Thursday, March 16, 2017

हल्द्वानी के किस्से - 5 - चौदह



परमौत की प्रेम कथा - भाग चौदह

रोडवेज़ में पान-सिगरेट कार्यक्रम निबटाने और गिरधारी को सुबह तीन बजे गुडनाईट कहने के बाद परमौत ने आधे रास्ते से घर जाने के बजाय दुबारा से रोडवेज़ का रुख किया. चौबीसों घंटे आबाद रहने वाला हल्द्वानी का एक वही ठीहा था जहाँ उस समय जीवन के लक्षण देखे जा सकते थे. दोस्त के वायदे ने परमौत के वीरान पड़ते जा रहे मोहब्बत के आशियाने में नई पुताई कर दी थी और वह उस पल का पूरा लुत्फ़ लेने के उद्देश्य से जितनी देर हो सके जीवन के और नज़दीक जाना जाना चाहता था. 

रोडवेज़ का उत्सवपूर्ण माहौल उसकी आशा के अनुरूप हैरान कर देने वाली चहल-पहल से भरपूर था. कोई दर्ज़न भर दुकानों पर बिकने के वास्ते नेपाल के रास्ते लाये गए बड़े बड़े चाइनीज़ टेपरिकार्डर-टूइनवन-कैसेट्स और ऐसे ही इलैक्ट्रोनिक सामान सजे हुए थे और उनका प्रचार करने के वास्ते हर दुकान से ऊंची आवाज़ में पहाड़ी गाने बज रहे थे और संगीत की मारकाट मची हुई थी जिसका पूरा साथ देने के उद्देश्य से अगणित ठेलों-खोमचों पर फल, सब्जी, पान-सिगरेट, चाय, बन-आमलेट, पकौड़ी, समोसा, चाट, टिक्की वगैरह का महाव्यापार चल रहा था. 

पहाड़ से दिल्ली और दिल्ली से पहाड़ आने-जाने वाली दर्ज़नों नाइट बसों की आवाजाही के कारण उनके बड़े-बड़े टायरों ने कीचड़ और मुसमुसी मिट्टी से अटी सड़क और उसके गड्ढों पर एक से बढ़कर एक त्रिआयामी आकृतियाँ सर्जित कर दी थीं. अनेकानेक ढब-आकृति और मुखों वाले और अनेक मुद्राओं में चलते-बैठते-ऊंघते-खरीदारी करते-चाय सुड़कते-बोलते-टोहते-चीखते-सोते पैसेंजरगण इस समूचे माहौल को सम्पूर्णता प्रदान कर रहे थे. परमौत को अपना कलेजा अब भी मुंह में आया जैसा महसूस हो रहा था और उसका मुंह कसैला हो रहा था जिसे दूसरा स्वाद देने की नीयत से उसने पहले एक चाय समझी और फिर एक-के-बाद-एक दो सिगरेट. वह सिगरेट के पैसे चुका रहा था जब उसकी निगाह सामने पोस्टऑफिस की बिल्डिंग के पसमंजर में खड़े एक पुरातन नीम के पेड़ के पीछे छिपने जा रहे चन्द्रमा पर पड़ी.

इस दृश्य का दिखना था और पास की एक दुकान से 'चाँद सी मैबूबा' बजना शुरू हो गया. इस संयोग के कारण परमौत के चेहरे पर एक विडम्बनापूरित मुस्कान आयी और उसने इस मेले सरीखे माहौल में अपनी बगल में पिरिया की उपस्थिति होने की कल्पना करना शुरू कर दिया. वे दोनों ऐसे ही कभी-कभार रात के तीन बजे रोडवेज़ पर चाय और बन-मक्खन खाने आ जाया करेंगे जैसे एक ठेले पर एक फ़ौजी लग रहा आदमी और उसकी नवेली बीवी लग रही औरत खा रहे थे. गाने में प्रेमिका से कहा जा रहा था कि उसकी सूरत भोली भाली है और उसके नैना सीधे सादे हैं. गायक यह भी बता रहा था कि उसके ख़यालों में प्रेमिका का ठीक ऐसा ही रूप था. परमौत चंद्रमा को देखता था, गाना सुनता था और पिरिया की सूरत को याद करने की कोशिश करता था और हैरत करता जाता था कि मुकेश ने बिना देखे हू-ब-हू उसकी पिरिया का ऐसा सटीक वर्णन कैसे जो कर दिया होगा.

वह मटर गली वाले शॉर्टकट से रामलीला ग्राउंड होता हुआ अपने घर की राह लगने के बारे में सोच रहा था कि रास्ते को बाधित करती दिल्ली से आई एक और बस अचानक रुकी. 

परमौत जेब में हाथ डाले इस दृश्य को भी आलस भरी दार्शनिकता के साथ देखना शुरू कर ही रहा था कि अचानक उसने बस से पिरिया को उतरता देखा. पिरिया का चेहरा थकान और नींद से म्लान हो रहा था और सीढ़ियों से उतारते हुए उसने अपने शॉल को कन्धों के गिर्द लपेटते हुए एक जम्हाई ली. एक सेकेण्ड से कम समय में हुए इस दृश्य परिवर्तन ने परमौत को अचानक विस्मय अनजान भय से भर दिया और वह एक खोखे की आड़ में हो गया. आड़ में आते ही उसका आत्मसंतुलन वापस लौटा और उसके अवचेतन ने दीदार के इन दुर्लभ लम्हों को डीटेल में कैप्चर करना शुरू कर दिया. पिरिया ने फीरोज़ी रंग का वही सलवार सूट पहना हुआ था जो परमौत की निगाहों में उस पर सबसे ज्यादा फबता था. बस में बैठे रहे से उसका शॉल गुज्जीमुज्जी हो चुका था. नींद की तात्कालिक ज़रुरत उसकी बड़ी-बड़ी और फिलहाल उदास दिख रही आँखों में साफ़ पढ़ी जा सकती थी. फिल्मों में देखी गयी किसी भी हीरोइन से अधिक सुन्दर दिख रही उसकी पिरिया बस की सीढ़ियाँ उतर रही थी. बस के बाहर रिक्शेवालों का झुण्ड टूट चुका था जिनके कारण आख़िरी सीढ़ी से उतर पाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था. तनिक झल्लाई सी पिरिया ने एक क्षण के एक लाखवें हिस्से के लिए अपनी निगाहें आसमान के उसी हिस्से की तरफ कीं जहाँ  पोस्टऑफिस की बिल्डिंग पीछे नीम के पेड़ पर चन्द्रमा छिप रहा था. उसी एक लाखवें हिस्से में उसके चेहरे पर आ गयी खीझ के बावजूद मुस्कराहट की एक सूदूरतम झलक आई जिसे परमौत ने अपनी आत्मा के कैमरे से कैद कर लिया. 

परमौत को अहसास भी नहीं हुआ कि वह मुस्करा रहा था और आड़ से बाहर आ गया था. पिरिया उतर चुकी थी और रिक्शेवालों और यात्रियों के हुजूम में अचानक अदृश्य हो गयी थी. परमौत उसकी टोह लेने की कोशिश कर रहा था कि अचानक उसकी निगाह लम्बू अमिताब पर पड़ी. लम्बू के बाल बिखरे हुए थे और वह रामलीला के किसी राक्षस जैसा दिख रहा था. उसके कंधे पर दो बैग लटके हुए थे और वह रिक्शेवालों के खदेड़ता हुआ सा अपने लिए बाहर निकलने का रास्ता बना रहा था.

अमिताब को देखते ही परमौत स्वप्नलोक से बाहर निकला और सतर्क होकर एफ़बीआई का एजेंट बन गया. पूरे होशोहवास में आकर अब वह फिर से खोखे की आड़ में हुआ और उसने अपनी निगाहें लम्बू पर लगा दीं. अचानक पिरिया नज़र आई. उसने रिक्शा कर लिया था और वह निढाल होकर उस पर बैठी हुई पलट कर लम्बू के आने का इंतज़ार कर रही थी. परमौत को अपना गला सूखता सा महसूस हुआ. लम्बू रिक्शे के करियर पर बैग लाद रहा था. लम्बू पिरिया की बगल में बैठ गया था. लम्बू हैडल थाम कर खड़े रिक्शेवाले से जोर-जोर से कुछ कह रहा था. रिक्शेवाला भी कुछ कह रहा था. फिर दोनों कुछ नहीं कह रहे थे. फिर रिक्शेवाला गद्दी पर बैठ रहा था. परमौत की चाँद सी मैबूबा और अमिताब राक्षस को लेकर रिक्शा रेलवे बाज़ार की दिशा में बढ़ चला. परमौत के पैर जैसे काठ के हो गए थे. उसका दिमाग कुंद हो रहा था. उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. सारा घटनाक्रम भयंकर तेज़ी से हुआ था. वास्तविकता धीरे-धीरे उसकी समझ में आना शुरू हुई. कमीना लम्बू उसकी माशूका के साथ दिल्ली से आ रहा था और सुबह के तीन बजे उसे रिक्शे में बिठाकर कहीं ले जा रहा था. हो सकता है दोनों ने भागकर शादी कर ली हो. हो यह भी सकता है वे बस में अचानक ऐसे ही संयोगवश मिल गए हों. इस दूसरी सम्भावना ने परमौत को थोड़ा सा दिलासा दिया लेकिन तथ्य यह था कि वे दोनों एक ही रिक्शे में बैठकर जा रहे थे.

परमौत ने अपनी बगल में खड़े एक खाली रिक्शा पर बैठते हुए कहा - "रेलवे बजार की तरफ चल. दस रुपे दूंगा और गाड़ी तेत्तेज चलइयो." परमौत ने हाथ में दस का नोट निकालकर रिक्शेवाले को दिखाया. केमू अड्डे से दाईं तरफ मुड़ते ही करीब पचासेक मीटर दूर पिरिया और लम्बू का रिक्शा दिखाई दे गया. मोड़ पर परमौत का रिक्शा तेज़ी से कटा और पलटता-पलटता बचा

"हौली कर बे जरा" - परमौत ने रिक्शे वाले को झिड़का.

"ठीक है बाबू जी" रिक्शेवाले ने क्षमायाचना के लहजे में कहा.

भोर के झोंके परमौत के चेहरे पर पड़ रहे थे और उनकी ताजगी ने उसे आगामी रूपरेखा बनाने में सहायता की.

"वो वाले रिक्शे के पीछे लगाए रखियो गाड़ी ... और सुन ... " गला खंखारते हुए परमौत ने रिक्शेवाले को हिदायत दी - "इत्ती दूरी बनाए रखियो कि वो हमको ना देख पावें." रिक्शेवालों से बात करते समय वह शाहजहाँपुर-बरेली का लहज़ा अपना लेता था क्योंकि एक तो उसे ऐसा करना अच्छा लगता था दूसरे हल्द्वानी के ज़्यादातर रिक्शेवाले इन्हीं दो शहरों से आते थे.

इस दूसरी हिदायत के बाद रिक्शेवाले ने पैडल ऐसे मारने शुरू किये जैसे वह किसी गुप्त मिशन पर निकले जेम्स बांड का सहायक हो.

"जी बाबूजी ..." कहकर रिक्शेवाले ने सीटी बजाते हुए उस पर 'कभी आर कभी पार' बजाना शुरू कर दिया. परमौत की निगाहें पिरिया के रिक्शे पर लगी हुई थीं. उनके बीच अब करीब बीस मीटर का सुविधाजनक फासला था.

"बस ऐसेई रखियो ... और ये सीटी बजाना बंद कर ... पूजापाठ के टैम पर सीटी बजागा तो ज़िन्दगी भर रिक्शा खेंचता रै जागा भैए ..."

पिरिया का रिक्शा बाज़ार से होता हुआ में चौराहे से रामपुर रोड की तरफ मुड़ा थोड़ा आगे जाने के बाद एक गली में प्रविष्ट हो गया. परमौत ने रिक्शेवाले को रोका, पैसे दिए और उतर गया.

"भीतर ठीक से जइयो बाबूजी ... पूजापाठ का टैम हैगा ... " तेज़ी से वापस लौट रहे रिक्शेवाले ने काइयां हंसी हँसते हुए परमौत को ताना मारा और लक्ष्मी वाले मोड़ पर मुड़ता हुआ ओझल हो गया.

परमौत तय नहीं कर पा रहा था कि गली के भीतर जाए या नहीं. कहीं पिरिया ने उसे देख लिया तो. "देख लिया तो देख लिया साला" - उसके अन्दर से आवाज़ आई और वह अन्दर चला गया. वह दबे पाँव अंधेरी गली में घुसा तो उसने पाया आठवें-दसवें मकान के बाहर रिक्शा खड़ा था. वह एक मकान के बाहर खड़ा किये गए चाट के ठेले की ओट में हो गया. पिरिया और लम्बू कुछ बातें कर रहे थे और पिरिया अपने बटुए से पैसे निकालकर रिक्शेवाले को दे रही थी. मकान के भीतर लाईट जल चुकी थी और खड़खड़ करता लोहे का शटर खोला जा रहा था. शटर खोला गया. पिरिया और अमिताब मय बैगों के भीतर घुसे. कोई हंगामा नहीं हुआ. कुछ भी ऐसा अप्रत्याशित नहीं हुआ जो चीज़ों की असामान्य स्थिति की तरफ इशारा करता.

परमौत पशोपेश में था कि पिरिया का रिक्शेवाला उसकी बगल में आकर ठिठका और उसे गौर से देखकर इत्मीनान जैसा करने की कोशिश करने लगा कि वह कोई चोर तो नहीं.

"रोडवेज चल्लिया?" परमौत ने अचानक पूछ कर रिक्शेवाले को हकबका दिया.

मुख्य चौराहे पर पहुंचकर परमौत ने रिक्शेवाले को बजाय रोडवेज जाने के अपने घर की तरफ मुड़ने को कहा. उसके भीतर अमिताब लम्बू और पिरिया को लेकर भयानक उथलपुथल चल रही थी और वह अचानक बहुत ज्यादा थक गया. उसे नींद आ रही थी. पिछले दरवाज़े से बिना आवाज़ किये वह अपने कमरे में घुसा और किसी कटे पेड़ जैसा बिस्तर पर गिरा और दोपहर तक सोता रहा.

दो बजे भाभी ने दरवाज़ा खटखटाकर उसे जगाया और बताया कि कोई बिष्ट नाम का आदमी उससे मिलने आया है. आँखें मलते हुए परमौत को पिछली रात का समूचा घटनाक्रम याद आने लगा और वह झटके में उठ कर बीच के बरामदे की तरफ चल दिया जहाँ कोई उसका इंतज़ार कर रहा था. बिष्ट गिरधारी लम्बू निकला जो उसे देखते ही मुदित होकर पहले तो उसके गले से लगा लेकिन उसके मुंह से आ रही शराब की बचीखुची बास के कारण तुरंत अलग हो गया.

"परमौद्दा ... काम हो गया यार ददा! ..." गिरधारी ने चोरों की तरह इधर उधर देखते हुए फुसफुसाकर कहा.   

"कौन सा काम यार गिरधारी बाबू?"

"अरे भूल गया परमौद्दा! फोटुक नईं चइये थी तुज्को! ..." उसने फिर से चारों तरफ निगाह डाली और परमौत के कान में कहा - "भाबी की फोटुक कै रा हूँ यार. ले आया साले को बड़ी मुश्किल से यार ..."

"हैं ..." परमौत की आँखें अचम्भे में खुली रह गईं जब गिरधारी लम्बू ने उसके हाथ में बाकायदा एक छोटा सा लिफाफा थमाया.

"एडमीसन फॉरम में दो लगी थीं. भाबी की दोनों फोटुक उचेड़ लाया यार परमौद्दा ... अब तैयार होकर जल्दी बाहर चल तो ... तुज्को कुछ बताना है ..."     


(जारी)

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