दराज़
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इब्बार रब्बी
बीच
की दराज में बन्द हूं
ऊपर
होता हूं तो
पैर
टूटता है
नीचे
सरकता हूं
सिर
फूटता है
मैं
कहां जाऊं !
क्या
करूं !
कैसे
रहूं इस अन्धेरे में !
कब तक
काग़ज़ों से पिचका हुआ !
दराज़
की हत्थी टूटी हुई है
कोई
है
जो
खींचकर निकाले
बेहत्थी
दराज़ को
मैदान
बना दे
मुझे
हवा की दुनिया में
गुब्बारे-सा
उड़ा दे
[1978]
3 comments:
बहुत खूब
वाह बहुत खूब
वाह
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