Wednesday, December 6, 2017

कोई है जो दराज़ को मैदान बना दे


दराज़
- इब्बार रब्बी

बीच की दराज में बन्द हूं
ऊपर होता हूं तो
पैर टूटता है
नीचे सरकता हूं
सिर फूटता है

मैं कहां जाऊं !
क्या करूं !
कैसे रहूं इस अन्धेरे में !
कब तक काग़ज़ों से पिचका हुआ !

दराज़ की हत्थी टूटी हुई है
कोई है
जो खींचकर निकाले
बेहत्थी दराज़ को
मैदान बना दे
मुझे हवा की दुनिया में
गुब्बारे-सा उड़ा दे


[1978]