(पिछली क़िस्त से आगे)
उन्होंने
नब्बू डीयर को बेसब्री से अपना इंतज़ार करता पाया. वह घर की चारदीवारी के बाहर खड़ा
उनकी बाट जोहता खड़ा था.
“क्या बे
सालो! सुबे से निकले हुए हो टूरिस्ट बन के. कुछ दुनिया-जहान की फिकर करोगे या ऐसे
ही डोईते रहने का काम हुआ झिंगेड़ी आ के! हैं ...”
ऐसा
नहीं था कि नब्बू उनकी फ़िक्र में मरा जा रहा था. उसे इतने दिनों बाद उनका साथ मिला
था और वह आधा चंगा हो गया था. दिन के समय उसने अपने हल्द्वानी निवासी मित्रों
द्वारा लाई गयी मिठाई और फल वगैरह को पुराने अखबार फाड़कर कोई डेढ़ दर्ज़न थैलियों
में तब्दील किया था और गाँव के सारे घरों में बांटकर आया था. गाँव के मकान
ऊंची-नीची जगहों पर स्थित थे और इतने घरों में जाना अच्छे खासे शारीरिक श्रम की
दरकार रखता था लेकिन बीमार होने के बावजूद नब्बू इस काम से ज़रा भी नहीं थका.
रिश्ते की उसकी एक ताई ने द्रवित होकर उससे कहा था – “अकेला ही हुआ तू अपने ईजा-बाबू का च्यला! कोई और
भाई-बहन जो क्या हुए तेरे जो तेरे गए में देवता के थान में दियाबत्ती कर देने को
बैठे ठैरे. सब तेरे को ही करना हुआ नब्बू रे!” अपनी आँखें
पोंछते हुए उन्होंने भगवान को याद करते हुए आगे कहा – “कोई
ददा-भुला होता तेरा तो आज उसके ससुराल से भिटौली आई होती और तेरी ईजा सबको बांट
रही होती कि मेरी ब्वारी के मैत से फलाणा आया है कर के ... हुआ नहीं हुआ च्यला!”
परमौत
और गिरधारी लम्बू द्वारा लाये गए उम्दा माल को गाँव की किसी बहू के मायके से आई
भिटौली से तुलना किया जाना नब्बू डीयर को खासा मनोरंजक लगा था और उसने इस बारे में
जब अपनी माँ को बताया तो उसने बुरा सा मुंह बनाकर कहा – “हाँ लग रही चनी दी को हमारे घर
की फिकर ... अपना तो उसके तीनों लड़के पांच-पांच सात-सात साल से नहीं आये हुए
झिंगेड़ी. अकेली बैठी हुई कब से और भिटौली-फिटौली की बात लगा रही. हमने तो कभी नहीं खाई-देखी
उसकी एक भी ब्वारी के मैत की भिटौली ... अरे इतना भी नहीं हुआ कि तेरे से पूछ लेती
एक बार को कि नबुवा तेरी तब्यत कैसी हो रई, तेरे बाबू की
तब्यत कैसी हो रई कर के ... ये झिंगेड़ी गाँव हुआ ही कुबद्दरी कहा... ” बाहर पटांगण में बंधे मिमाट पाड़ रहे मेमने को दुलारते हुए उन्होंने अपना
आलोचनात्मक वक्तव्य समाप्त किया – “पता नहीं कौन से जनम के
पाप थे जो मेरे बाबू ने झिंगेड़ी जैसी जगे छांट के मुझे यहाँ दे दिया होगा!”
परमौत
और गिरधारी लम्बू से क्रमशः गले लगने के बाद नब्बू डीयर ने बचेसिंह पर
उत्सुकतापूर्ण दृष्टि डालते हुए उससे पूछा – “कां-कां दिखा लाये हो बचदा इन लौंडों को ... कहीं
भात-हात खाने को मिला इस दलिद्दर इलाके में या ऐसे ही सुबे से पट्टी जैसी बाँध के
घूम रहे हो पेट मर?”
बचेसिंह
ने पूरे भ्रमण कार्यक्रम की विस्तृत रपट पेश की और कांख में दबाई बोतलों को
छुपाये-छुपाये ही शेरसिंह लमगड़िया सूबेदार की पहले से चतुर्दिक फैली हुई ख्याति पर
थोड़ा कीचड़ और पोता.
नब्बू
की माँ चाय ले आई थी. पटांगण के एक कोने में निश्चिन्त बैठा-लेटा, बगल के किसी घर
में पला हुआ, काले-भूरे-सलेटी की अंडबंड रंगत वाला एक कुत्ता दिनभर की अपनी ड्यूटी निबटाकर आराम कर रहा
था. बुढ़िया को चाय लाता देख उसे लगा कि कुछ माल मिलने की संभावना है सो वह चौकन्ना
होकर उठा और एक झटके में उनके नज़दीक आकर त्वरित गति से अपनी पूंछ हिलाने लगा.
कुत्ते को देखकर बचेसिंह के भीतर पहली प्रतिक्रियात्मक इच्छा उस पर एक ढेला उठाकर
मार देने की हुई पर पता नहीं क्या सोचकर उसने ऐसा नहीं किया और “यू ... यू ...” कहता हुआ उसे पुचकारने का नाटक करने लगा.
इस
प्रोत्साहन से कुत्ते की पूंछ की गति बढ़ गयी और अपनापन दिखाने के अतिरेक में उसकी
पीठ धनुष के आकार में मुड़ गयी. इस अतिरंजित पुच्छगति में दसेक सेकेण्ड
से अधिक खड़ा रह पाना नामुमकिन था सो वह हौले से ज़मीन पर गिरता हुआ लेट गया और अपने
नैसर्गिक अनुराग का प्रदर्शन करता हुआ धूल-स्नान करने लगा. गिरधारी लम्बू को ऐसे
कुत्तों से बड़ा प्रेम था सो उसने चाय के साथ लाए गए बिस्कुटों में से एक को उसे
प्रस्तुत किया और नीचे बैठकर उसकी झब्बा गर्दन को सहलाने लगा.
उधर
बचेसिंह ने कुत्ते अर्थात टॉमी की जीवनगाथा बताना चालू कर दिया. टॉमी के बाप
गब्ब्बर को गाँव के एक सज्जन का फ़ौजी बेटा जीतसिंह उर्फ़ जितुवा हौलदार बागेश्वर से
लाया था. हट्टे-कट्टे गब्बर ने फकत साल भर में रोमांस के ऐसे रेकॉर्ड कायम किये कि
आसपास के पच्चीस-तीस गाँवों में उस साल पैदा हुए सारे पिल्लों पर उसकी छाप स्पष्ट
देखी जा सकती थी. जिस रात झिंगेड़ी गाँव में जितुवा हौलदार के पड़ोसी के घर टॉमी
अपने चार अन्य भाई-बहनों के साथ दुनिया में आया था, उसी रात गब्बर को बाघ उठाकर ले गया.
पहाड़
के गाँवों में बाघ का आना और उसका पालतू कुत्तों को उठा ले जाना एक सार्वभौमिक और
आम बात थी लेकिन परमौत और गिरधारी लम्बू बाघ का ज़िक्र आने पर थोड़ा चौकन्ना हो ही रहे
थे कि इसे ताड़कर नब्बू डीयर ने उनसे कहा - "अरे कोई वैसा वाला बाघ जो क्या
होने वाला हुआ उतना भैंकर टाइप का ... काइयां होने वाला हुआ तभी तो साले को कुकुरी
बाघ कहने वाले हुए!"
बाघ
जैसे खूंखार जानवर को कुकुरी बाघ कहा जाना परमौत और गिरधारी को मनोरंजक अवश्य लगा
होगा लेकिन बात यह भी थी कि रात को अपने आँगन में कभी भी आ सकने वाले इस हिंसक जीव
के खौफ का साया पहाड़ों के गाँवों के जीवन का एक ऐसा पहलू था जो मनोरंजक तो किसी भी कोण
से नहीं हो सकता.
खैर.
गब्बर को बाघ द्वारा उठा लिए जाने की बात और तदुपरांत नब्बू द्वारा कुकुरी बाघ का
ज़िक्र किये जाने के बाद अड़ोस-पड़ोस के घरों-गाँवों में हुए हालिया कुत्ताउठान प्रकरणों
के तमाम विवरण बचेसिंह ने सुनाए. टॉमी दो अप्रत्याशित बिस्कुट प्राप्त कर चुकने
के सुख के नतीजे में सो गया था और गिरधारी अब भी ज़मीन पर बैठा हुआ उसे हौले-हौले
सहला रहा था.
"मल्लब
तभी जो कुत्तों की ह्वां-ह्वां नहीं सुनी होगी मैंने कल रात ... हमारे वहां हल्द्वानी
में तो रात भर साले चुप ही नहीं होते ..."
टॉमी
जग गया था और उठकर अपनी धूल झाड़ रहा था कि बचेसिंह ने एक बार फिर "यू ... यू
..." कहना शुरू किया.
नब्बू
डीयर के जोर हंसना शुरू करते हुए परमौत से पूछा - "परमौती गुरु पता है तुमको
कि ये बचदा टॉमी से किस भाषा में बात कर रहे हुए?"
प्रश्न
का आशय ने समझते हुए परमौत ने अपनी मुंडी हिलाई तो वह उसी रौ में कहता गया - "हमारे
यहाँ के सारे कुत्ते जो हुए सिरफ अंगरेजी समझने वाले हुए. पहले के ज़माने में अँगरेज़
नहीं डांटते थे हम हिन्दुस्तानियों को कि यू फूल, यू ब्लेडी वगैरा कर के ... तो अब
फूल और ब्लेडी-ह्लेडी तो हमारे लोगों की समझ में आने वाला नहीं हुआ बस यू-यू समझने
वाले हुए ..."
परमौत
और गिरधारी के ठहाके में बचेसिंह ने अपनी झेंपभरी हंसी मिलाई और इस बार सचमुच टॉमी
पर एक अकारण लात जड़ते हुए उसे "हट साले ... हाट्ट ..." कहते हुए भगा
दिया. दुम दबाये कूँ-कूँ करता टॉमी अपने ठिकाने की दिशा में चला गया.
बचेसिंह
भी अपने घर की तरफ जाने ही वाला था कि नीचे रास्ते से आ रही "बचदा ... ओ बचदा
...." की आवाज़ सुनकर ठहर गया. थोड़ी ही देर में हाथ में टॉर्च थामे हरीश
मास्टर आता हुआ दिखा.
"अरे
हरीस गुरु ... क्या बात है यार!" नब्बू हरीश मास्टर को देखकर प्रसन्न होता
हुआ बोला.
"क्या
हो बचदा ... जरा रुक जाते तो क्या था यार. नीचे बाखली में आज मेहता लोगों के यहाँ
बकरा कटा ठैरा नहीं बता रहा था मैं तुम को ..." हरीश ने नब्बू की बात अनसुनी
करते हुए नकली शिकायती लहजे में बचेसिंह से कहा. उसकी पीठ पर एयरबैग लटका हुआ था. हाथ
में धरे बण्डल को बचेसिंह को थमाते हुए उसने नब्बू से हाथ मिलाया और उसके
स्वास्थ्य की खबर पूछने लगा.
नब्बू
कुछ कहता इसके पहले ही बचेसिंह ने पूछा - "क्या है ये ... क्या करूं मैं इसका
अब?"
"अरे
शिकार है यार! इतना तो गाँव के मास्टर के हिस्से भी आने ही वाला हुआ. अब मेरे को
जो है कल सुबे जाना है अल्मोड़े को सरकारी काम से. तो ... मैंने कहा कौन साला
पकाएगा-खायेगा ये मीट-हीट चलो आज रात झिंगेड़ी रुक जाता हूँ तुम्हारे यहाँ ... कल को टाइम
पर गाड़ी भी मिल जाएगी और तुमारे मेहमान लोगों की रात के लिए शिकार भी काम आ जाएगा
कर के ... क्या कैते हो?"
कार्यक्रम
तय हुआ कि हरीश मास्टर द्वारा लाया गया बकरे का गोश्त बचेसिंह द्वारा अपनी रसोई
में पकाया जाएगा और पार्टी पिछली रात की तरह बीबन के कमरे में ही होगी. नब्बू डीयर
ने नॉन-प्लेयिंग कैप्टन की तरह इस आयोजन में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया.
बीबन
का नाम आने पर परमौत ने नब्बू डीयर से उसकी बाबत पूछा तो उसने घर की तरफ इशारा
करते हुए कहा - "सुबे से वहीं है बिचारा ... बाबू का पेट चल गया है दिन से
... वहीं उनकी सेवा कर रहा है बीबन ... क्या कहते हो ..."
परमौत
भीतर जाकर नब्बू डीयर के फालिज खाए पिताजी को देखना चाहता था पर जब तक नब्बू खुद
ऐसा करने को नहीं कहता, उसका ऐसा करना बदतमीजी होती. उसने एक निगाह उस खिड़की की
तरफ डाली जिसके पीछे संभवतः बीबन एसडीम किसी सैनिक की तरह नब्बू डीयर के बीमार पिता
की तीमारदारी में डटा हुआ था.
हाथ-पैर
धोने के उपरान्त वे बीबन के पहले से खोल कर रखे गए घर के खुद को अलॉट किये गए
हिस्से में स्थापित हुए. दस-बारह किलोमीटर के उतार-चढ़ाव भरे पहाड़ी सफ़र की थकान अब
उन्हें महसूस होने लगी थी. परमौत द्वारा ऐसा कहे जाते ही गिरधारी ने प्रस्ताव दिया
- "बोतल निकालूँ यार परमौद्दा? एक-एक लगा लेते हैं. आज जल्दी सो जाएंगे. कल सुबे
निकलने का काम हुआ मल्लब."
जब
आधे-पौन घंटे बाद बचेसिंह और हरीश मास्टर उनके पास पहुंचे तो वे दो-दो गिलास घटिया
रम समझ कर हलके सुरूर में आ चुके थे.
"ओहो!
सैप लोगों की दावत सुरु भी हो गयी हुई कहा ..." उत्साहपूर्वक नीचे बैठते हुए
बचेसिंह बोला.
सभी
प्रतिभागियों के सम्मिलित हो चुकने पर दावत का अगला चरण प्रारम्भ हुआ ही था कि
नब्बू डीयर भी आ पहुंचा. हालांकि गिरधारी को मालूम था कि बीमारी के चलते नब्बू डीयर
के लिए शराब जहर साबित होगी, वह बराय लिहाज़ बोला - "नबदा वस्ताज एक लवली-लवली
लगाते हो कि ..."
नब्बू
ने सफा मना कर दिया और परमौती की बगल में जाकर अधलेटा हो गया. "बीबन के लिए
दो पैग बचा देना हाँ बेटा गिरधर!" - नब्बू ने अभिभावकनुमा हिदायत दी.
हरीश
मास्टर को नीचे गाँव में ज्वाइन किये हुए दो साल बीत चुके थे और वह किसी भी कीमत
पर अब अपना ट्रांसफर चाहता था. इसी सिलसिले में उसने अल्मोड़ा के जिला शिक्षा दफ्तर
जाकर अधिकारियों से मिलने का मन बनाया हुआ था. बातचीत फिलहाल उसकी ट्रांसफरेच्छा से
शुरू होकर क्रमशः उसकी, उसके स्कूल की, शिक्षा की और देश की दुर्गति पर ठहरी हुई
थी.
"खतम
हुआ साला सब यहाँ ... एकदम खत्तम! बता रहा हूँ प्रमोद भाई आपको." हरीश मास्टर
ने गला खंखारते हुए कहा. "मल्लब साला एक सौ बाईस बच्चे हुए मेरे स्कूल में.
एक से लेकर आठवीं क्लास तक के. मास्टर हुए दो. एक मैं एक साला वो प्लेन्स वाला
सरमा. अब सरमा जो है वो रहने वाला हुआ बरेली-शाजहाँपुर का. बस हर तीन-तीन महीने में
आता है दस्कत करने. ऊंची पहुँच हुई साले की लखनऊ-इलाहाबाद में. कौन पूछ रहा हुआ?
तो मेरे पास आप समझ लो दिन भर में आठ क्लासों के आठ-आठ पीरियड हुए. टोटल लगाते हो
तो दिन भर में चौसठ पीरियड हो गए. अब साला मैथ्स भी पढ़ानी हुई, सिंगणुवां पोथिलों
को एबीसीडी भी सिखानी हुई, स्काउट-गाइड भी चलाना हुआ, हिस्ट्री-सिविक्स भी बतानी
हुई और पन्द्रा अगस्त से लेके जो हुआ दो अक्टूबर का कार्यक्रम भी करना हुआ."
"क्या
कह रहे हो यार हरीशदा ... ऐसा जो क्या होने वाला हुआ!" यह गिरधारी था जो अपनी
कल्पना में हरीश मास्टर को सुबह दस बजे से शाम के चार बजे तक चौसठ पीरियड्स पढ़ाने का
अकल्पनीय कारनामा करता देख रहा था.
"अरे
सही कह रहा हूँ गिरधारी भाई. विद्या कसम कह रहा हूँ आपसे. नौकरी थोड़ी हुई साली
गुलामी हुई गुलामी." चेहरे पर आ रही हिकारत को ज़रा भी न छिपाते हुए हरीश मास्टर
ने बीड़ी सुलगाई और आगे बोला - "अभी पिछले महीने साला बागेश्वर में किसी ने
शिकायत कर दी कि हरीश जोशी क्लास में पढ़ाने नहीं आता है कर के. अरे यार जब बच्चे
ही नहीं आएंगे तो मैं जा के दरी-मेज को पढ़ाऊंगा! और पढ़ाऊंगा भी क्या? - भांग!"
गिलास को एक घूँट में गटक कर खिड़की खोलकर जोर की ख्वाक्क के साथ बाहर थूकने के बाद
वह बोला - "किताब किसी के पास हुई नहीं. हुई भी तो आधी और फटी-पुरानी. कभी-कभी
तो मैं तो जाता ही नहीं हूँ साला स्कूल-फिस्कूल. कर लो सालो जिसको जो करना है. मल्लब
... अब की बार तो मैं साफ कहने वाला हूँ अल्मोड़े दफ्तर में जाके कि साब मेरा
ट्रांसफर करो या फिर मैं जो है नौकरी छोड़ देता हूँ. बीवी-बच्चे साले वहां अलग मर
रहे हैं ताड़ीखेत में. खतम है इण्डिया. बिलकुल खत्तम है बता रहा हूँ."
परमौत
और गिरधारी और नब्बू जिन्हें गाँव के स्कूल जाने का कोई अनुभव नहीं था, हरीश
मास्टर की बातें सुनने के बाद खुद को ऑक्सफ़ोर्ड-कैम्ब्रिज से कम का पूर्व छात्र
नहीं समझ रहे थे. उनके स्कूल में पचासों मास्टर हुआ करते थे और रोज़ आया करते थे.
वे पढ़ाते थे ये नहीं यह बहस का विषय हो सकता था लेकिन वे वहां मौजूद रहते थे.
परमौत
समझ रहा था कि बचेसिंह और हरीश मास्टर उसे बाई डिफाल्ट काफी पढ़ा-लिखा और ज्ञानी
समझ रहे थे जबकि खुद उसे अपनी औकात पता थी - नब्बू डीयर का शागिर्द रहे एक
मसाला-कारोबारी की औकात हो ही क्या सकती थी! फिर भी परिस्थिति और स्थान का तकाज़ा
था कि वह कोई ऐसी बात कहता जिसे सुनकर व्यवस्था द्वारा प्रताड़ित इस राजकीय कर्मचारी
की आत्मा को सहानुभूति के गीले फाहे से पल-दो पल थपथपाए जाने की अनुभूति होती.
"देखो
हरीश दाज्यू! आदमी के लिए जो है सबसे फस्ट उसका परिवार होने वाला हुआ और मल्लब जो
भी हुआ भाभी जी और बच्चों का आपके उप्पर पहला राईट हुआ ... तो मैं तो कहूँगा कि आप
जो है करा लो अपना ट्रांसफर कैसे भी!" परमौत को अचरज हुआ कि वह इतना लंबा
वाक्य बिना रुके कह गया.
परमौत
की बात सुनकर हरीश मास्टर खासा द्रवित हुआ और उसने तेज़ी से खाली होती जा रही बोतल
झपटने की अदा से उठाई और उसमें से अच्छी खासी मात्रा अपने गिलास में उड़ेलता हुआ
बोला - "मैं तो यहाँ वैसे भी मर गया हुआ प्रमोद भाई. न साला ढंग का खाना-पीना
हुआ न साली पढ़ी-लिखी कंपनी! और ..." लम्बा घूँट खींचकर उसने परमौत की चापलूसी
करते हुए कहा - "आप जैसे ढंग के लोग भी रोज-रोज जो क्या आ रहे हुए यहाँ जिनसे
कुछ बात-हात करी जा सके ..."
अपने
को पढ़ा-लिखा कहे जाने से परमौत शरमा गया और रंगे हाथों पकड़ लिए गए किसी अपराधी की
निगाह से उसने बारी बारी से गिरधारी और नब्बू को देखा. नब्बू डीयर भी उसे देख रहा
था और उसके होंठों पर एक काइयां मुस्कराहट की कमीनगी तिरछी खिंची हुई थी.
(जारी)
3 comments:
क्या बात है।
रोचक
वाह
बहुत खूब
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