Tuesday, December 5, 2017

उसकी आत्मा से तृप्ति का केंचुल उतर गया है


भूखा आदमी
इब्बार रब्बी

भूखे आदमी को लगता है कि जैसे
वह नंगा हो गया है,
कुछ पेट उसे नोच रहे हैं

उसकी आत्मा से तृप्ति का केंचुल
उतर गया है
वह अपने में सिकुड़ रहा है,
कि उसकी भूख और अधिक और अधिक
नंगी न हो जाए

वह भूख से बाहर नहीं निकलता
अपना कुछ भी
भूख में डूब जाने के लिए
इधर-उधर कातरता से कतराता है
भूखा आदमी सितम्बर की धूप में
यहां आता है, वहां जाता है
वह लपटों की सीढ़ियां चढ़ता है
उतरता है

उसे लगता है कि वह भूलभुलैया में भटक रहा ऐ
जो पिघले लोहे से भरी है
उसे लगता है कि समुद्र सूख रहे हैं
उसकी खाल और स्वभाव तड़क रहा है


[1976]