Tuesday, July 18, 2017

पलकों की है कलम बनायी, काजल बहकर बना सियाही


ख़तो-किताबत
-शंभू राणा

            क़ासिद के आते-आते ख़त एक और लिख रखूं,
            मैं   जानता   हूँ, जो   वो   लिखेंगे   जवाब   में

ख़तो-किताबत के प्रति ऐसी बेताबी अब देखने में नहीं आती. ज्यादा वक्त नहीं गुज़रा जब ख़तो-किताबत आम थी. पत्र भेजे जाते थे, उनके जवाब आते थे. कुछों के जवाब फौरन आते थे तो कुछ आलसी किस्म के लोग थोड़ी देर से जवाब भेजते थे. अब ख़तो-किताबत गये जमाने की चीज होकर रह गयी है. भूले से किसी को पत्र लिख भी दो तो जवाब आता नहीं. आज किसी को चिट्ठी लिखना अंधेरे में लड़की को आँख मारने जैसा है.

पहले डाकिए को देख कर दिल धड़कता था, एक उत्सुकता सी पैदा होती थी कि शायद मेरे लिए कुछ लाया हो. किसी दोस्त, रिश्तेदार या प्रियजन का पत्र, खुशखबरी भरा कोई पैग़ाम. पोस्टमैन आकर्षित करता था, जीवन का एक हिस्सा था, उसका इन्तजार रहता था. बहुत दिनों तक जब आपके नाम कोई चिठ्ठी न आए तो डाकिए को रोककर पूछा जाता था - 'क्यूँ जी क्या बात, आजकल खाली हाथ आते हो?' या पोस्टमैन खुद ही आपकी खैरियत पूछ लेता - 'क्या बात है, साहब कई दिनों से आपकी कोई डाक-वाक नहीं आई!' यह रिश्ता अब जाता रहा. मोहल्लों के कुत्तों ने अब पोस्टमैन पर भौंकना शुरू कर दिया है, क्योंकि डाक कम होती है इसलिये उस रास्ते कम ही गुजरना होता है. अब डाकिया महकते हुए आत्मीयता भरे पत्र नहीं, टेलीफोन के बिल, बीमे की किस्त जमा करने की याद दिलाने वाले कागज और नौकरी के इन्टरव्यू का बुलावा लेकर आता है. (हर इन्टरव्यू बेसूद). एक और चीज कभी-कभार वह घरों में डाल जाता है - सरकारी नौकरी के लिए उम्र के हिसाब से अनफिट होने की पूर्व संध्या पर भेजी गई आखिरी अर्जी जब किन्हीं कारणों लौट आती है.

एक फिल्मी गीतकार कहता है - 'पहले जब तू खत लिखता था कागज में चेहरा दिखता था.' सचमुच कागज में लिखने वाले की सूरत नजर आती थी. कागज पर हाथ से लिखे अक्षरों में जो एक शब्दातीत आत्मीयता हुआ करती थी वह ई-मेल, मोबाइल के जरिये भेजे जाने वाले संदेशों में हो ही नहीं सकती. बड़े नाज़-नखरों के साथ राख छानकर चिमनी साफ कर पीतल के लैम्प जलाने और लापरवाही से बिजली का बटन दबा देने में बड़ा फर्क है.

बन्द कमरे में जो उसने मेरे खत जलाये होंगे, एक-एक हर्फ़ ज़बीं पर उभर आया होगा. शायर ने जिस दर्द को बयाँ किया है वह दर्द ई-मेल या एसएमएस को डिलीट करते हुए हो ही नहीं सकता. किसी बेहद आत्मीय के पत्रों को मजबूरीवश जलाने पर ही इसे महसूस किया जा सकता है.

पत्रों की दुनियाँ अजब थी और बेहद हसीन थी. गाँव-देहात में परदेश गये बेटे या पति का पत्र लेकर जब डाकिया आँगन में आता तो एक छोटा-मोटा उत्सव का सा माहौल उत्पन्न हो जाता. साक्षरता की दर कम थी. ऐसे में अमूमन डाक बाबू को ही पत्र पढ़कर सुनाना पड़ता था. पत्र पाने वाले परिवार के सदस्यों और पास-पड़ोस के दूसरे सदस्यों के चेहरे ख़त सुनते हुए रंग बदलते थे. चेहरे पर एक भाव आता तो दूसरा जाता. बेटे का ख़त माँ को ही सम्बोधित होता था. पत्नी को चाह कर भी ख़त नहीं लिखा जा सकता था, क्योंकि यह निर्लज्जता थी, कलयुग के आगमन की निशानी थी, और भी काफी कुछ था. बूढ़ी माँ को यह छूट और सुविधा थी कि वह पत्र सुनते हुए किसी बात पर खुल कर हँस पड़े या बेटे को याद कर सबके सामने आँसू बहा ले. पर जवान बहू के लिये यह मुमकिन नहीं था. वह सिर्फ नाक सिनक कर रह जाती. खत में उसके लिये भी संदेश होता मगर दूध में घुले बतासे की तरह छिपा हुआ और इशारों में. उसे मुस्कराने और रोने के लिये इन्तजार करना होता जब सब सो जायें और उसे भी दो घड़ी कमर सीधा करने की फुर्सत मिलती, बल्कि चुरानी पड़ती - पलकों की है कलम बनायी, काजल बहकर बना सियाही ...

आम आदमी के पत्रों में एक खास बात हुआ करती थी - पत्र भले ही कालकोठरी से लिख रहा हो-अपने सारे रंजो-गम छिपाकर सिर्फ सकारात्मक और हौसला बढ़ाने वाली बातों का ही जिक्र करना. मैं यहाँ पर राजी-खुशी हूँ और आप लोगों को सकुशल चाहता हूँ. यह वाक्य एक आम आदमी की अदम्य जिजीविषा और अपराजेय आत्मविश्वास का प्रमाण है, हर हाल में जी लेने और अनंत काल तक परिस्थितियों का मुकाबला कर सकने का भी. दूसरों के दुःख-दर्द और सुख की हर हाल में चिंता करने की हमारी परम्परा जिसे खलील जिब्रान ने 'दूसरे के प्याले से लो मत, हमेशा दूसरे का प्याला भरो' कहा है - का भी इसमें असर है कहीं. संघर्ष आम आदमी के लिये कभी भी तमगे की तरह सीने पर लटकाने की चीज नहीं रहा. उसके लिये यह स्वाभाविक है, जीवन का हिस्सा है- साँस लेने की तरह. इस नजरिये से अगर देखें तो यह जो आम आदमी है वह उन तथाकथित शहीदों से हजार दर्जा ऊँचा है जो अपने संघर्षों को भुना खाते हैं. एक जरा सी खरोंच की एवज में न जाने क्या क्या सुविधायें और ताम्र-पत्र लिये ऐंठते फिरते हैं. चैराहों पर अपनी मूर्ति की स्थापना और जन्मदिन पर राष्ट्रीय अवकाश की घोषणा की प्यास भी सीने में कहीं दबी रहती होगी जरूर. संघर्षही उनका कैरियर बन जाता है. इस देश का आम आदमी अपनी पैदाइश से मौत तक रोज न जाने कैसे-कैसे संघर्ष करते हुए जीता है, उसके लिये यह नित्य कर्मों की तरह है. उसके लिये संघर्ष विधायकी का टिकट हासिल करने, नौकरी-पेंशन पाने या सार्वजनिक सभाओं में शॉल ओढ़ने के लिये किया गया शातिराना कर्म नहीं, जिससे व्यक्ति विशेष का भला तो होता है मगर किसी पवित्र उद्देश्य/विचार और वास्तविक संघर्ष की गरिमा जरूर कम होती है. विषय परिवर्तन हो गया शायद.

पहाड़ की मनीऑर्डर आधारित अर्थ व्यवस्था में डाक विभाग और डाकिए की अहम भूमिका थी. परदेश में छोटी-मोटी नौकरी करते तमाम जिल्लतें झेलते हुए, खुद खा न खाकर घर को पैसा भेजा जाता. लगभग हर परिवार ऐसे ही मनीऑर्डर की राह तका करता था बल्कि आज भी देखा करता है. उजली कालीन के नीचे कूड़ा उतना ही है. कुछ अर्थों में परिस्थितियाँ और भी खराब हुई हैं. बाजारवाद ने फिजूल के कुछ खर्चे बेशक बढ़ाए हैं मगर आमदनी के जरिये घट ही रहे हैं. विज्ञापनों का मायाजाल एक किस्म का एपिटाइज़र है जो आम आदमी के हाजमे और उपलब्ध खुराक का स्टॉक देखे बिना धकापेल पिलाया जा रहा है. पीने वाला दिनों-दिन बौराता जा रहा है. मनीऑर्डर लेकर आने वाला डाकिया ज्यादा सगा और आत्मीय लगता है. दूर ग्रामीण इलाके में मनीऑर्डर का आना तपती दुपहरी में ठंडी बयार चलने का सा अहसास दे जाता है. ऐसे में डाकिये को बख्शीश देने का भी रिवाज है.

उम्र के एक खास दौर में किताबों में दबाकर खुतूत का लेन-देन हुआ करता था. कंकरी में लिपटे खत इस छत से उस छत में उछाले जाते (यह उस जमाने का फैक्स था). ऐसे कुछ पत्रों के जवाब आते, ज्यादातर के नहीं. उर्दू शायरी ऐसी ख़तो-किताबत के जिक्र से भरी पड़ी है - 'पुर्जे उड़ा के खत के ये इक पुर्जा लिख दिया, लो अपने इक खत के ये सौ ख़त जवाब में.' डग्गामारी टैक्सी वाले आज करते हैं मगर इश्क में यह समस्या पुरानी है, ख़तो-किताबत के जरिये खूब हुई है. नतीजतन कोई भुक्तभोगी शायर नवोदित आशिकों को हिदायत दे गया है कि रकीबों को कासिद बनाते नहीं हैं. पोस्टमैनों के किस्से कई बार पढ़ने-सुनने में आते हैं कि पत्र पहुँचाने की सरकारी और पत्र पढ़ कर सुनाने की मानवीय ड्यूटी करते-करते माशूका पोस्टमैन के पाले में शिफ्ट कर गयी. असल आशिक जब लौटा तो लड़की उसे डाक बाबू की वर्दी धोती-सुखाती मिली. ख़तो-किताबत के बिला जाने से यह लुत्फ और ख़तरा भी जाता रहा.

ख़तो-किताबत को लेकर कई हल्के-फुल्के किस्से भी मशहूर हैं. ऐसा ही एक पुराना किस्सा है. बात तब की है जब पढ़े-लिखे कम होते थे, खासकर गाँवों में तो बिरले ही पाए जाते थे. ऐसे ही एक पढ़े-लिखे शख्स से किसी ने चिट्ठी लिख देने की इल्तजा की तो उसने यह कह कर इंकार कर दिया कि आजकल मेरे पाँव में दर्द है, बाद में आना. पाँव दर्द और चिट्ठी लिखने के बीच क्या संबंध हो सकता है, समझ में नहीं आया. पूछने पर उस अंग्रेजों के जमाने के पढ़े-लिखे आदमी ने खुलासा किया कि भय्या, तू जिस गाँव में चिट्ठी भिजवा रहा है वहाँ उसे पढ़ेगा कौन ? हमेशा की तरह मुझी को जाना पड़ेगा और मेरे पाँव में इन दिनों चोट है, मैं चल-फिर नहीं पा रहा. कुछ दिन ठहर जा, चिट्ठी भी लिख दूँगा और जाकर पढ़ भी आऊँगा.

एक और लतीफा है कि शहर से छुट्टियों में गाँव जा रहे आदमी के हाथों किसी ने एक पोटली भेजी अपने घर के लिये. पोटली में पत्र भी निकला. पोटलीवाहक दुर्घटनावश पढ़ना लिखना जानता था. घर वालों ने पत्र उसी से पढ़वाया. पत्र कुछ यूँ था- नरैणदा के हाथ कुछ सामान भिजवा रहा हूँ. एक सेर मिश्री-कुल पचपन  कुंजे, दो सेर आलू, तीस बड़े और पाँच दाने छोटे, एक सेर प्याज नौ दाने - सब बड़े. चाय की छटंगी देख लेना ठीक से. एक सेर शिकार - दस बिना हड्डी और पाँच छोटी हड्डी वाली बोटियाँ, सब पन्द्रह बोटियाँ. आजकल जमाना खराब है, भरोसा अपने सगे बाप का भी नहीं. और क्या लिखूँ, यहाँ हर तरह से कुशल है, बांकी नरैणदा बता ही देगा. और हाँ नरैणदा की नजर हमारे लाल वाले बकरे पर है. पैसा नकद गिने तो ठीक वर्ना किसी बहाने टरका देना. शिकार खूब पका कर एक कटोरा नरैणदा की इजा को देना मत भूलना.

कोना फटा कार्ड किसी के परलोक गमन की खबर लेकर आता था और अर्जेंट लिखे बिना ही अर्जेंट माना जाता था. किसी के गंभीर बीमार होने या दूसरे किसी किस्म के आपातकाल में पत्र के आखिर में यूँ लिखा जाता - चिठ्ठी को तार समझो और फौरन अगली गाड़ी से रवाना हो जाओ. समझने वाला उसे तार ही समझता और मालिक से लड़-झगड़ कर हाँफता हुआ चला आता. सचमुच का तार अगर मिले (गाँवों में तार का मतलब ही मरना होता था) तो मतलब कि चिता ठंडी पड़ चुकी है. तार पाने वाला उल्टी बनियान धारण किये और सर घुटा कर घर पहुंचाता था. गाँव-देहात में यह एक गंभीर गाली मानी जाती थी कि तेरे घर तार आ जाये. इससे झगड़े की गंभीरता का पता चलता था (अब पता नहीं क्या हाल है!) कोई साहब बता रहे थे कि पुराने वक्तों में एक बार गाँव वालों ने डाकिए को इसलिये खदेड़ दिया कि वह किसी के लिये तार लेकर आया था. गाँव वाले नाराज हो गये कि तेरी यह मजाल कि हमारे गाँव में तार लेकर आये. अपशगुनी कहीं का.

इसमें कोई दो राय नहीं कि संचार क्रांति (बावजूद इसके की यह क्रान्ति अब भी न तो सस्ती है न सर्वसुलभ) से सुविधा तो हुई है. जो संदेश पहले दिनों-हफ्तों में पहुँचता था वह आज मिनटों में ज्यों का त्यों पहुंचता है. नचिकेता अगर कहो तो नचिकेता ही सुनता है सुनने वाला, नीच कुतिया नहीं. जैसा कि पहले कई बार तकनीकी गड़बड़ी के चलते हो जाया करता था. गणेश जी एक ही समय में कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर पापी-धर्मात्मा के हाथों दूध पीते हैं.

बेशक हम पीछे नहीं आ सकते, न बीच रास्ते में अड़ सकते हैं. हमें हर विषय में, हर हाल में आगे ही जाना होगा. मगर आदमी का दिमाग ब्लैक बोर्ड भी तो नहीं कि डस्टर फेरा और सब साफ. मरे हुए का श्राद्ध हमारी परम्परा है और कोई सक्की बुड्ढा चाहे तो जीते जी अपना अग्रिम श्राद्ध भी करवा सकता है. पत्र लेखन की विधा लगभग अपनी अंतिम सांसें गिन रही है. तेजी से बिला रही इस विधा को याद करना एक तरह से उसका अग्रिम श्राद्ध ही है.

            मत फाड़ इनको कि जब अपनों से दिल घबराएगा
            हौसला  देंगी   तुझे   ये   चिठ्ठियाँ,   रहने  भी    दे.

2 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

शम्भू जी का जवाब नहीं।

Pawan kumar rathore said...

बहुत ही सुंदर ,ह्रदयस्पर्शी लेख ।