(संवेदनशीलता को ताले में बंद चुकने के बाद हमारा मीडिया सिर्फ सनसनी पर आ कर थम गया है। यह छोटा सा आलेख मैंने वीरेन दा के कहने पर 'अमर उजाला' के लिए पिछले साल विएना से भेजा था। मुझे लगा कि इसे बाक़ी कबाडियों के साथ बाँटा जाना चाहिऐ। )
विएना का एक रिहाइशी इलाका। 23 अगस्त 2006 की दोपहर बगीचे में नताशा काम्पूश वैक्यूम क्लीनर से वोल्फगांग प्रिकोपिल की बी एम डब्ल्यू कार की सफाई कर रही है। 12 बजकर 53 मिनट पर वोल्फगांग प्रिकोपिल का मोबाइल बजता है। वोल्फगांग प्रिकोपिल वैक्यूम के शोर से बचने के लिए भीतर जाता है। मौके का फायदा उठाते हुए नताशा वैक्यूम को चालू छोड़कर बाहर भाग जाती है। वोल्फगांग प्रिकोपिल बिना जल्दबाजी के फोन पर पूरी बात करता है। उधर नताशा तमाम बगीचों और बाड़ों को फांदती हुई राहगीरों से पुलिस बुलाने की गुहार करती भाग रही है। कोई उसकी मदद नहीं करता। करीब 200 मीटर भागने के बाद वह 71 साल की एक बूढ़ी पड़ोसन का दरवाजा खटखटाती है और कहती है : “मैं नताशा काम्पूश हूं”। पड़ोसन के फोन के बाद एक बजकर चार मिनट पर पुलिस आती है और नताशा को पुलिस स्टेशन ले जाया जाता है।
2 मार्च 1998 को स्कूल के रास्ते से अपहृत की गई नताशा के इस तरह प्रकट होने को समूचे यूरोप खासतौर पर आस्ट्रिया में एक सनसनीखेज घटना के तौर पर देखा गया। अपहरण के वक्त नताशा दस साल की थी। यानी अब वह अठारह की है।
वोल्फगांग प्रिकोपिल जिसने इस अपहरण को अंजाम दिया था उसी शाम एक भागती अंडरगाउंड के नीचे कटकर अपनी जान दे देता है। वोल्फगांग प्रिकोपिल मरने के समय 44 साल का था। पड़ोसियों और दोस्तों के बीच एक सीधेसादे आदमी के तौर पर पहचाने जाने वाले वोल्फगांग का कोई आपराधिक रेकार्ड नहीं था। अलबत्ता 2 मार्च 1998 को पुलिस ने उस से भी पूछताछ की थी क्योंकि उसकी ही जैसी सफ़ेद वैन में नताशा के अपहरण किए जाने की पुष्टि पत्यक्षदर्शियों ने की थी। पेशे से तकनीशियन वोल्फगांग ने चालाकी से पुलिस को उल्लू बना लिया था।
जाहिर है समूचा मीडिया बौरा गया था। शुक्र है आस्ट्रिया के कड़े कानूनों और मानवीय सरोकारों के लिए उसकी निष्ठा के चलते नताशा का तमाशा नहीं बना। वरना और किसी देश में छोटे बड़े अख़बार पत्रिकाओं और टीवी चैनलों ने कोई कसर नहीं छोड़नी थी।
एक भारतीय के तौर पर मेरे लिए यह पत्रकारिता का एक अकल्पनीय आयाम था। बीच बीच में छनकर आती खबरों से पता चलता था कि नताशा को आस्ट्रिया के सबसे सक्षम मनोचिकित्सक की देखरेख में रखा जा रहा है और यह भी कि नताशा की सहायता के लिए बड़े वकीलों का बाकायदा इंतजाम किया गया है। अगस्त के शुरू में खबर आई कि टीवी चैनल नताशा को एक इंटरव्यू के एवज में दस लाख यूरो तक देने को तैयार हैं।
पांच अगस्त को खाना खाते हुए मैंने टीवी पर सुना कि आस्ट्रिया का सरकारी चैनल ओ आर एफ़ अगले दिन नताशा का एक एक्स्क्लूसिव इंटरव्यू दिखाया जाएगा। 23 अगस्त को अपना नया जीवन शुरू करने के बाद पहली बार बाहरी दुनिया से रूबरू इस इंटरव्यू के दौरान जिस तरीके से करीब एक घंटे तक सारे सवालों का जवाब दिया उसके बाद वह रातोंरात सारे जर्मनभाषी और अन्य यूरोपीय देशों की चहेती बन गई।
उसने बताया कि अपहरण के बाद शुरू के महीनों तक उसे घर के गैराज के नीचे एक तहखानानुमा कमरे में रखा गया। इस कमरे में एक भी खिड़की नहीं थी। घुटनभरे उन दिनों को याद करते हुए नताशा की पलकें बार बार गीली हो जा रही थीं। बाद के सालों में नताशा की जरूरतों के हिसाब से इसमें बदलाव किए गये। जून 2005 के बाद वोल्फगांग प्रिकोपिल ने नताशा को बगीचे में टहलने की इजाजत दी जहां अभी कुछ ही दिन पहले नताशा ने गुलाब के पौधे लगाए हैं। फरवरी 2006 के बाद एक दफे उसे बाजार में जाने का मौका मिला।
नताशा और प्रिकोपिल के संबंध की विचित्र विडम्बना यह भी थी कि प्रिकोपिल ने बाकायदा नताशा को तमाम किताबें मुहैय्या कराईं और उसे शिक्षित किया। प्रिकोपिल के घर में कैद होने के कुछ सालों बाद नताशा को टीवी पर कुछ खास शिक्षाप्रद कार्यक्रम देखने की अनुमति थी। इस एक तरह के अनुशासित जीवन का असर उसकी विशुद्ध भाषा और शब्दक्षमता पर साफ देखा जा सकता था। वह अपनी आयु के बाकी युवक युवतियों से इस मायने में कहीं बेहतर बन कर सामने आई है। शब्दों के बुद्धिमत्तापूर्ण चयन के साथ साथ अपनी खुद की परिस्थिति और प्रिकोपिल की मनोदशा का आकलन करते वक्त जिस तरह की तकनीकी और चिकित्सकीय शब्दावली का उसने इंटरव्यू के दौरान इस्तेमाल किया वह अविश्वसनीय था। नताशा की मनःस्थिति का उसके इस वक्तव्य से अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह खुद को इस मायने में भाग्यशाली मानती है कि वह नशीली दवाओं शराब और खराब संगत से बची रही।
वोल्फगांग प्रिकोपिल जिसने उसे साढ़े आठ साल कैदी बना कर रखा उसकी आत्महत्या पर भी वह विचलित नजर आई हालांकि वह उसे पैरानोइया का शिकार एक अपराधी से अधिक कुछ नहीं समझती। प्रिकोपिल की आत्मा की शान्ति के लिए नताशा ने विएना के लाशघर में मोमबत्ती भी जलाई।
प्रिकोपिल ने उसे कई बार धमकी दी थी कि अगर उसने भागने की कोशिश की तो वह उसे और पड़ोसियों को मारकर खुदकशी कर लेगा। नताशा के अंततः भाग जाने पर उसने अपने एक दोस्त को फोन किया। इस दोस्त ने अपनी कार में उसे नोर्डबानहोफ तक लिफ्ट दी जहां कुछ ही पलों के बाद उसने अंडरगाउंड के नीचे आकर आत्महत्या कर ली। जाहिर है इस दोस्त के लिए यह एक विकट त्रासकारी घटना थी। नताशा इस व्यक्ति के लिए संवेदना प्रकट करना नहीं भूली न प्रिकोपिल की बूढ़ी मां के लिए। नताशा के वकील चाहते हैं कि प्रिकोपिल के घर और उसकी संपत्ति पर नताशा को उसका जायज अधिकार दिया जाए। यहां भी नताशा अपने मानवीय पहलू से सबको हकबका देती है। वह चाहती है कि प्रिकोपिल की मां अपना पूरा जीवन अपने बेटे के घर में काटे।
इंटरव्यू की शर्तों के मुताबिक नताशा से कोई व्यक्तिगत सवाल नहीं पूछे गए न ही वह इस बारे में किसी से बात करना चाहती है। इतने सालों तक नितान्त अकेला कैदभरा जीवन काटते हुए नताशा ने सारे उपलब्ध ज्ञान और सूचनाओं की मदद से एक महत्तम और उदार दृष्टिकोण विकसित कर पाने का आशातीत और असंभव काम कर दिखाया। एक डाक्यूमेंट्री में उसने मैक्सिको की गरीब औरतों की मार्मिक दुर्दशा देखी थी। अपने साक्षात्कारों इत्यादि से होने वाली आय को वह इन औरतों की सहायता के लिए खर्च करना चाहती है और साथ ही अफ्रीका के गरीब बच्चों के iल्ए एक ट्रस्ट भी बनाना चाहती है।
सनसनीखेज पत्रकारिता के इस समय में जिस मानवीयता और संवेदनशीलता के साथ समूचे मीडिया जगत ने नताशा की सहायता की वह दुनिया भर के अखबारों के लिए एक नज़ीर है। आस्ट्रिया के सबसे लोकप्रिय अखबार ‘दी क्रोनेन साइतुंग’ के लिए नताशा का साक्षात्कार करने के बाद मागार् स्वोबोडा लिखती हैं : “ वह एक मजबूत बहादुर स्त्री है। उसकी चपल आंखों में चमक है। वह बहुत छोटी सी है पर उसका उन्नत माथा उसे बड़ा और मजबूत बनाता है। वह ऊर्जा से भरपूर है और भविष्य के लिए बेकरार लेकिन वह इस कदर नाजुक भी है। मुझे उसे देखकर एक नन्ही तितली की याद आई।”
सिर्फ 42 किलो की नताशा का भार आठ सालों में जरा भी नहीं बढ़ा और उसकी लम्बाई कुल पन्द्रह सेन्टीमीटर बढ़ी लेकिन अपनी अदम्य जिजीविषा और साहस के चलते वह जिस कदर मजबूत और बुद्धिमान स्त्री बनी है वह देखकर विश्वास करने वाली बात है। ठीक यही बात यहां के मीडिया के बारे में भी कही जा सकती है।
नताशा के भविष्य को लेकर सारा यूरोप एकजुट है। कतिपय कारणों के चलते वह अपने मां बाप के पास नहीं जाना चाहती जो उसके अपहरण के पहले से अलग अलग रह रहे थे। एक अखबार ने उसके लिए आजीवन रोजगार और आवास आदि की गारंटी दी है। हर रोज उसके लिए नए नए तरीकों से धन जुटाया जा रहा है। 28 अगस्त को मीडिया को सार्वजनिक किए गए पत्र में वह मीडिया से साफ साफ कहती है “प्रेस ने मुझे मेरे व्यक्तित्व के बारे में बोले जा सकने वाले झूठों से बचाना चाहिए। और अनुचित व्याख्याओं से भी। मीडिया ने ‘हमें सब मालूम है’ वाली मनःस्थिति से बाहर आना होगा और मेरे प्रति सम्मान दिखाना होगा”।
हो सकता है इन शब्दों को लिखने में नताशा के वकीलों और मनोचिकित्सकों ने सलाह दी हो लेकिन मीडिया ने लगभग पवित्र अनुशासन के साथ नताशा की सहायता की।
क्या हमारे यहां ऐसा संभव होता ? - मैं असमंजस में हूं।
2 comments:
बेहतरीन आलेख!
ऐसे प्रसंग वाकई मन को बहुत संबल दिलाते हैं और कठिनाइयों से लडने का जज्बा भी पैदा करते हैं
नितिन बागला
thanx for this wonderful write-up Ashok. i cudn't get it anuwhere in hindi.
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