इच्छा
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इब्बार रब्बी
मैं
मरूँ दिल्ली की बस में
पायदान
पर लटक कर नहीं
पहिये
से कुचलकर नहीं
पीछे
घसिटता हुआ नहीं
दुर्घटना
में नहीं
मैं
मरूँ बस में खड़ा-खड़ा
भीड़
में चिपक कर
चार
पाँव ऊपर हों
दस
हाथ नीचे
दिल्ली
की चलती हुई बस में मरूँ मैं
अगर
कभी मरूँ तो
बस के
बहुवचन के बीच
बस के
यौवन और सोन्दर्य के बीच
कुचलकर
मरूँ मैं
अगर
मैं मरूँ कभी तो वहीं
जहाँ
जिया गुमनाम लाश की तरह
गिरूँ
मैं भीड़ में
साधारण
कर देना मुझे है जीवन!
[1983]
1 comment:
क्या बात है। रूमानी मौत।
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