Thursday, November 8, 2007
कहाँ हो राजेश जो
कलकत्ता: ३०० साल
शहर बसाते वक़्त
यह नहीं सोचा गया
कि बेचैन पीढियां
जन्म लेंगी यहाँ
शर बसते वक़्त
यह भी नहीं सोचा गया
कि बच्चे हो जायेंगे
बुतशिकन ...
मिस्त्रियों को
यह मालूम नहीं था
कि एक नस्ल का
पेट चीरा जाएगा
दो सौ अस्सी साल बाद
अब युवाओं से
किसी को ख़तरा नहीं है
किशोर कक्षाओं में जाते हैं
और शासक कहते हैं :
यह एक मरता हुआ शहर है।
(कविता के बाद दो वाक्य। यह कविता बी बी सी की हिन्दी सेवा में कार्यरत हमारे अंतर्राष्ट्रीय कबाड़ी पत्रकार मित्र राजेश जोशी की लिखी हुई है। कब या कहाँ मैं नहीं जानता। पर जल्दी जल्दी पीले पड़ते चार खस्ताहाल कागजों में मैनुअल टाइपराइटर से थेची हुई हुई राजेश जो की तीन कवितायें मेरे पास अब भी महफूज़ रखी हुई हैं। कहीं भेजने छपाने के इरादे से इन्हें मैं कई बरस पहले उसके ग्रीनपार्क वाले घर से माँग लाया था। अब जाके अपनी दुकान खोली तो उस इरादे को बाकायदे अमली जामा पहना रहा हूँ। लेकिन मेरी पुकार अब भी वही है जो कई बरस पहले थी : कहाँ हो राजेश जो? हो कहाँ?" राजेश जोशी से इस पर्सनल रिक्वेस्ट के साथ कि कम लिखे को जादै समझना।)
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राजेश जोशी
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7 comments:
आपकी थेची हुई ने तो मूली का थेचुआ याद दिला दिया हो.
कलकत्ता जैसे शहर कभी नहीं मरते.
सही कहा, शहर नहीं मरते. कोई शहर मरता नहीं सुना. बस... उसकी तकदीर बदलती रहती है और उसकी हथेलियों पर हर बार नयी इबारतें उकेर दी जाती हैं. आने वाली नस्लों का भविष्य तय करने के लिए
राजेश जो की एक टीप एक दिन यहीं कहीं पढ़ी, तब से सन्नाटा है। उनकी यह कविता कमाल की है। नक्सल आंदोलन को कलकत्ता के संदर्भ से इतनी शिद्दत के साथ महाश्वेता, नवारुण और शंकर घोष ने ही याद किया है- लेकिन इसके लिए उन्हें बहुत सारे शब्द खर्च करने पड़े हैं।
चंदू लाला जी आपकी रद्दी कब मिलेगी? एहसान करो मालिक।
आज की ताज़ा ख़बर -- चंदू ने चुप्पी तोड़ी !!!
और
पंडा ने कबाड़खाने में सड़ी हुई कविताएँ बिखेर कर दुर्गंध फैलाई.
दाज्यू, क्या बात है, तुसी तो छा गए। लेकिन शर्म कीजिए आपकी कविताएं कागजों में दबी पीली पढ रही हैं वो भी किसी ओर के कागजों के बीच। अपनी न सही, जिस भावना ने कविता लिखने के लिए प्रेरित किया उसकी तो इज्ज़त करो। दिखा दो सबको कि आपके दिल में अब भी वही आग है, लिख डालो सब कुछ जो कहना चाहते हो..... डरो मत दाज्यू..... लिखो दाज्यू लिखो..... दाज्यू तुम संर्घष करो हम तुम्हारे साथ हैं..... सच्ची में ः)
रही मासूम रजा की एक नज्म का एक टुकड़A पेश है । भाई राजेष जोषी की कविता पढ़कर -
"न जाने कौन-सा अखबार था वह
किसी नेता का एक भाशण छपा था
कि कलकत्ता तो कबका मर चुका है
(कि षायद मर रहा है)
मुझे मिलता जो वह नेता तो पूछता इतना
कि भैया यह बताओ न
कि इस हिन्दोस्तां में, जन्नत विषां में
कोई जिन्दा नगर बस्ती
मुहल्ला
किस तरफ है ।"
हम सबके प्यारे राजेष अपनी चुप्पी तोड़ो , आलस्य छोड़O, हम तुम्हारा लिखा नया कुछ पढ़ने को बेताब हैं दोस्त ।
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