Thursday, April 27, 2017

एक जीनियस का जाना



1968 में जब रॉबर्ट पिरसिग ने अपनी किताब 'ज़ेन एंड दी आर्ट ऑफ़ मोटरसाइकिल मेंटेनेन्स' की पहली सिनॉप्सिस और अपनी लिखाई के चन्द नमूने 122 प्रकाशकों को भेजे तो सिर्फ एक प्रकाशक ने उन्हें पलटकर जवाब दिया. विलियम मॉरो प्रकाशन के जेम्स लैनडिस ने उन्हें लिखा कि न तो वे किसी बड़ी रकम के एडवांस के तौर पर दिए जाने की उम्मीद रखें न ही किताब के बिकने की. चिठ्ठी मिलने के एक महीने के बाद पिरसिग अपने युवा बेटे क्रिस और अपने दोस्तों जॉन और सिल्विया सदरलैंड के साथ अपनी होंडा सुपरहॉक पर सत्रह दिन की यात्रा पर निकल पड़े - मिनियापोलिस से सान फ्रांसिस्को. अगले छः सालों में उन्होंने किताब के दो ड्राफ्ट लिखे और करीब सात लाख शब्दों को लिखने के बाद बनी  यह किताब छपने के तुरंत बाद एक अंतर्राष्ट्रीय बेस्टसेलर बन गयी. 1960 के दशक की विद्रोही पीढ़ी से 1970 के दशक की "मी जेनेरेशन" के संक्रमण के लिए दिशानिर्देशिका जैसी इस किताब ने करोड़ों की संख्या में पाठकों को अपनी ओर खींचा.

न्यू यॉर्कर रिव्यू में 'अनईज़ी राइडर' शीर्षक से लिखी अपनी समीक्षा में जॉर्ज स्टीनर ने इस किताब की तुलना हर्मन मेलविल के उपन्यास 'मोबी डिक' से की. अन्य समीक्षकों ने थोरो, जैक कैरुआक वगैरह के नाम लिए. पिरसिग ने अपनी किताब के लिए तमाम हिप्पी लेखकों से प्रेरणा ली थी और एक जगह लिखा था - "अध्यात्म एक एक ऐसा रेस्तरां है जिसमें आपको तीस हज़ार पन्ने का मेन्यू मिलता है पर खाना नहीं दिया जाता."

उनकी मोटरसाइकिल एक रूपक का काम करती है. उनके सहयात्री सदरलैंड दंपत्ति बाइक की तकनीक नहीं समझ पाते लेकिन पिरसिग जोर देकर कहते हैं कि भगवान उतने ही आराम से मोटरसाइकिल के गीयर्स में रह सकता है जैसे वह किसी पहाड़ की चोटी पर या किसी फूल की पंखुड़ी में रह सकता है. उपन्यास का उपशीर्षक था - मूल्यों की एक पड़ताल. अपने नायक फैड्रस के माध्यम से पिरसिग "गुणवत्ता" की तलाश करते हैं जो कि एक परिवर्तनशील मूल्य है और अरस्तू के सम्पूर्ण मूल्य अर्थात "सत्य" से बिलकुल अलहदा है.

अपने भीतरी टकरावों को ज़बान देते हुए वे कहते हैं "पूरब में गुरु को जीवित बुद्ध कहा जाता है जबकि मिनेसोटा में आप हैरान होते हैं कि वह बेरोजगार क्यों है" वे मिनियापोलिस में जन्मे थे. क़ानून के शिष्य उनके पिता मेनार्ड जर्मन मूल के थे जबकि उनकी माँ हैरियेट स्वीडिश थीं. दोनों परिवारों की गहरी स्थानीय जड़ें थीं. रॉबर्ट ने उत्तर-पश्चिमी लन्दन के हेंडन में रहते हुए अपनी स्कूली शिक्षा शुरू की जबकि उनके पिता इन्स ऑफ़ कोर्ट में प्रशिक्षण ले रहे थे. जब उनका परिवार मिनेसोटा लौटा और उनके पिता ने विश्विद्यालय में कानून पढ़ाना शुरू किया. रॉबर्ट तब तक इतना अधिक सीख चुके थे कि उन्हें दो कक्षाएं पढ़नी ही नहीं पड़ीं.

उनके सहपाठी ज़ाहिर है उनसे बड़े थे और उन पर रौब जमाया करते थे, उनके अध्यापकों ने उन्हें दाएं हाथ से लिखने पर मजबूर किया और उन्होंने हकलाना तक शुरू कर दिया था. लेकिन ब्लेक स्कूल में एक महत्वपूर्ण छात्रवृत्ति की प्रतियोगिता जीतने के बाद उन्हें उन्हीं की आयु के बच्चों के साथ रखा गया और उनका आई क्यू लेवेल 170 पाया गया. पंद्रह साल की आयु में उन्होंने मिनेसोटा विश्वविद्यालय में पढ़ना शुरू कर दिया. दो साल बाद उन्हें फ़ौज में एनलिस्ट किया गया और वे कोरिया भेज दिए गए. वहां उन्होंने मजदूरों को अंग्रेज़ी पढ़ाना शुरू किया.  इस अनुभव के बारे में उन्होंने कहा - "मैंने उन्हें समझाया कि छब्बीस अक्षरों में आप समूचे ब्रह्माण्ड के बारे में बता सकते हैं. लेकिन उन्होंने साफ कहा - नहीं. इसने मुझे सोचने पर विवश किया. पूर्व में अनुभव के आधार को परिभाषित नहीं किया जा सकता. इसी बात ने मुझे ज़ेन के मार्ग पर पहुंचाया."

पिरसिग जापान गए और दर्शनशास्त्र में डिग्री हासिल करने मिनेसोटा वापस आये. एक साल उन्होंने बनारस हिन्दू विश्विद्यालय में पढाई की. वापस घर लौटकर उन्होंने पत्रकारिता सीखने के साथ साथ कवि एलन टेट से लेखन सीखना आरम्भ किया. कॉलेज की साहित्यिक पत्रिका पर काम करते हुए उनकी मुलाक़ात नैन्सी एन जेम्स से हुई और 19५४ में वे रेनो, नेवादा आ गए. नैन्सी ने अपने पति से तलाक ले लिया और वे कसीनो डीलर्स की हैसियत से काम करने लगे. शादी के बाद पिरसिग ने पहले यूनाइटेड प्रेस और बाद में जनरल मिल्स रिसर्च लैबोरेटरी के लिए तकनीकी लेखन किया और फिर वे पत्रकारिता में मास्टर्स डिग्री लेने वापस मिनेसोटा आ गए.

उन्होंने मोंटाना स्टेट यूनिवर्सिटी में पढ़ाना शुरू किया लेकिन उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी क्योंकि एक तो वे ग्रेडिंग सिस्टम से संतुष्ट नहीं थी दूसरे एक जनजातीय अंतिम संस्कार में उन्होंने नशा करने वाली एक जड़ी की खोज कर ली थी. जब 1962 में मोंटाना के गवर्नर की एक हवाई जहाज़ हादसे में मौत हुई तो उनकी जेब में जिन पचास विध्वंशक और सरकार के लिए ख़तरा समझे जाने वाले लोगों की लिस्ट थी उनमें रॉबर्ट पिरसिग का भी नाम था.

उन्होंने शिकागो में दर्शनशास्त्र पर पीएचडी पर काम शुरू किया लेकिन "गुणवत्ता" की अपनी तलाश के चलते अपने विभागाध्यक्ष से उनकी लड़ाई हो गयी जो अरस्तू के दर्शन पर बड़े खलीफा माने जाते थे. वे इलिनोय-शिकागो में पढ़ाने लगे लेकिन घर पर उनका व्यवहार लगातार अनियमित और धमकीभरा होता चला गया. 1961 के साल क्रिसमस के दिन उन्हें काफी खराब स्थिति में अस्पताल में भरती कराया गया. उन्होंने अध्यापन छोड़ दिया और एक मनोचिकित्सालय में भरती हो गए. अंततः वे 1963 में वापस मिनेसोटा आये जहां वेटरन्स हॉस्पिटल में उन्हें बिजली के झटकों का इलाज़ देना पड़ा.

'ज़ेन एंड दी आर्ट ऑफ़ मोटरसाइकिल मेंटेनेन्स' में इस अनुभव को उन्होंने याद किया है. वे लिखते हैं कि इस अनुभव ने "मुझे दूसरों के साथ रह सकना और उनसे सहमत होना सिखाया. फैड्रस अधिक ईमानदार था, वह कभी समझौता नहीं करता था और युवा लोग उसका आदर करते थे." उसे "महसूस होता था कि वह सिर्फ अपनी त्वचा ही बचा सका था."  इलाज के बाद पिरसिग ने पचास से ऊपर नौकरियों के लिए आवेदन किये लेकिन सभी के अस्वीकार हो जाने ने उन्हें बहुत गहरे शर्मसार कर दिया.

इस किताब को पिरसिग ने अमूमन आधी रात के समय लिखा, जब वे व्यावसायिक लेखन कार्य कर रहे थे. 1970 में किताब के पहले ड्राफ्ट को उन्होंने फेंक दिया लेकिन लैनडिस की मदद से उन्होंने अंतिम पांडुलिपि को आकार दिया और किताब को दो लाख शब्दों में सीमित किया. उपन्यास 1974 में छपा. अचानक पिरसिग दुनिया भर में जाना जाने वाला नाम बन गए. रॉबर्ट रेडफोर्ड किताब के फिल्म राइट्स खरीदना चाहते थे पर बात कीमत पर अटक गयी.

रेडफोर्ड के साथ अपनी मुलाक़ात को पिरसिग ने अपनी अगली किताब 'लीला' में कहानी के तौर पर पेश किया. यह किताब 1991 में छपी लेकिन 'ज़ेन एंड दी आर्ट ऑफ़ मोटरसाइकिल मेंटेनेन्स' जैसी सफलता उसे नहीं मिली.  

उन पर 2008 में एक डॉक्यूमेंट्री बनी - 'अराइव विदाउट ट्रैवलिंग'.पिरसिग हमेशा कहते थे कि 'ज़ेन एंड दी आर्ट ऑफ़ मोटरसाइकिल मेंटेनेन्स' उनके जीवन की कथा है उर यह कि उसका कल्ट बन चुकना उन्हें डराता है. "पहले मैं एक आउटसाइडर था, और अब वह आउटसाइडर नंबर वन इनसाइडर बन गया है. ... यह बहुत बेचैन करने वाला अनुभव है."

रॉबर्ट पिरसिग (1928-2017)

6 सितम्बर 1928 को जन्मे रॉबर्ट मेनार्ड पिरसिग बीती 24 अप्रैल को नहीं रहे.

श्रद्धांजलि.

('द गार्डियन' में छपे एक लेख पर आधारित)


Friday, April 21, 2017

कफ़ील भाई घोटकी वाले, राइट आर्म लेफ़्ट आर्म स्पिन बॉलर


पाकिस्तान के सिंध प्रदेश के धुर उत्तरी इलाके में एक धूल-धक्कड़ भरा कस्बा है घोटकी तालुका. तमाम तरह के अनेक कारखानों वाले इस कस्बे ने 1980 के दशक में बड़ा नाम कमाया. किसी औद्योगिक क्रान्ति के चलते नहीं ऐसा हुआ था. दरअसल उन्हीं दिनों पाकिस्तान के कई लोगों ने गौर करना शुरू किया कि वहां चलने वाले रंग-बिरंगे ट्रकों के पीछे - कफ़ील भाई घोटकी वाले, राइट आर्म लेफ़्ट आर्म स्पिन बॉलर - लिखा दिखने लगा था. जल्द ही इस हस्ताक्षर वाले ट्रकों की तादाद इस कदर बढ़ने लगी कि जिज्ञासु लोगों  ने ट्रकों के ड्राइवरों से पूछना शुरू कर दिया कि ये कफ़ील भाई हैं कौन और ये राइट आर्म लेफ़्ट आर्म स्पिन बॉलर है क्या बला.
मजेदार बात यह है कि बहुत से ड्राइवरों को यह बात पता तक नहीं लगी थी कि उनके ट्रकों पर कफ़ील भाई के हस्ताक्षर हैं.जब कुछ स्थानीय सिंधी अखबारों ने इस बाबत छानबीन की तो उन्होंने पाया कि कफ़ील भाई घोटकी के एक अति साधारण परिवार में जन्मे एक युवा क्रिकेटर और बेहद प्रतिभावान चित्रकार थे.1970 के दशक के अंतिम और 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों में उन्हें लगता था कि वे दुनिया के इकलौते गेंदबाज़ हैं जो दाएं हाथ से घातक ऑफ स्पिन गेंदबाजी कर सकने के साथ बाएं हाथ से वैसी ही खतरनाक लेग स्पिन फेंक सकते थे. उन्होंने घोटकी की अनेक लोकल टीमों के लिए अपने नगर के धूसर मैदानों पर अपनी प्रतिभा का जलवा बिखेरा. वे गेंदबाजी तो दोनों हाथों से कर लेते थे लेकिन दुर्भाग्यवश उनकी गेंदों में ज़रा भी स्पिन पैदा नहीं होती थी और बल्लेबाज़ उनकी बढ़िया धुनाई किया करते. गेंदबाज़ का काम होता है पिच को दोष देना और कफ़ील भाई ने भी यही किया और नाराज़ होकर अपनी किस्मत चमकाने कराची चले गए. कराची में उनकी प्रतिभा को पहचानने को एक भी क्लब सामने नहीं आया और लम्बे इंतज़ार के बाद वे हताश होकर वापस घोटकी आ गए. उनकी शिकायत रही कि पाकिस्तानी क्रिकेट बोर्ड में उनकी प्रतिभा को समझ तक पाने की कूव्वत नहीं थी.
घोटकी में कफ़ील भाई का ज़्यादातर समय हाईवे से लगे पेट्रोल पम्पों पर गुज़रने लगा. इन पम्पों के आसपास के ढाबे और होटल कराची और पेशावर के बीच औद्योगिक माल, गन्ना और गेहूं वगैरह ढोने वाले ट्रकों के ड्राइवरों-क्लीनरों से आबाद रहा करते थे.
हालांकि जैसी कि परम्परा चल चुकी थी, इनमें से ज़्यादातर ट्रकों पर तमाम तरह के चित्र बने रहते थे. कफ़ील भाई उन ट्रकों की शिनाख्त करते जिन पर कलाकारी नहीं की गयी होती थी और उनके ड्राइवरों को फ़ोकट में उनकी गाड़ियों पर कलाकारी करने का प्रस्ताव देते थे. बदले में वे सिर्फ पेंट और ब्रशों की मांग किया करते.

ड्राइवरों को उनका काम पसंद आने लगा और कफ़ील भाई ने मैडम नूरजहां और घोड़ों से लेकर लेडी डायना तक के चित्र सिंध के ट्रकों पर उकेरना शुरू किये. चित्रों के नीचे उनके गौरवपूर्ण हस्ताक्षर होते - कफ़ील भाई घोटकी वाले, राइट आर्म लेफ़्ट आर्म स्पिन बॉलर.
1987 तक उर्दू मुख्यधारा के कुछेक अखबार वगैरह उन पर लेख छाप चुके थे और ड्राइवरों में अपनी गाड़ियों पर उनके हस्ताक्षर करवाने का क्रेज़ बन गया था. लेकिन कफ़ील भाई अपनी सेवा के बदले अब भी किसी तरह की फीस नहीं वसूलते थे. वे पेंट और ब्रश के अलावा ढाबों पर मिलने वाली एक चाय भर के बदले इस काम को किया करते. उन्होंने अपने हस्ताक्षर में अब यह भी जोड़ दिया - मशहूर-ए-ज़माना स्पिन बॉलर कफ़ील भाई का सलाम!
उनकी रोजी-रोटी कैसे चलती थी मालूम नहीं लेकिन उनके सुबह-शाम के खाने का बंदोबस्त उन ढाबों के जिम्मे था जिनके बगल में खड़े ट्रकों पर वे चित्रकारी करते थे.
1992 में उनकी ख्याति अपने चरम पर पहुँच गयी थी जब एक फ्रांसीसी कला पत्रिका ने उनकी ट्रक-कला को अपने पन्नों पर जगह दी. इसके बाद कुछेक फ्रेंच पर्यटक घोटकी आये भी और उन्होंने कफ़ील भाई को फ्रांस आ कर वहां के ट्रकों पर चित्र बनाने की दावत दी. कफ़ील भाई ने एक शर्त रखी कि उन्हें फ्रांस के ट्रकों पर भी अपने हस्ताक्षर करने की छूट होगी. फ्रेंच पर्यटकों में कहा कि वे इसकी गारंटी नहीं दे सकते. इतना सुनना था और कफ़ील भाई ने साफ़ मना कर दिया.
कफ़ील भाई तीस से ऊपर के हो चुके थे और एक दिन उन्होंने पेन्टिंग करना छोड़ दिया. अपने कुछ प्रशंसकों से उन्होंने थोड़ी रकम उधार ली और फर्नीचर की एक दुकान खोली. इस नए धंधे से थोड़ा बहुत पैसा बनाने के बाद उन्होंने शादी करने का फ़ैसला किया. 2000 की शुरुआत में उन्होंने दुकान बंद की, सारा सामान बेचा और कराची चले गए.
कफ़ील भाई का 1989 में लिया गया फोटो
फिलहाल कोई नहीं जानता कि वे कराची में कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं. कफ़ील भाई ने गायब हो जाने का फ़ैसला कर लिया था. समय के साथ-साथ कफ़ील भाई घोटकी वाले, राइट आर्म लेफ़्ट आर्म स्पिन बॉलर के हस्ताक्षर भी ट्रकों से अदृश्य होते चले गए.
(यह पोस्ट 'डॉन' अखबार में अगस्त 2016 में छपे एक लेख पर आधारित है)

Sunday, April 16, 2017

कैसे हैं क्यू साहब

हम सब के जीवन में एक क्यू साहब होते हैं लेकिन इस थीम पर बहुत दोनों बाद यह शानदार कविता पढ़ने को मिली. देहरादून में रहनेवाले दिनेश चन्द्र जोशी फेसबुक पर मेरे मित्र हैं और कबाड़खाने पर पोस्ट होने वाली यह उनकी पहली रचना है. आशा करता हूँ यह अंतिम नहीं होगी. कविता को यहाँ प्रस्तुत करने की सहर्ष अनुमति देने के लिए दिनेश जी का शुक्रिया.


क्यू साहब
- दिनेश चन्द्र जोशी


नाम था उनका कुतुबुद्दीन अहमद,
पर शोहरत थी ज्यादा क्यू साहब के नाम से
दस्तखत में बनाते थे बड़ा सा अंग्रेजी का क्यू 
फिर घसीट मारते थे कीड़े सी लम्बी,
याद आये अचानक इतने वर्षो बाद,
जब इलेक्शन की जीत के उन्माद में लोग 
लानतें भेज रहे थे, हर तीसरे मुसलमान पर,
जाने क्यों याद आये ,रह रह कर क्यू साहब ,
याद आई उनकी मौलवीगंज की गली,घर बैठक,
सोफा लकड़ी का, मेज कुर्सी,परदा,
किस जमाने के इन्जीनियर थे,तालिब ए.एम.यू के,
हाकिम हुए बाद में महोबा पालिटेक्निक में,
ले गये साथ हम दो शागिर्दों को,दिलवाई नौकरी
अपने दस्तखत से
लाल रंग की स्याही से लिखा था क्यू अहमद,
रखा होगा अभी भी वो तैनाती खत कागजों
के बीच कहीं,
मिली पहली तनख्वाह उनकी मातहती में,
बोलेआंसू पोछने को बहुत है ये पगार ,
छूटी एडहाक की नौकरीक्यू साहब भी जेहन 
से छूटते चले गये,
भला हो इलेक्शन की जीत के उन्माद का,
याद आई क्यू साहब की इतने वर्षों बाद,
होंगें कहां जाने, शायद गुजर गये बर्षों पहले
जिन्दा होते तो पूछता - 'कैसे हैं ,क्यू साहब!'

दिनेश चन्द्र जोशी

Friday, April 14, 2017

उन्हें नहीं पता था कि उनकी हत्या होगी

Zan Zezavy की पेन्टिंग 'मर्डर' (1920) 

कविता का रामदास और मेवात के पहलू ख़ाँ
-शिवप्रसाद जोशी

रामदास उस दिन उदास था
लेकिन पहलू ख़ाँ उदास नहीं थे
वो ख़ुश थे कि उन्हें दुधारू गाय मिली थी
और उनकी डेयरी चल निकलनी थी

चौड़ी सड़क थी कोई गली न थी
जहाँ पहलू ख़ाँ को बेटों के साथ रोका गया
मारा गया
मारते गये वे रक्षक उन्हें
नरभक्षी आ गये बाबा
बेटे के मुँह से निकला
नहीं नहीं मेरे बेटे के मुँह से
पहलू ख़ाँ का बेटा तो तब बेहोश था.

दिन का समय था घनी बदरी नहीं थी
पसीना पौंछते हुए पहलू ने फिर से टटोले क़ाग़ज़
रामदास उस दिन उदास था
पहलू ख़ाँ उदास नहीं थे उस दिन
उन्हें नहीं पता था कि उनकी हत्या होगी.

(रघुबीर सहाय की एक कविता “रामदास” से प्रेरित)


Wednesday, April 12, 2017

एलेक्स कानेव्स्की के चित्र - 5










एलेक्स कानेव्स्की के चित्र - 1

एलेक्स कानेव्स्की

लिथुवानिया के रोस्तोव में 1963 में जन्मे चित्रकार एलेक्स कानेव्स्की 1983 में अपने परिवार के साथ अमेरिका आ गए थे. वे फिलाडल्फिया में आये जहाँ से वे पेन्सिल्वेनिया एकेडमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स में पढाई करने चले गए. वे एक सम्मानित चित्रकार हैं और इम्प्रेश्निस्ट शैली में पेंटिंग करते हैं.










एलेक्स कानेव्स्की के चित्र - 4










एलेक्स कानेव्स्की के चित्र - 3










एलेक्स कानेव्स्की के चित्र - 2