बहुत दिनों बाद कबाड़ी अनिल यादव का कुछ कबाड़खाने में पोस्ट करते हुए मुझे बहुत अच्छा लग रहा है -
रात्रिचर
-अनिल यादव
नखलऊ में जाड़े का कोई
दिन होगा. मैं अपने दफ्तर में हर दिन ग्यारह बजे होने वाली रिपोर्टर्स मीटिंग में
जा रहा था.
ट्रैफिक में थमी
गाड़ियों की चमक में टूट कर बिखरा जैसे कोई सपने में देखा अलाव था. आमतौर पर बोर
करने वाली हजरतगंज चौराहे की लालबत्ती नेक लग रही थी क्योंकि उतनी देर हवा से
निजात थी. धूप की सेंक थी. कॉफी हाउस की जर्जर इमारत के बरामदे में बैठे भिखमंगे
ऊंघ रहे थे. कारों के शीशे साफ कर कुछ खाने के लिए मांगने वाले बच्चे फुर्तीले हो
चले थे. उनके हाथों के हर झटके में दया की दुर्बल प्रेरणा थी. ऐसे में जनरल पोस्ट
आफिस के टॉवर की बंद घड़ी और उसके ऊपर हवा के साथ गोल घेरों में बहती चीलों पर नजर
चली जाती है. मैं उन्हीं के साथ समय को धूप की नदी में आराम से तैरते देखने में
खोया रहा होऊंगा. बहुत पास, सड़क पर रहने वाले
पागलों के शरीर से उठने वाली तेज गंध महसूस हुई. मेरे कान के पास किसी ने झुक कर
कहा, “सर, प्लीज, विल यू गिव मी टू
रुपीज फॉर स्मोक!”
“आंय!”
मैने बेमन से शरद के
सुख से बाहर निकल कर देखा. वह आदमी एक मैले, फटे कंबल में लिपटा
हुआ उंगलियों में बड़ी मुलायमियत से बीड़ी थामे थोड़ा झुककर खड़ा था. उसकीअधूरी
नींद से बोझिल आंखों में एक पनियल चमक थी जैसे वह मुझे खूब पहचानता हो. राख के रंग
की घनी दाढ़ी मूंछों के बीच चौड़ी मुस्कान थी जो सामने का एक दांत टूटा होने से
खिल गई थी. मेरा ध्यान उसके बेहद घने बालों में उलझ गया- तमाम देखभाल के बावजूद
मेरे बाल गिर रहे हैं और यह खामखां मुकुट की तरह सजाए खड़ा है.
मैं मुस्कराते हुए
उसका मुआयना करता रहा. वह मुझ से कहीं अधिक एकाग्र और पुलकित था जैसे बहुत दिन बाद
मिले किसी आत्मीय को निरख रहा हो. अचानक इंजनों की आवाज़ ऊंची हो गयी, ट्रैफिक की बत्ती हरी
हो गयी थी. मैने कहा, “पीछे बैठ जाइये.”
वह बिना हिचकिचाये ऐसे
बैठ गया मानो हमारा मिलना पहले से तय था. अचानक मुझे पिछली जेब में पड़े पर्स का
ख्याल सताने लगा जो बहुत कोशिशों के बावजूद महसूस नहीं हो रहा था. अंतत: शर्म के
साथ मैने अपनी जेब को छू ही लिया.
रिसेप्शन पर उसे
कुर्सी पर बिठाया. चपरासी को चाय पिलाने और बीड़ी का बंडल लाकर देने को कह कर
मीटिंग में चला गया. चपरासी ने अपनी हैरानी के प्रति समर्थन जुटाने की गरजसे दफ्तर
को देखा. दफ्तर ने मुझे देखा, “क्या इंटरव्यू के लिये
लाये हो”?
“मेरे जानने वाले हैं, चाय पिलाने लाया था.”
वापस लौटा तब तक वह दो
चाय और दस-बारह बीड़ियां सूत चुका था जो सेंटर टेबल पर रखी ऐश ट्रे के बजाय किनारे
करीने से एक लाइन में रखी हुई थीं ताकि उन्हे दोबारा सुलगाया जा सके. उसने कप को
उठा कर हिलाते हुए कहा, “बहुत सुंदर चाय रही.”
“आपको जाड़े में तकलीफ
होती होगी”?
वह हंसा,
“गर्मी है तो गर्मी लगेगी, ठंडी है तो ठंडी
लगेगी.”
चपरासी ने शिकायत की,
“साहब, बहुत बदबू आ रही है. इन्होने पूरे दफ्तर में
जुंए फैला दी हैं, जो आप लोगों को ही पड़ेंगी.”
वह लंबी उंगलियों से
सिर के पिछले हिस्से में धंसाते हुए देर तक टटोलता था फिर कुछ निकाल कर फर्श पर
फेंक देता था. उंगलियों पर मैल के चकत्ते थे. पीले नाखून ज्यादा बढ़कर अपने भार से
अंदर की ओर मुड़ने लगे थे.
मैंने पूछा,
“आपके सिर में जुंए हैं क्या?”
वह तिरछा देखते हुए
मुंह फुलाकर देर तक बेआवाज़ हंसता रहा. जैसे मैं बेसिर पैर की उड़ा रहा होऊं. उसने
घने बालों की जड़ों में खोज जारी रखते हुए बताया, “छोटे थे तब एकदिन
अम्मा के साथ ननिहाल जा रहे थे. रेलगाड़ी में. घड़ी-घड़ी खिड़की से बाहर देखते थे.
अम्मा मना करें लेकिन हम काहे को मानें. आंख में कोयला पड़ गया. बहुत
रोये-चिल्लाये, नहीं निकला. कुछ इलाज भी चला लेकिन फायदा
नहीं हुआ. वही अब दिमाग में जाकर बड़ा हो गया है.... अब टूट-टूट कर निकलता रहता
है.”
“अंदर-अंदर कोलियरी बन
गयी है क्या?”
“क्या पता अंदर
क्या-क्या है?”
उस दिन के बाद मैं न
चाहते हुए भी पागलों, भिखारियों, नशेड़ियों के बीच किसी
वैसे आदमी को खोजने लगा ताकि कोई ऐसी कहानी सुन सकूं जो मेरी कल्पना से परे हो.
सुबह के वक्त अक्सर वही मिल जाता और मैं उसे चाय पीने के लिये दफ्तर ले आता. उसकी
मौजूदगी से दफ्तर बोझिल और आशंकाग्रस्त हो जाता. चपरासी चाय देने में जान-बूझ कर
देरी करता. यूनिट का मैनेजर उसे भगाने की कोशिश को नकली हंसी में बदल कर पूछता, हिमालय से ऋषि-मुनि
आये हैं क्या? साथ के पत्रकार कहते, यार ऐसे लोगों को बाहर
ही दस-बीस देकर टरका दिया जाता है. दफ्तर नहीं लाया जाता. देखते नहीं, अखबार कॉरपोरेट हुआ
जाता है, हम लोगोंसे भी मूछें साफ कर टाई पहनने की
उम्मीद की जा रही है. ये पागलराम किसी दिन तुम्हारी नौकरी ले लेंगे तब समझोगे.
वह प्रत्यक्ष तौर पर
इन सब से बेख़बर कुर्सी पर कंबल में बुक्की मारे चाय पीते हुए कहता,
“सर, इट इज़ अ कोल्ड डे. लेट अस बास्क इन सन.”
मैं बहुत राहत महसूस
करते हुए उसे छत पर ले जाता. जहां अखबार, जंग लगे टाइपराइटर, कूलर, टायर और कई बारिशों
में सड़ कर अपरिचित बन चुका अज्ञात कबाड़ सभी एक-दूसरे से अधिक दिन टिके रहने की
स्पर्धा करते हुए पड़े रहते थे. उन सबका मनोबल बढ़ाने के लिये एक पीपल दीवार फाड़
कर उग आया था जो कहता लगता था, बेटों! जमे रहो, एक दिन तुम सब के भीतर
से जीवन फूट पड़ेगा. एक दिन रत्तीलाल के खस्ते खाने के बाद, आसमान में सर्राती
पतंगों को देखते हुए उसने कहा, “सर, कागज़ दीजिये मैं कुछ
लिखना चाहता हूं.”
“कंप्यूटर या हाथ से
लिखेंगे?”
“हाथ से सही रहेगा.”
मुझे सनसनीखेज ढ़ंग से
लगा, जिस मकसद से हम दोनों मिले थे उसके घटित होने का समय आ
चुका है. कुछ ऐसा सहज, सच्चा और महान सामने आना वाला है जिसे कहने
की हिम्मत लेखकों को नहीं पड़ती. जिसे न कह पाने की हताशा में वे आत्महत्या कर
लेते हैं. उसे लेकर दफ्तर के अपने कोने में गया. खिड़कियां खोल कर अपनी सीट पर
बिठा दिया. दो पेन, दो बंडल बीड़ी, क्लिपबोर्ड में दबा कर
सादे कागजों का मोटा गड्डा और एक गिलास पानी देकर बाहर निकल गया.
मेरे भीतर मिट्टी में
सिक्का दबा कर रुपयों की फसल चाहने वाले बच्चे की अधीरता पैदा हो चुकी थी. मैं
नहीं चाहता था कि उसे इंतज़ार की भनक लगे क्योंकि सब गड़बड़ हो सकता था.
शाम को वापस लौटा तो
वह जा चुका था. मेज़ पर कागज़ बिखरे हुए थे. नीचे मुचड़े हुए कागज के गोले थे.
कोने में उसकी धुआं, मैल और भय की याद दिलाने वाली गंध मंडरा रही
थी. मैने कागजों को छान मारा. कहीं कुछ नहीं लिखा था. सब पहले जैसे कोरे थे. फर्श
पर पड़े गोलों को बारी-बारी से खोल कर देखा. कुछ नहीं था. कुछ लाइनें खींची गयी
थीं जिनसे अनुमान लगाया जा सकता था कि कलम पर उसकी पकड़ बेहद अनिश्चित है. हाथ
कांपते होंगे या पहाड़ जैसी कोई ऊबड़-खाबड़ चीज़ होगी जिससे टकराने से बचने के
लिये कलम अपने आप भागी होगी.
ब्यूरो चीफ शिवशंकर
गोस्वामीके होंठ भिंच कर फैलते जा रहे थे. वह मेरी व्याकुलता पर मुदित थे,
“जानते हैं, यह कौन हैं”?
“नहीं तो.”
“यह इलाहाबाद के अजय कुमार हैं. नॉर्दर्न इंडिया
पत्रिका में डेस्क पर थे. मैं भी वहीं अमृत प्रभात में काम करता था. बड़ी देर के
बद पहचान पाया.”
“यह ऐसे कैसे हो गये?”
“लौंडियाबाजी! सुनने
में आया था कि लड़की के घरवालों ने बहुत मारा था. पागल हो गये. टैगोर टाउन में
बड़ा सा घर है जिसे यूनिवर्सिटी के छात्रों ने कब्ज़ा कर लिया.”
“आपकी बात हुई उनसे!”
“क्या बात करें जब
आदमी होश-हवास में ही नहीं है.”
अगले दिन दफ्तर की
सीढ़ियां अतिरिक्त फिनायल का भभका मार रही थीं. मैनेजर ने खड़े होकर दफ्तर में
‘हाईजीनिक’ पोंछा लगवाया था. रिसेप्शन पर रखी सेंटर टेबल और दोनों कुर्सियां हटवा
दी गयीं थीं. सोफा अकेला बचा था. चपरासी को कह दिया गया था, वह काम छोड़ कर
इक्का-दुक्का लोगों के लिये चाय ना बनाया करे. मैं उन्हे सड़कों पर खोजता रहा
लेकिन वह कहीं दिखाई नहीं दिये. अपने आप उन्होने मुझसे मिलने की सही जगह खोज ली और
पायनियर चौराहा पहुंचने लगे.
पायनियर चौराहा कोई
चौराहा नहीं है. वहां ‘द पायनियर’ का दफ्तर हुआ करता था. सामने नखलऊ की व्यस्ततम
सड़क अशोक मार्ग है जो चारबाग रेलवे स्टेशन से विधानसभा होते हुए निशातगंज की ओर
जाती है. रात में सौ मीटर का फुटपाथ शहर से छपने वाले अखबारों के सबसे बड़े डिपो
में बदल जाता है. दो बजे के बाद लारियों से अखबरों के बंडल बरसते हैं, एजेंटों और चौड़े
कैरियर वाली साइकिलों से उबासी लेते हॉकरों का आना शुरू होता है. हवा स्याही की
गंध से बोझिल और नई खबरों से पैदा हुए अचरज के भाव से हल्की एक साथ हो उठती है.
रौनक, हॉकरों की छीना-झपटी और छंटी हुई गालियों की
लय से पैदा होती है जो पांच बजे भोर तक पैडल दबाते हुए तीर की तरह अपने इलाकों की
ओर निकलते रहते हैं. सभी किस्मों के रात्रिचर वहां ठिठकते हैं. जिनके लिये चाय की
दो-तीन दुकानें, एक ढाबा और पान-सिगरेट के दो ख़ोखे बल्बों
के थक कर निस्तेज हो जाने तक खुले रहते हैं.
पायनिय़र की बाउंड्री
से सटे सूखे नाले के किनारे कंक्रीट के कारण बौना रह गया शरीफे का अवसादग्रस्त
बूढ़ा पेड़ है. उसे दिलासा देने के लिये एक गुलचांदनी का झाड़ उसकी ओर झुक कर सट
गया है और हर रात खिलता है. गुलचांदनी के नीचे एक उपेक्षित पिंडी है. शरीफे के
नीचे पत्थर की एक लंबी पटिया है जो कभी किसी की चाय की टपरी रही होगी. पीछे धूल के
रंग की पत्तियों वाले आम और अशोक के कई पेड़ हैं जिनसे छन कर पटिया पर उतनी ही
रोशनी आ पाती है जितनी एलीफैन्ट के जीवन में थी. शायद यही कारण होगा कि वह वहां
बैठ कर अकेले रम पीते हुए पत्तों के बीच की छूटी जगह में चांद को खोजा करता था.
बाद में और लोग भी पहुंचने लगे.
उसने एक रात अकेलेपन
से छूटने के लिये पिंडी पर शराब की धार और जमीन पर गिरे हुए चांदनी के चार फूल
चढ़ा कर उस स्थान का नाम ‘मदिरेश्वर महादेव’ रख दिया. शहर में पहले से कोनेश्वर, लोधेश्वर, भंवरेश्वर, गार्डेनश्वर महादेव के
मंदिर थे. यह नाम भी परंपरा की पैरोडी की पैरोडी हो गया.
उसकी भौंहें लगभग नहीं
थीं. वह चौड़े गालों पर महीन झुर्रियों के बीच धंसी स्थिर छोटी आंखों के कारण
पेड़ों के नीचे छिप कर दुनिया को ताकता हाथी लगता था. वह मज़े का पत्रकार था जिसकी
मामूली रपटों में कुछ अपना कहने की लपक के कारण भाषा के सलमे-सितारे दिखाई देने
लगते थे. लेकिन कहीं ज्यादा दिन नौकरी नहीं कर पाता था. अक्खड़ होने के कारण या तो
निकाल दिया जाता था या कर्मचारीपने से ऊब कर खुद ही अपने पैर में कुल्हाड़ी मार
लिया करता था.
वह मिसफिट था. प्रेस
क्लब में अक्सर उसकी किसी न किसी से मार-पीट हो जाती थी इसलिये यहां बैठने लगा था.
वह जितना डरता था उतना ही अकेला और आक्रामक होता जाता था.
एलिफैंट रम के एक
बुनियादी क्वार्टर से लैस होकर पौने नौ बजे तक आता था. जरा देर में यूनिवर्सिटी के
तिलक हॉस्टेल से सुधांशु त्रिवेदी और सिद्धार्थ कलहंस की जोड़ी के आने के साथ
भगौती के ढ़ाबे से एक बेंच उठ कर पटिया के सामने लग जाती थी. सिद्धार्थ, दिल्ली से बेरोजगार
होकर लौटा पत्रकार था. वह जिंदगी की साधरणता से इस कदर ऊबा हुआ था कि उसे दिलचस्प
बनाने के लिये हमेशा कोई किस्सा गढ़ने की फिराक में लगा रहता था. अगर कोई मनगढ़ंत
बात सामने वाले का ध्यान खींच कर उसे सुनने के लिये बाध्य कर सकती है तो वह अपने
वर्णन से उसे ज़रा देर के लिये सच में बदल देता था. लोग समझते थे कि उसे बेवज़ह
झूठ बोलने की रहस्यमय बीमारी है लेकिन उसमे यह प्रतिभा थी कि टैंपो में रॉकेट का
इंजन फिट कर उड़ा सकता था. पढ़ाई पूरी कर बेरोजगार हो रहे सुधांशु में आस-पास के लोगों के पतन पर चकित
होने वाली सरसरी नैतिकता और उनकी नकल उतारने का हुनर भरपूर था.
इसके बाद हुसैनगंज से
आलोक त्रिवेदी के साथ उसके दो फॉलोअर मम्मा और मन्ना आते थे, जो वर्किंग वीज़ा पर
जापान की किसी फैक्ट्री में काम करके लौटे थे. आलोक जापानी फोरमैनों से सीखी हुई
जीभ और दांतों से अजीब किस्म की सीटी बजाता था, ईस्स ... ईस्स! ज़रा
फालो कर ल्यो और गिलास, पानी, सिगरेट सब फालो होने
लग जाते थे.
दारुलशफा कि ओर से भाऊ
राघवेंद्र दुबे और रविंद्र ओझा प्रकट होते थे जिन्हे चाचा चौधरी और साबू की जोड़ी
कहा जाता था. भाऊ ने दसियों साल से नखलऊ में नौकरियां करने के बावजूद कभी अपने
रहने का कोई ठीहा नहीं बनाया. अक्सर रात को विधायक निवास में किसी का भी पर्दा
खींच कर दरी पर सो जाते थे. बलिया के ओझा पांच साल तक मुंह में पान-मसाला भर कर
लुगदी साहित्य के गहन अध्ययन के बाद फिर से किसी अखबार में नौकरी पा गये थे. एक
बार गांव गये तो पत्नी ने साथ में चलने की जिद पकड़ ली. बात बिगड़ गयी तो छ: साल
की बेटी को साथ लगा दिया. कोई देखने वाला नहीं था इसलिए वह उसे लिये-दिये प्रेस
कॉन्फ्रेंसों में भी पहुंच जाते थे. मुझे बाप-बेटी एक दिन मुख्यमंत्री मायावती की
प्रेस कॉन्फ्रेंस से आते हुए मिले. परेशानहाल ओझा ने चिल्लाकर कहा “हे अनील, ई काजू खाय के अइसन
पोंकत बिया कि हमरा नकदम कर दिहिले बा. हम का करीं!”
अखबरों में नाइट शिफ्ट
खत्म होने के इर्द-गिर्द रमेश पंत, मौसिया, दिव्य प्रकाश, यशवंत, प्रदीप मिश्रा, कुंवर जी अंजुम, विनय श्रीकर, अनिल उपाध्याय, सूचना विभाग वाले
राजीव दीक्षित, एजेंट हैदर. .... शरीफे के पेड़ के आगे
स्कूटरों-मोटर साइकिलों का घेरा फैलने लगता था. बैठने के लिये रिक्शों की गद्दियां
सवारी मिलने के समय तक के लिये उठा ली जाती थीं.
इसी बाच अभिनेता
सिद्धार्थ पकरासी एक मुन्ना सा ब्रीफकेस लिये इस तरह हिलते-लहराते सीतापुर से चले
आते थे जैसे विपरीत दिशा से आंधी चल रही हो. कभी पूछा नहीं, यकीन किया जाता था कि
वह वहां आबकारी विभाग में इंस्पेक्टर थे. वे एलीफैंट की ओर देसी शराब के पाउचों से
भरा ब्रीफकेस बढ़ाते, लो बेटा खूब पियो! ... और पटिया पर लेट जाते
थे.
भगौती के ढ़ाबे से आयी
बाल्टी में पाऊचों को खाली करने के बाद सभी किस्मों के अद्धे, पव्वे मिला दिये जाते
थे. पानी भर कर मग्घे से चलाने के बाद मंद रोशनी में झिलमिलाता जो तरल तैयार होता
था उसे हलाहल कहा जाता था. चाय के गिलास बराबर दो पैग किसी अज्ञात दुनिया में
पहुंचा देने के लिये काफी होते थे. बात-चीत के दौरान किसी
रंगकर्मी-अभिनेता-अभिनेत्री का जिक्र आता और थोड़ी देर टिक जाता तो पकरासी दादा
अचानक उठ बैठते और आंखें मिचकाते हुए दहाड़ते, “उसको मइने पइदा किया
नखलऊ के अंदर!”
मैं सोचता था कि वह
घर-बार के चक्कर में थियेटर छूट जाने की हताशा के कारण सभी के लिये ऐसे कहते होंगे लेकिन मसला कुछ और था. उनके
व्यक्तित्व में मुश्किल से पकड़ में आने वाला डार्क ह्यूमर था. वह इस दहाड़ और
आलाप के बीच में अपने वक्त के स्वयंभू मठाधीशों और शेखीबाज कलागुरुओं को वहीं
फुटपाथ पर दोबारा पैदा कर रहे होते थे. कभी नखलऊ थियेटर का बड़ा मरकज़ हुआ करता
था. एक बार कोई अभिनेता अनुपम खेर की बात कर रहा था जो नखलऊ में भारतेंदु नाट्य
अकादमी के छात्र हुआ करते थे. उस दौरान लड़कों ने उनकी पिटाई कर दी थी जिसके बाद
वह मुंबई चले गये थे. पकरसी दादा ने उठकर कहा, “वह बहुत बड़े वाला था, बंदर.”
रात गहराने के साथ
छावनी में सेंट्रल कमान के फौजियों को अपनी सेवाएं देकर रोते-गालियां देते हिजड़े
आते जो अक्सर सेक्स के बाद पैसे देने के बजाय मार-पीट कर भगा दिये जाते थे. वे
कहते थे कि सरकार फौजियों को रोटी देती है लेकिन वह नहीं दे सकती जो हम देते हैं
लेकिन आदमी इस बातको समझता ही नहीं. बहुत थोड़ी देर के लिये समझने का ड्रामा करता
है. जब तक उनका ‘काम’ नहीं होता हम उनके लिये वे औरतें होते हैं जिनहे वे पाना
चाहते हैं, काम निकल जाता है तो हम फिर से हास्यास्पद, बीच की घिनौनी चीज़ हो
जाते हैं. स्कूटरों से पेट्रोल निकाल कर सूंघने वाले बच्चे आते थे जिनके पास बड़ों
की बड़ी हवस की भयानक कहानियां होती थीं. ऐसे छात्र आते थे जिन्हे रात की स्तब्धता
में शहर देखने का नया चस्का लगा होता था, वे चाह कर भी ये
आश्चर्य नहीं छिपा पाते थे कि दिन में जो साधारण और जाना-पहचाना लगता है, रात में वही कितना
रहस्यमय हो उठता है. कभी भी पायल छनकाती हुई दुग्गी, रानी आ जाती थी. अपने
लहंगे के भीतर से गिलास निकाल कर बढ़ा देती “डियर, एक पैग मेरा भी बना
दो.”
नखलऊ में चलती सड़क पर
बहुत सस्ते में देह बेचने वाली औरतों को दुग्गी कहा जाता है. इक्की, बेगम और दहला तक
पहुंचने के लिये कोशिश करनी पड़ती है जबकि दुग्गियां और छक्के आपको खुद ताड़ लेते
हैं. रानी अपनी मां के साथ कॉफी हाउस के बरामदे में जीने के नीचे रहती थी. हर साल
गर्भवती हो जाती थी. जब उस का पेट काफी बड़ा हो जाता था तो गायब हो जाती थी. महीने
दो महीने में बच्चा मर जाता था या कोई ले लेता था तो आकर दोबारा धंधा करने लगती
थी. एलीफैंट ने उसे कई बार दोपहर के अखबार बेचने का काम शुरू कराया लेकिन वह कभी
एक हफ्ते से ज्यादा टिकी नहीं जो घाटा होता था वो एलीफैंट को भरना पड़ता था. रानी
की एक आंख तिरछी थी और आगे के दो दांत उठे हुए थे. उन दोनों के बीच बेहद
मूर्खतापूर्ण स्वत:स्फूर्त मुस्कान खिली रहती थी जिसमे हर दिन दो-चार उलझ जाते थे.
अपनी हालत को देखते हुए किसी अपने से बेहतर को फांस लेने में उसे जीत का एहसास
होता था. शायद इसी कारण धंधा नहीं छोड़ पाती थी. वह पीने के बाद या तो अपने में
गुम हो जाती थी या शिकायत करने लगती थी, “उस कूड़ाघर में दो
लड़के बैठे हैं जो मेरा पैसा नहीं दे रहे हैं.”
रानी देखती कि माहौल
भारी है तो एक खेल रचती थी जिसका अंत सबको पता था. आस-पास दारुलशफा, रॉयल होटल और ओसीआर
तीन विधायक निवास हैं, जहां रात की ट्रेनों से आने वाले चाय-पान के
लिये जरा देर को पायनियर चौराहे पर रुकते हैं. वह बैठे-बैठे कोई सफारी
सूट-ब्रीफकेस या सफेद कुर्ते वाला कोई शिकार ताड़ती और एलीफैंट से कहती, डियर देखना हम जा रहे
हैं. वह छम्म-छम्म करते हुए सफर करके आये उनींदे आदमी के आगे पीछे मंडराना शुरू
करती. इशारों के लेन-देन के बाद जैसे ही मोल-तोल शुरू होता वह चिल्लाना शुरू कर
देती, कमीना, हरामी, मुंहझौसा! तेरे घर में
मां-बहन नहीं है क्या, भैया लोग देखो, हमको परेशान कर रहा
है. सकते में आया आदमी सिर पर पैर रख कर भाग खड़ा होता या फिर जिनके हाथ में हमेशा
खुजली मची रहती थी ऐसे दो-तीन लड़के उठ कर जाते और हाथ साफ करने लगते थे.
इस खेल का नाम
‘नैतिकता’ हो सकता था जिसे हमारा समाज हमेशा से खेलता आ रहा है. दूसरों पर असंभव
नैतिक अपेक्षायें लाद कर उनका शिकार करने की कला का इस हद तक विकास कर लिया गया है
कि अब सभी अच्छे और बुरे का फर्क अपनी सहूलियत से बनाते मिटाते हैं. अजय भइया को
पीने में मजा नहीं आता था, उन्हें कुछ
‘सूखा’चाहिए होता था और उनके लिए नैतिकता भी कुछ और चीज थी. वे कहते, नैतिकता से भोजन और
सुरक्षा मिलती है. जैसे जानवर इन दोनों जरूरतों के लिए अपने रंग बदलते हैं, दूसरे जानवरों की आवाज
की नकल करते हैं, मरने का नाटक करते हैं, अपने भीतर जहर और
बिजली बनाते हैं वैसे ही आदमी भी समाज की घास, पत्तियों और वातावरण
में छिपने के लिए मूल स्वभाव को दबाकर खास तरह के व्यवहार का दिखावा करता है.
नैतिकता जानवरों का आविष्कार है जिसकी नकल हम करते हैं.
एलीफैंट ने पहले इस
बेअंदाज मजमे को एक मोमबत्ती से संभालने की कोशिश की और नाकाम रहा. वह दिन में
किताबों से छांटकर गजल, कविता या नज्म लिख
लेता था जिसे पटिया पर समारोह पूर्वक जलाई गई शमां की रोशनी में पढ़ा जाता था और
बातचीत की जाती थी. बीच में ही राजीव दीक्षित बेंच पर तबला बजाते हुए गाना शुरू कर
देते थे, जैसे-जैसे गानोंका फरमाईशी प्रोग्राम आगे
बढ़ता नये गायक शर्माते हुए पैदा होने लगते. राजीव को कोई गाना याद नहीं आता तो
उसकी एक-दो लाइनें गाने वाला कोई दूसरा मिल ही जाता. अजय भइया से देवानंद पर
फिल्माया लगभग हर गाना सुना जा सकता था. कवियों, शायरों के साथ समस्या
यह थी कि जो एक के लिये महान वहीं दूसरे के लिये चूतिया था. उसने जो लिखा था और जो
जिया था उसके बीच एक चौड़ी खाई थी. अपने संबंधों-समीकरणों के साथ उसमे झांकने पर
गाली-गलौज, मार-पीट की नौबत आ जाती थी.
चौराहे के दूसरे छोर
पर बाबा चाय वाले के डेक पर लगातार जागरण के भजन बजते रहते थे. एलीफैंट ने उसे एक
कैसेट लाकर दिया था जिसका पहला गाना ‘सरकाय ल्यो खटिया, जाड़ा लगे’ था.
कुंठायें जब हलाहल की तरंगों के साथ बाहर आने लगती थीं तो सड़क को बेंचों से घेरकर
फुल वॉल्यूम में बजते गानों पर पसीना बहने तक नाच लिया जाता था. इसमें भी मज़ा ना
आये तो बियर के खाली कैन या कोक की बोतल से फुटबॉल जैसा कुछ खेला जाता.
एलीफैंट ने एक रात अजय
भैया की ओर आंख मारते हुए कहा, “आज इनकी टेस्टिंग हो
जाये.”
कोई लीक से बहका हुआ
आता था तो सबसे पहले पागल टेस्टिंग की जाती थी लेकिन अजय भैया के मामले में थोड़ा
रियायत बरतने के कारण देर हो चुकी थी. इसके लिये शहर के बाहर की खाली रिंग रोड पर
पागल को पीछे बैठा कर रेस होती थी. यदि बंदा नब्बे से ऊपर स्पीड में भी प्रसन्न
रहे तो उसे पागल मान लिया जाता था. वरना ‘बना पागल’ करार दे कर गर्दनिया पासपोर्ट
के साथ भगा दिया जाता था. इस तरीके पर भारी मतभेद था. मेरा मानना था कि किसी को
खतरे में डाल कर उसकी हिम्मत का अंदाज़ा तो लगाया जा सकता है लेकिन पागलपन का
नहीं. अधिकतर लोग किसी न किसी भय के कारण दिमागी असंतुलन का शिकार होते हैं. डरे
हुए आदमी को और डराने से क्या हासिल होगा, यह दलील अनसुनी कर दी
जाती थी क्योंकि तर्क पर स्पीड के रोमांच का चस्का भारी पड़ता था.
मैं एक रात रेस में
अजय भैया को पीछे बैठा कर बीस किलोमीटर दूर चिनहट ले गया. वहां पहुंच कर उन्होने
दया दिखलाते हुए कहा, “बहुत सुंदर मोटर साइकिल संचालन रहा. मेरा
धन्यवाद स्वीकार करें.”
वह पास हो गये थे, उन्हे अपना लिया गया.
उन्हे जांचने का बेहद
फूहड़ तरीका हमने अपनाया था. यह तब पता चला जब वह पहली बार मेरे साथ शराब लेने
गये. दुकानें बंद होने के बाद कैसे जुगाड़ किया जाये यह हम लोगों कि जेब की हालत
पर निर्भर करता था. अगर पैसे हैं तो कैंटोन्मेंट के लकड़ी मोहाल, सुभाष मोहाल जाते थे.
वहां कुछ रिटायर्ड फौजी कई फौजियों का रम कोटा इकट्ठा करके रखते थे और नफा लेकर
बेचते थे. कोई ऐसा अकेला दरियादिल भी मिल जाता था जो अच्छी बात-चीत की खुशी में
एक-दो पैग मुफ्त भी पिला देता था. पैसे कम हों तो चुनिंदा देसी ठेकों की कुंडी
खटकायी जाती थी. और कम पैसे हों तो पुराने नखलऊ की गलियों में जाया जाता था जहां
उन्नाव की कटरी में खींची जाने वाली कच्ची, अंग्रेजी शराब की खुली
बोतलों में भर कर बेंची जाती थी.
देसी ठेकों पर शराब
मिलने की असली कीमत पैसा नहीं कुछ और थी. अंधेरी खिड़की में एक झरोखा होता था जिसे
दसेक मिनट खटखटाने के बाद कोई भीतर से नींद में बर्राता था. “अमां कितनी चाहिये जो
कंगन खनकाय रहे हो”?
“पांच सफेद.”
“छुट्टे निकाल कर रखो”
वह पैसा लेकर पाउच
बाहर फेंकते हुए कहता, “मां के लौड़े, शराबी, सोने भी नहीं देते जब
देखो मुंह उठाये चले आते हैं.”
इसके बाद कोई कितना भी
खटखटाये, उछले-कूदे, खिड़की दोबारा नहीं
खुलती थी.
एक दफा बरसात में एक
गालीबाज को बिल से बाहर निकालने के लिये पूरा सदन उठ कर गया. केबिल डालने के लिये
सड़क काट रहे मजदूरों से एक गैंता-सब्बल लेकर शटर तोड़ डाला गया. जब तक हम लोग
हांफते हुए अंदर पहुंचे वह रात की बिक्री वाले कोटे समेत किसी गुप्त रास्ते से
निकल गया था. भद्दी मेजों के आस-पास खाली पाउच, शीशियों, सड़ती हुई जूठन, बलगम और पेशाब की झार के
साथ अवसाद हाहाकार कर रहा था. हम सभी एक दूसरे को थोड़ी देर सूनी आंखों से देखते
रहे फिर लौट आये.
उस रात अजय भइया और
मैं रात्रिचरों से पूछते हुए चारबाग रेलवे स्टेशन के पास खड़ी ट्रकों की लंबी कतार
के पीछे कीचड़ पार कर एक उजाड़ ठेके तक पहुंचे थे और कामयाब लौट रहे थे. ढाई तीन
का समय होगा. उदयगंज नाले के पास उत्तेजित किशोरों, बच्चों का एक जुलूस
डंडे और गुम्मे लहराते हुए सड़क किनारे से गुजर रहा था. वे एक आदमी को हाथ पैरों
से पकड़ कर टांगे हुए थे जो बिल्कुल नंगा था. वह सन्नाटे में हम लोगों को सामने
देखकर घिघियाया, “मालिक हमका बचाय ल्यौ, हमार जान लै लइहें.”
आवाज कुछ पहचानी सी
लगी. मैं रुक गया. वह चारबाग स्टेशन के सामने ढाबा चलाता था. चेहरा सूजा हुआ था, एक आंख बंद थी, मुंह से खून आ रहा था.
पीठ और जांघों पर डंडों के निशान उभरे हुए थे. लड़कों ने जमकर धुना था. उसने हवा
में झूलते हुए हाथ जोड़ने की कोशिश की, “भईया हमका बचाय ल्यो, हम होटल बंद करिके
गांव चले जइबे.”
कुछ पूछने से पहले
लड़कों ने एक नौ साल के बच्चे को घसीट कर आगे कर दिया, “देखो, साले ने क्या किया है.
गाल काटकर खून निकाल दिया है. ये होटल में काम करने वालों के साथ गंदा काम करता
है. आज मार कर इसको नाले में फेंक देंगे.”
फटी बनियान पहने वह
बच्चा, हथेली से गाल छिपाए सबको हैरत से देख रहा
था. मैने उन्हें समझाने की कोशिश की, “ये मर गया तो तुम सब
जेल चले जाओगे. इससे अच्छा रहेगा कि चलो इसे पुलिस को दे देते हैं.
एक लड़का हंसा,
”ज्यादा अच्छा रहेगा कि हम लोग जेल जाकर माफिया हो जाएंगे. तब ये साला टैक्स
देगा. ”
“इसे वापस ले चलो. मैं
पुलिस को भेजता हूं”.
“उनको फ्री में खिलाता
है भईया, कसम से पुलिस कुछ नहीं करेगी.”
बहुत समझाने बुझाने पर
लड़के इस शर्त पर माने कि वह उसी दिन ढाबा बंद कर गांव वापस नहीं चला गया तो वे
उसे मार डालेंगे. उन्होंने जैसे ही उसे जमींन पर रखा वह नंगधड़ंग नाले की ढलान पर
भाग खड़ा हुआ.
अजय भइया ने रास्ते
में कहा, “आप लोगों ने हर चीज में इतना सेक्स भर दिया
है तो यही होगा न. सूरज, जमींन, पानी, हवा, खंभा, दरवाजा हर चीज का
जेंडर है. आदमी सबकुछ में छिपाए गए सेक्स का ही तो मजा ले रहा है.”
एक दिन दफ्तर के एक
रिपोर्टर ने बताया, वो जो पागल पहले यहां आते थे, उनका एक्सीडेंट हो गया
है. काफी चोट है, चौक में पड़े हैं. रात में जो पुलिस का
क्राइम बुलेटिन आया उसमें भी घटना का जिक्र था और उनका पूरा नाम अजय कुमार
श्रीवास्तव लिखा हुआ था.
मैं एक दोस्त के साथ
गया. अकबरी गेट पर भिखारियों के बीच लेटे आग के सहारे लेटे थे. किसी बड़ी गाड़ी ने
टक्कर मारी होगी. सिर फट गया था. एक पैर की खाल उधड़ गई थी. दो तीन दांत गिरे थे
और एक हाथ नहीं उठ रहा था. वहीं एक डाक्टर के यहां टिटनेस का इंजेक्शन लगवाते हुए
ख्याल आया, ये इतनी आसानी से समाज और उसके बाहर की
दोनों दुनियाओं ने कैसे आवाजाही कर लेते हैं. शायद इनमें वापस लौट आने की इच्छा
बाकी बची रह गई है.
टूटे हाथ में प्लास्टर
बंधवाने और पैर सिलवाने के बाद उन्हें सिविल अस्पताल के जनरल वार्ड में भर्ती करा
दिया गया. वहां उनकी अन्य मरीजों से ज्यादा देखभाल होती थी क्योंकि मेडिकल बीट
देखने वाले कई रिपोर्टर रोज डाक्टरों से मिलकर खाना, दवाई, कंबल और चेकअप का
इंतजाम करा देते थे. वे खुद डाक्टरों से अंग्रेजी में बात करते थे जिसके कारण
ज्यादा तवज्जो मिलती थी.
मैं चाहता था कि उनके
घाव धीरे धीरे भरें ताकि नियमित भोजन और सरकारी हीटर की गरमाई के साथ उनका जाड़ा
यहीं कट जाए लेकिन वे निराशाजनक तेजी से चंगे हो रहे थे. कोई दसेक दिन बीते होंगे.
राख और धूल से बचत होने के कारण उनके चेहरे की रेखाएं नजर आने लगीं, आग तापने से पकी मकई
जैसी हथेलियों का रंग फीका पड़ने लगा. साफ कुर्ते पाजामें और आंखों में आश्वस्ति
के कारण वे अस्पताल के दूसरे मरीजों जैसे लगने लगे थे तभी एक रात चुपचाप खिसक लिए.
काफी खोजबीन की गई कुछ पता नहीं चला. रानी समेत पॉयनियर चौराहे के दूसरे लोगों से
कहा गया कि वे नजर रखें, कहीं दिख जाएं तो पकड़
कर ले आएं लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
सतीश रंजन नाम का एक
आदमी रोज रात में फोन करके उनके बारे में पूछताछ करने लगा. वह उनसे मिलना चाहता
था. मैने काम पूछा तो उसने बताया, “अजय मेरा क्लासफेलो
है.”
वह एक छोटे उद्योगपति
थे. होम सेक्रेट्री राजीव रंजन शाह के भाई थे. उन्हें किसी पत्रकार या पुलिस वाले
से खबर लगी थी कि अजय कुमार मेरे संपर्क में हैं. वह एक लंबी गाड़ी से अपने बेटे
के साथ आए और व्यवस्थित ढंग से खोज शुरू हुई. पहली रात बेकार गई. दूसरी रात वह
अस्पताल के लाल कंबल में लिपटे कैंट रोड पर आग तापते मिल गए. हाथ का प्लास्टर उनकी
त्वचा के रंग का हो चुका था.
“कैसे हो अजय!,”
सतीश रंजन खुशी से
चिल्लाए लेकिन आवाज भावनाओं के बोझ से धसक गई.
“माय सन...बेटा अंकल
हैं. नमस्ते करो.”
बच्चे ने सकपका कर
ड्राइवर के पीछे छिपते हुए निक्कर की जेबों में हाथ डालकर कहा,
“नस्ते!”
अजय भइया के चेहरे से
ऐसा लग रहा था जैसे वे अपने दोस्त से रोज मिलते हों. रास्ता चलते हुए एक बार और
दिख गया हो और आग तापने के लिए रुक गया हो. सतीश रंजन ने अपनी भावनाओं पर काबू
पाया, मुझे धन्यवाद कहा और उन्हें गाड़ी में साथ
लेकर चले गए.
उन्हें अलीगंज में एक
कोठी के गेस्ट रूम में रखा गया. नरम सफेद बिस्तर, सफेद तकिए, सफेद परदों और चटक
रंगीन रजाई की गरमाई में जाने से पहले एक नौकर ने उनके नाखून काटे. एक नाई बुलाकर
दाढ़ी बाल साफ कराए गए. दो नौकरों ने उन्हें कीटाणुमुक्त करने के लिए गरम पानी और
स्किन क्लिंजर से तीन बार नहलाया. एक डाक्टर बुलाकर पूरे शरीर का चेकअप कराया गया.
सब सामान्य था लेकिन इलाहाबाद के दिनों की तुलना में सबकुछ असामान्य रूप से बदल
चुका था जब वे सतीश के दोस्त हुआ करते थे.
अनुमान है कि बरसों के
बाद हुए भीषण स्नान का उनपर गहरा असर हुआ होगा. रोम छिद्र खुल जाने से बहुत ज्यादा
उर्जा बाहर आई होगी और वे निचुड़ गए होंगे. सिर में बालों से ढकी कोयले की खदान का
मुंह खुल गया होगा. हवा प्रकाश व अन्य चिरपरिचित तरंगों ने भीतर प्रवेश किया होगा
जिसके कारण वे एक बार फिर पूरी तरह ब्रह्मांड के संपर्क में आए होंगे. खैर नतीजा
यह हुआ कि वे डिनर से पहले ही लुढ़क गए और चार दिनों तक सोते रहे. डाक्टर आता रहा, जांचकर सबकुछ सामान्य
बताता रहा.
जागने के बाद उन्होंने
किसी से मुझे फोन करा कर संदेश भिजवाया कि वे बिल्कुल मजे में हैं. मैं जल्दी
मिलने के लिए आऊं. मैं पॉयनियर पर फंसा रहा. नहीं जा पाया.
इस बीच मौसम बदल गया.
कनपटी पर हवा की सेंक लगने लगी. मार्च का कोई दिन था, मैं दफ्तर जा रहा था.
गोमती के पानी पर धूप बिलछ रही थी. जाड़े की गंभीरता लुप्त हो चुकी थी. पछुआ हवा
में सबकुछ निहायत उद्दंड ढंग से खड़खड़ कर रहा था. मैने नदी के किनारे एक आदमी को
घुटनों बराबर घास में कुछ खोजते दूर से देखा. उसके आगे पीछे कुत्ते भौंक रहे थे.
आकृति कुछ पहचानी सी लगी. भीतर कौंधा, वही है. बाइक किनारे
खड़ी कर मैं घास के भीतर गया. वही थे लेकिन कहीं तल्लीन थे.
मुझे अचानक देखकर हंसे
फिर सचमुच हंसते हुए कंधे पर हाथ रख दिया, “तुम भी यार...
मैने पूछा,
“वहां से भी भाग आए, क्यों?”
उन्होंने आंखों में
देखते हुए नकार के साथ दोनों हाथ उछाले, बै...
“ऐसा क्या हुआ?”
उन्होंने घास की तरफ
हथेली चमकाई, “बै...ये वाला मजा और कहीं नहीं है यार”
हरी घास पागलों की तरह
हंस रही थी जो कुछ ही दिनों बाद झुलस कर खत्म होने वाली थी.
4 comments:
लाज़वाब !
अनिल सर आप अपनी किस्म के इकलौते हो ❤
कल अनिल जी को इसके लिए बधाई कह पाया। इंडिया टुडे में पढ़ा था तभी से मन ने हुक सी थी। कबाड़खाने पर आ गई । ये बोत अच्छी बात है।
अद्भुत। इस भाषा का मुरीद हूँ।प
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