देवानंद
-विवेक सौनकिया
रोजमर्रा की जिंदगी में कई कैरेक्टर
टोटल फिल्मी होते हैं जो मानस पर इकदम फिल्मी छाप छोड़ जाते हैं. ऐसे ही थे देवानंद
जोशी जिनका असल नाम क्या था अल्मोडे़ प्रवास से लेकर आजतक पता न चला पर आबकारी
दफ्तर में उन्हें देवानंद के नाम से जाना जाता था.
अल्मोड़ा कचहरी से लाला बाजार की तरफ
उतरने वाली सीढ़ियों से उतर कर ज्यो ही कोई
नीचे बढे़गा, उसे देवानंद का प्रतिष्ठान
कचहरी के पुस्ते में मजबूती से ठोकी गयी कील के सहारे बांधी गयी नीली बरसाती के
नीचे दिख जायेगा जिसमें देवानंद बतौर मुख्य कार्यकारी अधिकारी अधखुली आंख से अधजली
सिगरेट के उड़ते हुये धुएँ में जिन्दगी की पूरी संभावनायें तलाशते अधलेटे, अधबैठे दिख ही जायेंगे.
बात इकदम सीधी और इकदम सपाट है कि
कोई किसी भी ऐंगल से क्यों न देखे हर चीज, चाहे
वह प्रतिष्ठान हो, धुआँ हो या धुआँ उड़ाते देवानंद, आधे ही
दिखेंगे क्योंकि देवानंद की कारोबारी दुनियां के हरेक पहलू का हरेक आधा हिस्सा बगल
के पनवाड़ी के खोखे के नीचे के खाली हिस्से में आधा घुसा दिखता था जिसकी जानकारी
खुद कई दफे अल्मुड़ियों तक को नहीं हो पाती
थी.
फिल्म अभिनेता देवानंद स्टाइल का
चश्मा,
देवानंद स्टाइल की टोपी, देवानंद स्टाइल की
चमकती आंखें और आखीर में देवानंद स्टाइल के बदन में समाई देवानंद स्टाइल की आत्मा
जो बस देवानंद स्टाइल में बोलती भर नहीं थी. निन्यानवे फीसद देवानंद स्टाइल के
देवानंद जोशी सुर फूटते ही देवानंद न रहते बल्कि वे उत्तराखंड के अल्मोड़खंड के
कचहरी बाजार की पटालों जिनका स्थान बजट को खपाने के लिये लगाये गये गैरवाजिब कोटा
स्टोन ने ले लिया है पर बैठे एक अद्वितीय क़िस्म के अल्मुड़िया समझ में आते.
ताला, चाभी, छाता, संदूकची, अटैची, स्टोव, चेन, लाईटर आदि विभिन्न वर्गों और जातीय संरचना द्वारा समान रूप से रोज प्रयोग
की जाने वाली आम लगने वाली खास चीजों के एकमात्र सिद्धहस्त और अल्मुड़िया मार्का
मिस्त्री देवानंद जोशी में मात्रा के रूप में मात्र आधा अल्मोड़ा भरा था. शेष आधे
हिस्से में एक खालीपन था जिसमें देशी दारू ‘गुलाब’ से लेकर हल्द्वानी की नाहिद टाकीज
में देखी गयी पिक्चरों और उनकी फेवरेट जय जयंती वैजयंतीमाला के क़िस्से इफ़रात में
भरे थे.
देवानंद ने अपने जीवन की सबसे लंबी
यात्रा बरेली की वाया हल्द्वानी की थी जिसमें बकौल उनके कुल जमा तीन पिच्चरें, तीन बोतल देशी दारू, तीन प्राइवेट बैंकरों के लॉकर
खोलकर कुल तीन सौ रूपये कमाये पर समूची यात्रा में साथ के तीन बिजनौरी दोस्तों का
सात दिन में ऐसा प्रभाव पड़ा तीन सौ से अधिक बिजनौरी बोली के शब्द सीख गये जो
अल्मोड़ा आकर अपनी मित्र मंडली में अपना प्रभाव जमाने के लिये खूब काम लिये गये. तीन
नंबर के प्रति इतना समर्पण किसी दो नंबरी के बस की बात नहीं थी,आखिर देवानंद अल्मुड़िया जो थे.
आफिस के ताले बदलने के दौरान
देवानंद की इंजीनियरिंग और भाषाई दक्षता से रूबरू होने का मौका मिला.
“साब ऐसा कोई ताला नहीं जो हमसे स्साला खुला नहीं. सब बदल ग्या चाबी की जगै
बटन आ गये, कांटे की जगै गिर्री-गरारी आ गई पर रोक ना सके
देवू को. वो क्या कहे हैं बैंक में जां सारे अल्मोडे़ का मालमत्ता, रूपया पइसा रखे हैं अरे जिसमें लोहे का भारी वाला दरवज्जा होवे है ... हां
लाकर वा तक पांच मिन्ट में रैट टैट कर देवे.”
नजीबाबाद बिजनौर के शब्दों के
माध्यम से प्लेन्स के साहब पर रंग जमाने की इच्छा रखने वाला देवानंद रुका नहीं.
“साब पर इस अल्मोडे़ में जानकार
की कदर कहां. स्साला दिन भर पटाल पर बैठे-बैठे भेल तक घिस जाती है पर कभी कभी तो पव्वे
तक की जुगाड़ न हो पावे है. पर क्या करें साब अल्मोड़ा जो ठैरा. यां पै साब काम करने
वाले की कदर ना है बस्स चूतिया काटे रहो बनो मती फिर तो मौजई मौज.”
देवानंद के हाथ आफिस की अल्मारियों
पर किसी पेशेवर की तरह सधे हुये चल रहे थे और उसकी जुबान किसी निर्मम सामाजिक विश्लेषक
की तरह अल्मोडे़ की खैर ख़बर लेने पर आमादा थी. वह रूका नहीं.
“साब भतेरे आये भतेरे चले गये पर यौ न शहर ना बदला है न बदलेगा. यां तो
सुनो सबकी और करो मनकी और हां बोलो तो बिल्कुल मती. ढाई चाल कब ढेर करदे पता न
चलैगा. सब परम है स्साले. न काम करेंगे और कन्ने भी ना देंगे. बस्स एक खचड़पचड़ मचा
रक्खे है दिन भर. साब अगर आप बुरा न मानें तो बीड़ी पी लूं.”
सहमति मिलने के लिये इंतजार करना
देवानंद को गैरवाज़िब लगा सो पहले ही देवानंद ने धूम्रपान निषिद्ध क्षेत्र में फर्श
पर दोनों टांगें फैलाकर ‘मजदूर’ के बंडल में बची आखिरी बीडी़ सुलगा ली और फिर चालू
हो गया.
“साब कसार देवी से क़रबले तक एक से
एक फितरती मिलेगें. बचके रइयो.यां बडे़
बडे़ ग्यानी, कलाकर, नचइये, गवइये आये और आकर भेल घिस के चले गये. आये तो थे चूलें हिलाने के लिये पर
पड़ी पिछवाड़े पे अल्मुड़िया लात तो पिछवाड़ा हिलाते चले गये. अल्मोड़ा और अल्मुड़िया
आसानी से टिकने कहां देते हैं. अब तुम देख लो मेरा गांव रानीखेत के धौरे कठपुड़िया
में है पर आज तक बाबूजी तीस साल हो गये आदमी स्साला बाहर का कहै है. स्साला पूरे
अल्मोड़े का ताला खोल के बंद कर दिया पर यौ न खुल्ला.”
देवानंद का अद्भुत बिजनौरी स्टाइल
का सामाजिक विश्लेषण आधे पिये गये अद्धे से अपनी ऊर्जा ग्रहण कर रहा था और ज्ञान
फचाफच बाहर आ रहा था. आधे टुन्न होने के बाद भी शहर के मिज़ाज़ की ऐसी अद्भुत
व्याख्या से रूबरू होना अपने आप में एक अलग क़िस्म का अनुभव था जो किसी भी पढ़े लिखे
व्यक्ति की संगत में प्राप्त नहीं हो सकता था क्योंकि यह समाज का टुन्नावस्था में
किया गया विश्लेषण जो था. हालांकि व्यक्ति अपनी गहराई और विस्तार से ही चीजों को
देखता समझता है और ऐसा भी नहीं है कि देवानंद की सारी बाते सहीं हो पर उनमें दम
जरूर था. देवानंद के हलक से नीचे का आधा अद्धा उन्हें अल्मुड़ियापन से, अल्मोड़त्व से टक्कर लेने का पूरा साहस दे रहा था. बचीखुची ऊर्जा उन्हें
कमर में खोंसे गये आधे अद्धे से मिल रही थी.
अल्मोड़ा है ही ऐसा. काफी हद तक
देवानंद की कमर में खोंसे हुये आधे अद्धे की तरह. निर्भर देखने वाले पर करता है कि
वह आधी शराब का संभावित आनंद देखता है अथवा आधा खालीपन.
ऊपर की इन ढाई लाइनों में एक महीन
अल्मुड़िया दर्शन भी निहित है कि जब आप अल्मोड़े मे रहकर अल्मोड़त्व से रूबरू हो रहे
हों तो आपको सिर्फ और सिर्फ एक ही चीज से मतलब रखना चाहिये वह है “दारू”,जो कि ज्ञान, आत्मा, अमरत्व, निर्वाण, मोक्ष, प्रकृति, सौम्यता, रम्यता, तनाव, दुराव, लगाव, छुपाव, अभाव, प्रभाव, कुभाव आदि सबसे
ऊपर है और शुद्ध अल्मोड़त्व की स्थापना आपके अंदर करती है. यही अल्मोड़त्व विभूषित
करता है आपमें, हममें और सब में उस परम अल्मुड़ियापन को जिसमें
कोई कितना भी डूब जाये पर समझ में आयेगा सिर्फ आधा. ठीक देवानंद के कमर में छुपे
आधे अद्धे की तरह.
देवानंद का एक दूसरा किस्सा जो
वार्तालाप की अल्मुड़िया शैली का परिचायक हो सकता है.
एक दिन सुबह पांच बजे हल्द्वानी से
वापस लौटते समय क़र्बला तिराहे पर देवानंद दिखे तो उत्सुकतावश उनकी मॉर्निंग वॉक का
प्रयोजन पूछ लिया. जो उत्तर मिला वह समझने लायक था-
“साब गया था किसी गांव में किसी
आदमी के घर किसी कमरे में पड़ी किसी शादी की अल्मारी के किसी लाकर को खोलने जिसमें
उस व्यक्ति की उसी पत्नी के उसी पांव की वही पायल उसी से किसी तरह बंद हो गयी थी
और उन मैडम को किसी दूसरी मैडम के साथ किसी तीसरी मैडम के घर शादी में जाना था.घर
मे बवाल मचा ठरा सो किसी ने किसी के कान में कुछ फुसफुसाकर कहा कि कहीं से कोई
देवानंद को पकड़ लाये तो ये ताला खुल पाये.”
“फिर”
अद्भुत अल्मुड़िया शैली में कहे गये
लंबे डायलाग ने उत्सुकता बढ़ा दी थी.
“फेर क्या साब मौके पर पहुंच कर
बिना मुआयना किये चट से उस अल्मारी को उसी तरह खोल डाला जिस तरह वह बंद हुयी थी. फेर
क्या इधर मैडम खुस और उधर उनके ऐडम खुस और उन दोनों की खुसी ने हमें खुस कर दिया
सो आधा हाफ तो हम वहीं सूंत गये और आधा हाफ आधी रात को. घर के आधे रस्ते में कि
कहीं आधी बेहोसी में किसी पैराफीट से टिककर सो गये थे.”
“अगर आपके पास कुछ पड़ा हो तो!”
हांलांकि देवानंद ने ब्लांइंड चाल चली थी लेकिन वह चल गई.
कार की डिग्गी में देशी शराब के कुछ
पव्वे पडे़ थे .
“साब मजा आ गया अब पेट सही साफ हो
जायेगा” कह कर देवानंद जोशी इकदम सधे कदमों से दुलकी मारते हुये आंखों से ओझल हो
गये और काफी दिनों तक पव्वे से पेट साफ होने का कनैक्शन हमें उलझाये रहा.
2 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, एक भयानक त्रासदी की २१ वीं बरसी “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस - अभिनेत्री सुरैया और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
Post a Comment