Wednesday, October 10, 2007

लड़कियां

(ये कविता मैंने अशोकदा की 'जब सोती होंगी सुंदर लड़कियां' सुनने के बाद खुंदक में आ कर लिखी थी सालों पहले, मतलब सालों पुराना कबाड़ निकाला गया है)

लड़कियों के लंबे बालों
और गुलाबी होंठों पर लिखी
कविता या गज़ल
बेमतलब नहीं होती
लेकिन बेमायनी हो जाती है तब
जब वो उलझ कर रह जाती है
लङकी की खूबसूरती पर
जब लड़कियां हँसती हैं
तो अच्छी लगती हैं
अक्सर कविता‌‌ऒं में
लड़कियों की खिलखिलाहट
पहाड़ी नदियों की मानिंद होती है
उसे सिरफ दो इंची मुस्कराहट के
मुलम्मे में मत ढक जाने दो
रोते हुए भी लड़कियां बुरी नहीं लगती
लेकिन उनका रोना अच्छा नहीं होता
रोने और हँसने के अलावा
सोच भी सकती हैं लड़कियां
ये बात अक्सर भुला दी जाती है
खुशियों और दुख को
वो भी परिभाषित कर सकती हैं
नई पत्तियों से उगते नए शब्दों में
अपने हिस्से की हवा में ढूंढती है खुशबू
धूप के चमकीले धागों से बुनकर सपने
उनमें जीना चाहती है वो
भुला दी जाती है ये बात
और जब भुला दी जाती है ये बात
तो अक्सर लड़कियां खुल कर हँस नहीं पाती।

5 comments:

Ashok Pande said...

भई वाह. भौब्बड़िया.

स्वप्नदर्शी said...

bahut achchi, dil kush ho gaya

शिरीष कुमार मौर्य said...

दीपा अब आपने जोरदार काम किया है।
मेरे चिपकाए उस कबाड़ से कितने पुराने सम्पर्क और स्मृतियां फिर से जी उठी हैं।
थोड़ी शाबासी का हकदार तो मैं भी हूं ही !
सीमा आपको याद करती है...........

Rajesh Joshi said...

क्या पटख़नी दी तूने इस कबाड़िए को, दीपा. वाह, वाह और सिर्फ़ वाह, वाह.

आशुतोष उपाध्याय said...

मगर हे कबािड़यो,
अशोक और दीपा की कविताएं परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि ही पक्ष की हैं। दोनों में स्त्रियों के प्रति परंपरागत नजरिए को लेकर नाराजगी साफ देखी जा सकती है। यानी दोनों ही कबाड़वादी खेमे के कवि हैं।