Thursday, September 27, 2007

बदरी काका: भाग १

समय काल की सीमा से परे हैं बदरीकाका . कुछ लोकगाथाओं के मुताबिक काका का जन्म तब हुआ था जब पेड़ पौधे पत्थरों से बातें किया करते थे ऐसा भी माना जाता है कि उन दिनों बदरी काका का सीधा संवाद देवताओं को साथ था. कालांतर में धरती पर मानव जाति के साथ साथ भाषा के विविध रूपों का भी विकास हुआ और किसी उचित जान पड़ने वाले लग्न में काका ने कूर्माचल में स्थित अल्मोड़ा नगर के रानीधारा मोहल्ले में अपना डेरा जमाया जहाँ वे सुबह से शाम तक अपने भक्तों को गप्पें सुनाया करते थे.

बदरी काका की शोहरत सारे उत्तराखंड में फैली हुई थी और गाँव गाँव नगर नगर से लोग गप्प सुनने उनके दरबार में आया करते थे. काका के मुरीदों में गोपाल भी था जो दिन भर बीड़ी फूकने वाला एक निठल्ला बेरोजगार था. गोपाल को बचपन से ही काका की गप्प सुनने का कुटैव हो गया था और उसके अपने घरवालों ने उस से सारी उम्मीदें छोड़ दी थीं. गोपाल बदरी काका से मन ही मन डाह रखता था और किसी ऐसे मौक़े की तलाश में रहता था कि काका को नीचा दिखा सके. कुछ साल काका की संगत में रहते गोपाल को गप्पें सुनाने की थोडी प्रतिभा हासिल हो गई.

एक शाम चौघानपाटे में थान सिंह के खोखे में अपने कुछ दोस्तों के साथ चरस पीते हुए गोपाल को एक आइडिया आया. थान सिंह और गोपाल ने अपना सारा बचपन पोखरखाली में टायर चलाते या गिल्ली डंडा खेलते हुए बिताया था. दसवीं को बोर्ड का रिजल्ट आने से पहले ही दोनो घर से भाग गए थे क्योंकि दोनो को पास होने कि कतई उम्मीद नहीं थी. हल्द्वानी पहुंचकर गोपाल ने छिप कर अखबार में रिजल्ट देख लिया था. गोपाल थर्ड डिविजन पास हो गया था जबकि थान सिंह फेल हो गया था. धर्मसंकट की उस वेला में गोपाल ने थान सिंह का साथ नहीं छोड़ा था और वे पीलीभीत जाने वाली बस में सवार हो गये थे. थान सिंह को पिक्चर हाल में गेटकीपर की नौकरी मिल गई और गोपाल हफ़्ते भर बाद अल्मोड़ा लौट गया. पीलीभीत में तमाम कामधन्धों से पैसा कमाने के कुछ सालों बाद थान सिंह वापस लौट आया था और हल्द्वानी अल्मोड़ा रूट पर उसके दो ट्रक चला करते थे. टाइम पास करने के लिए उसने चाय की दुकान लगा ली थी. वह गोपाल को समझाता था कि बदरी काका की संगत छोड़ दे और समय रहते कुछ पैसा जोड़ ले. जो भी हो दसवीं के रिजल्ट के समय गोपाल की वफादारी को वह नहीं भूला था और उसने अपनी दुकान में गोपाल के लिए फोकट की चाय, बंद-मक्खन और अंडे-छोले आदि का बाका़यदा इन्तजाम कर रखा था.

खैर उस शाम चरस की तुडकी में थान सिंह ने गोपाल से कहा कि बदरी काका के यहाँ जाने के बजाय उसने अपना खु़द का अड्डा बनाना चाहिए और वहां लोगों को गप्प सुनानी चाहिए. आख़िर वह हाईस्कूल पास था जबकि बदरी काका की पढ़ाई लिखाई का कोई रिकॉर्ड किसी के पास नहीं था. इस प्रस्तावित गप्प दरबार के लिए थान सिंह ने हर रोज़ शाम को पांच बजे बाद अपनी दुकान प्रस्तुत की.

गोपाल का दरबार शुरू हो गया और मुफ़्त चाय-समोसे के लालच में नगर के युवा और प्रतिभाशाली चरसी गप्प दरबार में आने लगे. बदरी काका को गोपाल पसंद था और उसके अनुपस्थित हो जाने के बाद उन्हें गप्प सुनाने में आनंद आना कम हो गया. गोपाल भी बदरी काका से सुनी गप्पों और किस्सों के अधकचरे संस्करण सुनाते सुनाते बोर हो गया था. उसे भी बदरी काका की याद आती थी लेकिन संकोच और झूठे अभिमान के कारण वह जैसे तैसे अपने इस अधूरे जीवन को चालू रखे हुए था.

गोपाल द्वारा अपना खुद का दरबार शुरू किये जाने की खबर से बदरी काका थोडे आहत तो हुए थे लेकिन कालावधि की सीमाओं से परे रहने वाले काका को मालूम था कि एक न एक दिन गोपाल लौट आएगा. आख़िर पालक बालक जो हुआ.

कुछ महीनों बाद गोपाल अचानक किसी को कुछ भी बताये शहर से गायब हो गया. थान सिंह और बाक़ी दोस्तों को कुछ दिन उस की कमी महसूस हुई पर हफ्ते भर में जीवन सामान्य हो गया. करीब महीने भर बाद गोपाल अचानक प्रकट हुआ तो उस की चाल में अभूतपूर्व ठसक थी.

थान सिंह ने पूछा : "क्यों रे गोपुआ, कहां का चक्कर काट्याया?"

"जरा जापान तक गया था यार. ऐसे ही कुछ काम निकल गया था."

जीवन में हजारों लातें खा चुकने के बाद थान सिंह को अब किसी बात से हैरत नहीं होती थी. वह किसी की भी बात पर न तो विश्वास करता था ना अविश्वास. गोपाल उसको पसंद था क्योंकि पीलीभीत वह उसी की हिम्मत के कारण गया था. उसके ट्रक भी गोपाल कि ही देन थे. यह अलग बात थी कि बदरी काका की संगत ने गोपाल की जिन्दगी का कैम्पा कोला बना दिया था. कैम्पा कोला थान सिंह का तकिया कलाम था. पीलीभीत के पिक्चरहाल मैनेजर ने उसे कैम्पा कोला में घोल कर कच्ची दारू पीना सिखाया था. अब वह कच्ची नहीं पीता था. रानीखेत जाकर वह हर महीने कुमाऊँ रेजीमेंट में काम करने वाले अपने बहनोई और उसके दोस्तों से दस पन्द्रह रम की बोतलें ले आता था. पीता वह कैम्पा कोला डाल के ही था.

(जारी)


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