फ़िल्मी गानों की समीक्षा – 4
चलो
दिलदार चलो,
चाँद के पार चलो
प्रस्तावना: ऐतिहासिक
महत्त्व की यह कविता 1960
के दशक के भारतीय विज्ञान की सीक्रेट फाइल्स में दफ्न एक कथा पर
आधारित है.
काव्य
समीक्षा: कुमाऊनी लोकगायन की बैर शैली में रची गयी इस कविता में कवि का डबल रोल
है. कहीं-कहीं इसे उकसावा अथवा अनुमोदन शैली भी कहा जाता है. ऐसी कविताओं में हाँ
में हाँ मिलाने का कायदा है. इसके अलावा जिस तरह तीन चौथाई बहुमत वाली सरकार
द्वारा किसी भी अनापशनाप बिल को पास कराते बखत विपक्ष के लिए तर्क-जिरह या
सवाल-जवाब की कतई गुंजाइश नहीं होती यहाँ भी कवि द्वारा पाठकों की भावनाओं का कोई
ख़याल न करते हुए केवल स्वयं अपनी ही बात का अनुमोदन करना होता है.
कविता
के प्रारम्भ में हृदयधारी प्रेयसी से चन्द्रमा से आगे जाने आह्वान किया जाता है –
‘चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो’. थोड़ा सा रूमानी हो जाने के इस चैलेन्ज के
त्वरित रेस्पोंस में प्रेयसी उक्त कार्य के लिए अपने तत्पर होने की घोषणा करती है
– ‘हम हैं तैयार चलो’.
प्रेम
के प्रस्फुटन के शुरुआती लक्षण यहाँ देखे जा सकते हैं जब सद्यःनिर्मित
प्रेमी-प्रेमिका बेवकूफों की तरह एक दूसरे की हर बात पर “वाव यू आर कूल मैन!” कहने
की व्याधि से ग्रस्त पाए जाते हैं. और चंद्रमा से आगे जाने से अधिक कूल क्या हो
सकता है! यह अलग बात है कि उनमें झगड़े शुरू होने में ज़्यादा समय नहीं लगता और वे
अपने-अपने तरीकों से गम गलत करने के उपाय खोजना शुरू करते हैं.
कविता
का दूसरा पैरा बतलाता है कि नायक-नायिका अपनी अंतरिक्ष यात्रा पर निकल चुके हैं या
निकलने ही वाले हैं. वे नक्षत्रों के मध्य अलोप हो जाना चाहते हैं ताकि अन्याय और
अत्याचार से भरी इस धरा का विचारमात्र भी उन्हें परेशान न करे -
“आओ खो जाएं सितारों में कहीं
छोड़ दें आज ये दुनिया ये ज़मीं”
छोड़ दें आज ये दुनिया ये ज़मीं”
बिल्कुल
प्रारंभ में इन पंक्तियों के लेखक ने जिस गुप्त कथा को संदर्भित किया है उसके
परिप्रेक्ष्य में अगली पंक्तियाँ आधिकारिक प्रमाण का कार्य करती हैं. यात्रा के
बीच में नायक नायिका से कहता है कि उसे नशा हो रहा है और उसे सम्हाला जाय – ‘हम
नशे में हैं सम्भालो हमें तुम’. नायिका उससे भी अधिक धुत्त है और सूचित करती है कि
उसका हाल तो नायक से भी खराब है – ‘नींद आती है जगा लो हमें तुम.’
पाठक
को यहाँ यह जानने का अधिकार है कि प्रेमी युगल की ऐसी हालत हुई तो कैसे हुई. क्या
कोई तीसरा था जिसने उनके सफ़र को बाधित करने की कोशिश की और उनके दूध में धतूरा घोल
दिया? क्या नायक-नायिका इतने लम्बे सफ़र पर ठीक से तैयारी किये बिना निकल गए थे?
सुधी पाठको, इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए
आपको थोड़ा धैर्य रखना होगा.
कविता
का अंत उसी शाश्वत थीम पर होता है कि जीवन में सब कुछ नाशवान और भुसकैट होने के
बावजूद उल्फ़त अर्थात प्रेम की यात्रा अनंत चलती रहती है. यहाँ यह निष्कर्ष निकाला
जा सकता है कि नायक-नायिका अपने-अपने परिवारों के बड़े-बूढ़ों के कहने पर चंद्रमा से
आगे तक की यात्रा करने का विचार त्याग कर वापस संसार में आ चुके हैं. आदमी को
दफ्तर भी जाना होता है,
दुकान खोलनी होती है, सुबह कुकर पर चार सीटी
लगा कर दाल गलानी होती है, बच्चों का टिफिन तैयार कर उन्हें
टैम्पू स्टैंड तक छोड़ने जाना होता है इत्यादि-इत्यादि! उल्फ़त का क्या है – उसने तो
चलते रहना है. कोई टिकट थोड़े ही लगता है!
ऐतिहासिक
शोध: 1962
में नेहरूजी के कहने पर विक्रम साराभाई ने इसरो शुरू किया था. अपनी
स्थापना के अगले ही सप्ताह इस संस्थान ने ब्रह्माण्ड के सभी ग्रहों तक अपने लोगों
को पहुंचाने का प्रोजेक्ट लांच कर दिया. उत्तराखंड के लमगड़ा नामक स्थान के निवासी
हयातसिंह लमगड़िया, जिन्होंने सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री
हासिल कर रखी थी, को साराभाई अपना दायाँ हाथ मानते थे.
चन्द्रमा और अन्य स्थानों पर भविष्य में बनाई जाने वाली हाउसिंग कालोनियों के
डिजाइन बनने के लिए इन्हीं हयातसिंह को इंचार्ज बनाया गया था. नेहरूजी को मालूम था
कि बढ़ती आबादी वाले हमारे देश में बहुत जल्द ज़मीन की कमी होने जा रही है और ऐसे
हाउसिंग प्रोजेक्ट्स से ही देश का भला हो सकेगा.
उस
रात इसरो की मैस में परोसे गए भरवां बैगन की सब्जी के सेवन के अतिरेक से हयातसिंह
को पेट की मरोड़ उठी. जिसके चलते उन्हें स्थानीय सरकारी डिस्पेंसरी में भर्ती कराया
गया. पेट की मरोड़ शांत होने के उपरान्त उन्होंने वहां रात्रिकालीन ड्यूटी कर रही
दक्षिण भारतीय नर्स भद्रालक्ष्मी सुन्दरम को देखा और मशहूर हिन्दी लेखक ज्ञानरंजन
के शब्दों का इस्तेमाल किया जाय तो उनका ‘स्टार्ट’ हो गया.
कालान्तर
में जब तक हयातसिंह और भद्रालक्ष्मी सुन्दरम का प्रेम-संबंध सार्वजनिक होता, विक्रम
साराभाई अपने पहले अंतरिक्ष मिशन की बागडोर अपने दक्षिणहस्त अर्थात हयात सिंह को
सौंप चुके थे. मोहब्बतान्ध हयातसिंह लमगड़िया अपनी माशूका को साथ ले जाने की जिद पर
अड़ गए. बताते हैं कि पहले तो साराभाई इसके लिए तैयार हो भी गए थे लेकिन स्टाफ के
विरोध और राजनैतिक हस्तक्षेप के बाद उन्हें हयात सिंह से स्पष्ट मना करना पड़ा.
इससे
खिन्न होकर हयातसिंह ने एक रात खूब शराब पी और अपनी मोहब्बत का हवाला देकर बेचारी
भद्रालक्ष्मी के हलक में भी दो पैग उड़ेल दी. अच्छा टुन्न होने के उपरान्त हयातसिंह
अपनी होने वाली शरीके-हयात को लेकर प्रयोगशाला में घुसे और उसे ले जाकर तकरीबन
पूरा बन चुके अंतरिक्ष यान की ड्राइविंग सीट में बिठाकर रोमांटिक गाने सुनाते रहे.
नशा बढ़ जाने के बाद वे बाकी सारी रात साराभाई को गाली बकते रहे. नशे की ही हालत
में अलसुबह प्रयोगशाला से बाहर निकलते हुए हयातसिंह अंतरिक्ष यान को माचिस दिखा
आए.
इसरो
की सीक्रेट फाइल्स में इस अकल्पनीय हयातसिंह- भद्रालक्ष्मी कथा में पुलिस, राजद्रोह,
भगोड़ा जैसे शब्दों की भरमार है. उन दोनों का आखिर में क्या हुआ यह
जानने की लालसा मेरी भी है.
इस
प्रकरण के दो दूरगामी परिणाम हुए –
1. भारत का अन्तरिक्ष प्रोग्राम खटाई में पड़ गया. हयातसिंह लमगड़िया को मिलने
वाला सम्मान नील आर्मस्ट्रांग को मिला.
2. हयातसिंह द्वारा उस रात गाये गए गीतों की स्मृति से समीक्षित की जा रही
अमर कविता का सृजन हुआ.
वीडियो
रिव्यू: पहली बात तो ये कि बजरे या कश्ती पर बैठ कर अंतरिक्ष यात्रा नहीं की जा
सकती.
2 comments:
बहुत खूब।
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