पर बैठा चोर हडिय़ल-मरियल ग्रामीणों को देख दुखी हुआ. ये उसके किस काम के? खाने में भी कोई लज्जत नहीं. कि इसी बीच उसकी नजर गई मालपुआ-रबड़ी-मलाई खाए ब्राह्मण पर. वह खिल उठा. मैं मनुष्यभक्षी चोर हूँ! कहकर ललकारते हुए जो पेड़ से कूदा, तो सारे रक्षक मूर्छित जहाँ-के-तहाँ गिर पड़े. उसने ब्राह्मण को पीठ पर सिर के बल लादा और चला.

रक्षक जब चेतना में आए तो उसके मन में विचार आया - हमने हजार कार्षापण लिए हैं उसकी रक्षा के लिए! वह पकड़ में आए या नहीं- हमें कोशिश तो करनी चाहिए. और वे ललकारते हुए उसके पीछे दौड़े. चोर जिस समय एक कँटीली बाड़ को फाँदने की कोशिश कर रहा था, उसी समय एक बहादुर ग्रामीण रक्षक ने उसकी एड़ी पर वार किया. चोर लँगड़ाता हुआ कुछ दूर तक चला लेकिन चोट ज्यादा थी और खून बहुत बह रहा था, उसने ब्राह्मण को फेंककर अपने को हलका किया और घने जंगल में अदृश्य हो गया.

रक्षकों को ब्राह्मण से मतलब. जब वह मुक्त हो गया तो उन्होंने चोर का पीछा करना छोड़ दिया! लेकिन एक बात ग्रामीणों की समझ में आ गई कि मनुष्यभक्षी राजा चाहे जितना भयानक और बलशाली हो, दुर्वध्य नहीं है. उसक वध सम्भव है!
भदन्तो, गया सिंह ने दीनबन्धु तिवारी को इसके आगे की कथा नहीं सुनाई. यहीं पर अपना समोधान देते हुए बताया कि, ब्रह्मदत्त-पुत्र मनुष्यभक्षी चोर कलिकाल में आकर सात समुन्दर पार अमरीका का राष्ट्रपति हुआ और ब्राह्मण व्यापारी के रक्षक अस्सी के गदरहे.

रसोइया कौन हुआ? दीनबन्धु ने पूछा था.

गया बोले- यह ब्रह्मनन्द से पूछो. वही बताएँगे!

(सन्तों, असन्तों और घोंघाबसन्तों का अस्सी से)

रात-भर दोनों सोए लेकिन जगे-जगे!

रात-भर उन्होंने सपने देखे और जगे-जगे!

सपने दोनों के अपने-अपने थे. शास्त्री के अपने, पड़ाइन के अपने!

पड़ाइन सपने देख रही थीं- तबीयत ढीली है, देह टूट रही है, उठने का जी नहीं कर रहा है. जी कर भी रहा है तो हिम्मत नहीं पड़ रही है लेकिन उठती हैं. उठना है इसलिए उठती हैं. आँगन  का एक कोना-टिन का शेड है जिस पर किचेन है. चाय बनाती हैं-मादलेन के लिए नींबू की, शास्त्रीजी के लिए दूध की. तब तक बच्चे उठ जाते हैं. जब तक उन्हें नहला-धुलाकर, बासी रोटियाँ खिलाकर पाठशाला भगाती हैं तब तक-अरे सावित्री, पानी तो गरम करो मादलेन के लिए! मादलेन नहा रही है, फटाफट झाडू-पोंछा कर लो तब तक. नहाकर बाहर आ गई तो गीले पकड़े छत पर डाल दो धूप में ... अरे, नाश्ते में क्या देर है सावित्री? ... कल सारनाथ गई थी, आज रामनगर जाना है, राजा का म्यूजियम देखने! लंच थोड़ा पहले लेगी मादलेन! हें-हें-हें, लंच में क्या लोगी, मेडम? रोज-रोज वही रोटी, वही सब्जी, वही दाल, वही भात! नहीं यार सावित्री, कभी चेंज भी होना चाहिए. कुछ स्पेशल! क्यों न हरी मटर की भरूई पूडिय़ाँ बनें? पूडिय़ाँ और गोभी की सब्जी, चटनी. और मादलेन! तुमने ईख के कच्चे रस की खीर खाई है कभी? मिलती है तुम्हारे देश में?

म्यूजियम से लौटी तो चाय! ट्यूशन से उठी तो चाय! इस दौरान बच्चों की उछल-कूद, मार-पीट, पें-पाँ. उनकी पढ़ाई-लिखाई गई जहन्नुम में. कोई जरूरी नहीं कि सब एक साथ टनमन रहें. किसी की नाक बह रही है तो किसी का पेट चल रहा है. यह सब भी देखो और डिनर भी तैयार करो! शास्त्रीजी क्या कहते थे! जैसे सात, वैसे आठ! कुछ नया थोड़े करना है, समझ लो एक आदमी और बढ़ गया. लेकिन डिनर! पहले शास्त्रीजी भी जो दे दो वही खा लेते थे लेकिन अब डिनर कर रहे हैं. तो मादलेन! गुडनाइट के लिए संस्कृत में कहेंगे- शुभरात्रि, तो शुभरात्रि! सावित्री, जरा बिस्तर-उस्तर ठीक देना! चादर गन्दी हो गई हो तो बदल देना. और देखो, ताँबे के लोटे में पानी रखना न भूलना!

11&7 फीट की कोठरी और उसमें सात जने. एक सिरे पर शास्त्रीजी, दूसरे सिरे पर पड़ाइन, इनके बीच एक-दूसरे पर नींद में लात-मुक्का चलाते, रोते, सोते बच्चे-बच्चियाँ. और उस कोठरी में इन सबके ऊपर मच्छरों के साथ-साथ उन्नीस हजार पाँच सौ रुपए रात-भर उड़ रहे हैं, नाच रहे हैं. खनक रहे हैं.

इसी नृत्य-संगीत समारोह के सपने में आती है रमदेइया-जग्गू मल्लाह की औरत जो जब कभी गली से गुजरती थी तो आँचल से हाथ ढँककर तीन बार पड़ाइन के पाँव छूती थी-आती है रमदेइया और गली से ही चिल्लाती है- का सवितरा बहिन! झाडू-पोंछा कर लिया? पानी सवेरे से ही नहीं है नल में, पकड़-लत्ते धोना हो तो ले ल्यौ. चलो घाट पर, सबुना भी लेंगे और नहा भी लेंगे! नीचे खड़े हैं, आ जाओ!

शास्त्रीजी के सपने दूसरे थे.

उनके सपने में जग्गू और रमदेइया नहीं, शिवजी आ रहे हैं - बैल पर सवार, एक हाथ में त्रिशूल - दूसरे में डमरू, गले में लिपटा हुआ सांप, आगे-पीछे नाचते हुए भूत-प्रेत. सीधे कैलास पर्वत से चले आ रहे हैं डमरू बजाते हुए. उन्हें देखते ही रामनगर से राजघाट के बीच पसरी गंगा लहराकर खड़ी होती है और रिबन की तरह उनकी जटा को लपेट लेती है. औघड़, अड़भंगी, अलमस्त, भँगेड़ी, गँजेड़ी बाबा! हर-हर महादेव! वे बैठक के मन्दिर से निकलते हैं और आँगन में अपनी बरात रोककर नन्दी की पीठ से उतर जाते हैं. उनकी आँखे क्रोध से लाल हैं, चेहरा तमतमाया है और माथे पर चाँद सूर्य की तरह दहक रहा है. जैसे वे नहीं बोल रहे हों, बिजली कडक़ रही हो- बे धरमनाथ! कहाँ है बे? गधे, सूअर, उल्ले के पट्ठे धरम! निकल बे कोठरी से!

धरमनाथ उस ठंढ में भी पसीने-पसीने. वे काँप रहे थे और उठने की कोशिश ही कर रहे थे कि पेट पर शिवजी की लात और त्रिशूल की नोक छाती पर! त्रिशूल धँसा जा रहा है पसलियों के बीच - चूतिए, मैंने बहुत बर्दाश्त किया रे! जहाँ मुझे रखा है, वह मन्दिर है कि माचिस? हिमालय की ऊँचाइयों का पखेरू मैं, समुद्र की गहराइयों का थहैया मैं, अन्तरिक्ष के सन्नाटे का ता-ता थैया मैं! तेरी मजाल कैसे हुई मुझे डिब्बा-डिब्बी में बन्द करने की? अब तक मैं धतूरे और भाँग के नशे में धुत था. मेरा दम घुट रहा है उस कालकोठरी में. अगर अपनी खैर चाहता है तो अभी-इसी क्षण मुझे वहाँ से-उस कोठरी से निकाल और ले चल खुले में-खुले आसमान में जहाँ चाँद है, तारे है, नक्षत्र-मंडल है, सूर्य है, हवा है, धूप है, बारिश है! उठ और ले चल!

शास्त्रीजी पसीने-पसीने! काँप रहे हैं और हाथ जोडक़र कुछ विनती करना चाहते हैं लेकिन बकार नहीं फूट रही है- हे प्रभु! मैं अधम, कुटिल, खल, कामी, हिम्मत नहीं पड़ रही है मेरी. लोग क्या कहेंगे? कहेंगे कि लोभ ने इसकी मति भ्रष्ट कर दी है.
हा-हा-हा-हा! मूर्ख, जिन लोगों की बात कर रहा है तू, वे हमारी ही सृष्टि हैं. वे भी और यह पृथ्वी भी. चाहूँ तो अभी-अभी इसी क्षण लोगों को राख बना दूँ और मुहल्ले को श्मशान! मेरी सुनेगा कि लोगों की? देख रहा है माथे पर यह आँख?
आर्तनाद कर उठे शास्त्रीजी! घिघियाते हुए बोले- प्रभु, डर इसलिए लग रहा है कि वह महिला एक अँगरेजिन है.

रे मतिमन्द! तूने वेद पढ़ा है! पुराण पढ़ा है! शास्त्र पढ़ा है! सब पढ़ा है फिर भी मूर्ख का मूर्ख ही रह गया! मैंने प्राणियों की सृष्टि की है, हिन्दुओं, इसाइयों, मुसलमानों की नहीं. ये तूने बनाए होंगे. जा, समझा मुहल्ले को. अब उठ और ले चल!

आप का आदेश मेरे सिर माथे! शास्त्रीजी ने माथा टेक दिया- लेकिन प्रभु! मुझे समय दें दो-चार दिन का!

एवमस्तु! शिवजी ने कहा और अंतर्ध्यान हो गए!

शिवजी अंतर्ध्यान हो गए लेकिन सपना चलता रहा! सपने में ही शास्त्रीजी के घर के आगे बालू गिरा, फिर ईटें गिरीं, फिर सीमेंट और काम शुरू हो गया कोठरी और टायलेट का. सपने में ही शास्त्रीजी ने जब उपाध्याय, दूबे, तिवारी, मिश्राजी और मुहल्ïले के दूसरे लोगों को शिवजी की बात बताई तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा! क्योंकि शिवजी शास्त्रीजी के सपने में एक बार आए थे, लेकिन उनके सपने में तो जाने कब से कई-कई बार आ रहे थे! शास्त्रीजी ही थे जिनके डर से वे किसी से चर्चा नहीं करते थे!

सहसा आधी रात के बाद शास्त्रीजी की नींद टूटी और भूख महसूस हुई!

सावित्री! उन्होंने धीरे से आवाज दी ताकि बच्चियों की नींद न टूटे!

पड़ाइन कैसे बोलती? वहाँ रहतीं तब न? वह तो अंगरेजिन के पैंट, शर्ट, राजस्थानी घाघरे-चोली और रिन की टिकिया के साथ घाट पर थीं.

लेकिन शास्त्रीजी ने उन्हें कोठरी में ही देखा-मादलेन की मैक्सी में, और खुश हुए.

(पांड़े कौन कुमति तोहें लागी से)

यही वक्त है जब कुँवारी लड़कियाँ अपने दरवाजे और खिड़कियों के आसपास मँडराने लगती हैं-उदास और अनमने भाव से, कि क्या करें? किधर जाएँ? जिएँ कि मर जाएँ?

हलो! हाय! वाव! हे! मेरी बेटियों, जियो ओर लाखों बरस जियो. अगर पढ़ते-पढ़ते ऊब गई हो; स्टेनो, प्राइवेट सेक्रेटरी, रिसेप्शनिस्ट, प्रोबेशन अफसर नहीं बनना चाहतीं, डॉक्टर, इंजीनियर, एयर होस्टेस बनना अपने वश में नहीं तो निराश न हो, शहनाज हुसैन से सम्पर्क करो और अपने नगर में- मुहल्ले में ब्यूटी पार्लर खोल लो. या खुद को जरा गौर से देखा- बम्बई, दिल्ली, बंगलौर, हैदराबाद में पैदा नहीं हुई तो क्या हुआ? किस ऐश्वर्या राय, सुष्मिता सेन या लारा दत्ता से कम हो तुम? न मॉडलिंग की दुनिया कहीं गई है, न फैशन शो की कोई कमी है, न सीरियलों का टोटा है, न म्यूजिक अलबम की किल्लत है. टी.वी. के चैनल पचासों हैं- अगर वीजे नहीं तो सबको खूबसूरत फिगर और क्यूट चेहरे चाहिए. गौर से देखो अपनी फिगर. किससे कम स्मार्ट और क्यूट हो? कोई कमी रह गई हो तो उसे पूरा करने के सारे सामान भरे पड़े हैं बाजार में.

लेकिन जब तक माँ-बाप की उँगली पकड़े रहोगी, तब तक ये सारे दरवाजे और खिड़कियाँ बन्द मिलेंगी. इसलिए इधर देखो, हम वेलकम कर रहे हैं तुम्हारा.

यह वही वक्त है जब बीवियाँ झुँझलाए और मुर्दा चेहरों के साथ किचेन में घुसती है चाय तैयार करने के लिए और अपनी किस्मत का रोना शुरू करती हैं. चाय और चूल्हा, बिस्तर और बच्चे-क्या जिन्दगी है अपनी भी? इनके सिवा कुछ नहीं है क्या? है क्यों नहीं-बोलो उनसे, जरा बाहर तो नजर डालो. फास्ट फूड क्यों बिक रहे हैं? रेस्त्राँ और होटल किसलिए हैं? किनके लिए हैं? किचेन की ही मोनोटनी को तोडऩे के लिए न? जायका ही बदलने के लिए न? मँगा लो जो चाहो. कहीं जाने की भी झंझट नहीं. और यह भी बताओ कि होंठ, दाँत, नाक, कान, आँख, बरौनी, भौं, माथा, चमड़ी, बाल-इन सबके लिए एक नहीं, बीस तरह की-बीस रंग की-बीस साइज की, सस्ती-से-सस्ती-महँगी-से-महँगी चीजों से पाट दिया है बाजार. जरा देखो तो.

यह वही वक्त है जब परिवार के लिए जक्ख हो चुके बूढ़े-बूढिय़ाँ देपहर की नींद से उठते हैं और डरने लगते हैं अपने अकेलेपन से. क्यों जी रहे हैं? यह सवाल उन्हें भी परेशान करता है और उनके बेटों-बहुओं को भी.

सच मानो जब हमने ईश्वर से सौदा किया था तो नहीं समझा था कि मन्दिरों और देवी-देवताओं के लिए इतनी तड़प और बेचैनी होगी लोगों में? खैर,

तो मन्तरीजी, बूढ़ों-बुढिय़ों को मन्दिर का रास्ता दिखाओ. यह रास्ता उन्हें शान्ति की ओर, चैन की ओर, स्वर्ग की ओर, मुक्ति की ओर ले जाएगा. बाबा, माया मोह छोड़ो, हाय हाय छोड़ो. क्या मतलब दुनिया और झमेले से? बीसियों जगहें हैं इसी नगर में. सैकड़ों हजारों मन्दिर हैं यहाँ. लाखों देवी-देवता हैं. उनकी अलग-अलग खासियत है. कहीं रामकथा हो रही है, कहीं भागवत कथा चल रही है, कहीं यज्ञ हो रहा है,कहीं नवाह्न पारायण, कहीं रामलीला हो रही है- यानी, कोई ऐसी शाम नहीं जिसमें तुम्हारे ही मुहल्ले में दसियों जगह यह सब न हो रहा हो. जाओ, मोक्ष बनाओ. बहुत पाप कर लिये इस जीवन में.

रह गए जवान और अधेड़.

यह वही वक्त है जब ये दफ्तर और रोजगार कार्यालयों से घर लौटते हैं- थके-माँदें, झुँझलाए और चिड़चिड़े. तुम्हारी असल समस्या यही लोग हैं. ये ही सिरदर्द हैं तुम्हारे. चाय-वाय पीकर उसी मूड में घर से सडक़ पर आते हैं, चाय की दुकानों में बैठते हैं, पान की गुमटियों के आगे खड़े होते हैं, लोगों से मिलते हैं-जुलते हैं, गप्पें करते हैं, सलाह-मशविरा करते हैं और फिर शुरू होते है कभी खत्म न होनेवाला एक बर्बर सिलसिला. रोज-रोज सभा, रोज-रोज जुलूस, रोज-रोज भाषण. कभी हड़ताल करते हैं, कभी धरना देते हैं, कभी अनशन करते हैं, कभी घेराव करते हैं. काम-धाम से फुर्सत मिली नहीं कि फाटक के बाहर जमा. फिर भाषणबाजी के बाद शुरू करते हैं- जिन्दाबाद मुर्दाबाद. पुतले फूँकते हैं और तुम्हें उखाड़ फेंकने का संकल्प लेते हैं.

कौन हैं ये लोग? पहचानो इन्हें. ये वही चौराहे के लोग हैं जिनके पास फुर्सत-ही-फुर्सत है चाय की दुकानों और काफी हाउसों में बैठने की, गुमटियों, सडक़ों और फुटपाथों पर खड़े होने की; सरकार और तुम्हारी छीछालेदर करने की. ये वही लोग हैं जो भूखे रहकर भी-आधा पेट खाकर भी आपस में हँसी-मजाक करते हैं, ठिठोलियाँ करते हैं, ठहाके लगाते हैं. यह लोग भी हैं और वे लोग भी जिन्हें शाम निरंकुश और मुक्त छोड़ देती है.

सोचना इन्हीं के बारे में है. सोचो और जानो कि दिन-भर काम-धन्धे से खटकर थका-हारा आदमी घर आता है तो क्या चाहता है? गरम-गरम कडक़ चाय, मुस्कुराती हुई बनी-ठनी बीवी और गाना-बजाना. इन्हीं चीजों के लिए कभी वह कोठे पर जाता था, आज सडक़ पर निकलता है, सनीमा जाता है, तमाशे देखता है. ये सारी चीजें उसके लिए घर में ही मुहैया कर दे रहे हैं हम. चाय की एक नहीं, पचास किस्में? नाखून से लेकर बालों तक सिंगार-पटार के सारे सामान. अब सनीमा किस बात के लिए जाओगे? तो, ये रहे सारे देसी-विदेशी कम्पनियों के टेलीविजन, वी.सी.आर., सी.डी., कैसेटें, वीडियो गेम्स, म्यूजिक अलबम. और भी कुछ चाहिए तो बोलो.

मन्तरीजी, इसे कहते हैं दिमाग. न दफा एक सौ चौवालिस, न दंगा, न कर्फ्यू की झंझट? उन्हीं का घर, उसी में कैद. अपनी मर्जी से. इसे नजरबन्द भी नहीं कहेगा कोई. कैद करो उन्हें. उन्हीं की इच्छा से उन्हीं के घर में.

इसके बाद भी अगर कुछ बच रहता है तो चाँप दो महँगाई से. घिघिया उठेंगे और शाम की तफरीह भूल जाएँगे.

तो यह है शाम के सिरदर्द का हमारा फॉर्मूला-

                        कुछ के लिए मल्टीनेशनल्स.
                        कुछ के लिए मन्दिर.
                        कुछ के लिए मनोरंजन.
                        बकिया लोगों के लिए महँगाई.
                        बोलो, बोलो वृन्दावन बिहारी लाल की जै.
                                    धर्म की जै हो.
                                    अधर्म का नाश हो.
                                    प्राणियों में सद्भावना हो.
                                                हर-हर महादेव.
('कौन ठगवा नगरिया लूटल हो' से)

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