Sunday, April 16, 2017

कैसे हैं क्यू साहब

हम सब के जीवन में एक क्यू साहब होते हैं लेकिन इस थीम पर बहुत दोनों बाद यह शानदार कविता पढ़ने को मिली. देहरादून में रहनेवाले दिनेश चन्द्र जोशी फेसबुक पर मेरे मित्र हैं और कबाड़खाने पर पोस्ट होने वाली यह उनकी पहली रचना है. आशा करता हूँ यह अंतिम नहीं होगी. कविता को यहाँ प्रस्तुत करने की सहर्ष अनुमति देने के लिए दिनेश जी का शुक्रिया.


क्यू साहब
- दिनेश चन्द्र जोशी


नाम था उनका कुतुबुद्दीन अहमद,
पर शोहरत थी ज्यादा क्यू साहब के नाम से
दस्तखत में बनाते थे बड़ा सा अंग्रेजी का क्यू 
फिर घसीट मारते थे कीड़े सी लम्बी,
याद आये अचानक इतने वर्षो बाद,
जब इलेक्शन की जीत के उन्माद में लोग 
लानतें भेज रहे थे, हर तीसरे मुसलमान पर,
जाने क्यों याद आये ,रह रह कर क्यू साहब ,
याद आई उनकी मौलवीगंज की गली,घर बैठक,
सोफा लकड़ी का, मेज कुर्सी,परदा,
किस जमाने के इन्जीनियर थे,तालिब ए.एम.यू के,
हाकिम हुए बाद में महोबा पालिटेक्निक में,
ले गये साथ हम दो शागिर्दों को,दिलवाई नौकरी
अपने दस्तखत से
लाल रंग की स्याही से लिखा था क्यू अहमद,
रखा होगा अभी भी वो तैनाती खत कागजों
के बीच कहीं,
मिली पहली तनख्वाह उनकी मातहती में,
बोलेआंसू पोछने को बहुत है ये पगार ,
छूटी एडहाक की नौकरीक्यू साहब भी जेहन 
से छूटते चले गये,
भला हो इलेक्शन की जीत के उन्माद का,
याद आई क्यू साहब की इतने वर्षों बाद,
होंगें कहां जाने, शायद गुजर गये बर्षों पहले
जिन्दा होते तो पूछता - 'कैसे हैं ,क्यू साहब!'

दिनेश चन्द्र जोशी

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