Wednesday, March 15, 2017

हिज़ नेम इज़ एन्थनी गोंसाल्वेस

7 अगस्त 2014 को यह पोस्ट इरफ़ान ने अपने ब्लॉग टूटी हुई बिखरी हुई पर लगाई थी. आज एक चैनल पर 'अमर अकबर एन्थनी' का वह गाना चल रहा था जिसने मुझे इस पोस्ट की याद दिलाई. इरफ़ान से पूछे बिना इसे यहाँ जस का तस लगाए दे रहा हूँ ताकि आप भी खुद से कम से एक बार तो अवश्य पूछें कि आखिर कौन था ये शख्स जिसका नाम एन्थनी गोंसाल्वेस था.

एन्थनी गोंसाल्वेस पर उपलब्ध कुछ लेख-साक्षात्कार वगैरह पढ़ रहा हूँ और उम्मीद करता हूँ जल्द ही उन पर एक पोस्ट लिख सकूंगा.

युवा एन्थनी गोंसाल्वेस (1927-18 जनवरी 2012)

मत हंसो... कि तुम्हारी हंसी से कोई हारता है

- सैयद मोहम्मद इरफ़ान

प्यारे लाल शर्मा (लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल) भले ही यह कहें कि उन्होंने अपने गुरु एंथनी गोंसाल्वेस के प्रति कृतज्ञता स्वरूप एक सस्ते से गाने में अपने गुरू का नाम डलवाया लेकिन बात कुछ जंचती नहीं है.

दिल पर हाथ रखकर कहिये कि तुलसीदास के शिष्य ने ऐसी कोई श्रंद्धांजलि उन्हें दी होती तो क्या आपको मंज़ूर होता? रवींद्रनाथ टैगोर को 'माय नेम इस रवींद्रनाथ टैगोर' कहकर एक बड़े से दुर्गापूजा पंडाल से बाहर आता देखना कैसा लगता? अज्ञेय के लिये ये बात शायद माक़ूल होती लेकिन तब वात्स्यायन की चटपटी पहचान में भी वह खटकती.

जो लोग भी अमर अकबर एंथनी की कहानी और उसमें आए इस गाने से परिचित हैं जिसमें एंथनी गोंसाल्वेस का नाम लिया गया, क्या वो कह सकते हैं कि उन्हें इस फ़िल्म के रिलीज़ होने के 37 साल बाद भी एक स्वप्नदर्शी कम्पोज़र-अरेंजर एंथनी गोंसाल्वेस के बारे वैसा कुछ मालूम हो सका जिसके वो हक़दार हैं?

वैसे तो एंथनी गोंसाल्वेस के शिष्य आर डी बर्मन भी थे लेकिन प्यारेलाल जैसा ओछा फ़ैसला उन्होंने नहीं लिया. पिछ्ले 9 वर्षों में मैं अपने मन को आश्वस्त नहीं कर सका हूं कि माय नेम इज़ एंथनी गोंसाल्वेज़ ... गाने ने मशहूर गोवानी म्यूज़ीशियन, विलक्षण अरेंजर एंथनी गोंसाल्वेस को इस पॉपुलर प्लेटफ़ॉर्म के ज़रिये संगीत प्रेमियों से परिचित कराया.

इसके उलट मेरा मानना है कि इस गाने को सुनते हुए ख़ुद एंथनी गोंसाल्वेस उस फ़िल्म म्यूज़िक की तरफ़ पीठ ही फेरते गये (इस गाने को उन्होंने 35 साल तक झेला होगा) जिससे उन्होंने अपना न सिर्फ़ करियर शुरू किया था बल्कि जिस अद्भुत संगीत संसार में उन्होंने मुंबई में भारतीय और पश्चिमी संगीत के अंतर्घुलन की भव्य प्रस्तुतियां कर दिखाई थीं.

मैं यह भी मानता हूं कि बजाय कोई जिज्ञासा जगाने के, यह गीत एक 'वास्तविक' आदमी को 'फ़िक्शनल' ही सिद्ध करता गया. कोई अगर एंथनी गोंसाल्वेस के ब्रेनचाइल्ड सिम्फ़नी ऑर्केस्ट्रा ऑफ़ इंडिया के उन ब्रोशर्स को देखे जिनमें उन्होंने क़रीब डेढ सौ भारतीय और विदेशी वाद्यों के साथ अपनी प्रस्तुतियां की थीं तो दांतों तले उंगलियां दबाएगा.


यहां एक और बात मेरे ज़ेहन में आती है, जितना मैं अमिताभ बच्चन को जानता हूं, कि अगर उन्हें यह मालूम होता कि जिस आदमी को उस गीत का खिलंदड़ हिस्सा बनाया जा रहा है, वो कितने सम्मान का हक़दार है, तो शायद वो प्यारेलाल की इस सायास और आनंद बख़्शी की इस लापरवाह स्कीम का हिस्सा न बनते.


तो सवाल ये है कि 2 साल पहले तक जीवित रहे इस भारतीय नागरिक और संगीत के चितेरे के साथ हम सब ने मिलकर यह मज़ाक़ क्यों किया?

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