Tuesday, November 27, 2007

विएना में बीथोवेन के बहाने के. एल. सहगल से मुलाकात


(विएना डायरी से एक और अंश ...)
कई मायनों में लुडविग फान बीथोवन (1770-1827) एक अद्भुत रोमांटिक जीनियस थे जिन्होंने बाहरी तथ्यों और तर्कों से जरा भी प्रभावित हुए बिना अपनी रचनात्मक ऊर्जा और अन्दरूनी ताकत पर निर्भर रहना बेहतर समझा। `पवित्र´ समझी जानी वाली अपनी नौ सिम्फनियों के बूते पर वे अपने जीवनकाल में ही बहुत लोकप्रिय हो चुके थे - सही मायनों में वे पश्चिमी संगीत के पहले महानायक थे। अपने संगीत को तराशने का उद्यम उनके जीवन का प्रथम उद्देश्य था-पर वे बहुत बेचैन व्यक्ति थे। इसका प्रमाण है कि वे करीब तीस (या ज्यादा) घरों/मकानों में रहे।

इन्हीं में से एक है पास्कालाटी हाउस। इस घर में उन्होंने अपनी तमाम महान सिम्फनियों पर काम किया- अपनी चौथी, पांचवीं और छठी सिम्फ़नी उन्होंने यहीं पर पूरी कीं। वे सन् 1806 से 1808 तक इस घर में रहे। अपने इकलौते ऑपेरा `लियोनोरे´ (जिसे बाद में `फिडेलियो´ के नाम से ख्याति मिली) का सृजन भी उन्होंने यहीं किया।इस घर में रहते हुए ही वे धीरे-धीरे अपने स्वास्थ्य, साफ-सफाई और कपड़ों को लेकर बहुत लापरवाह हो चले थे और सनकी और चिड़चिड़े।
मोइलेकरबास्तेई-8 पर पांचवीं मंजिल पर तीन छोटे-छोटे कमरों वाला यह घर पाश्चात्य संगीत के मील के पत्थरों में गिना जा सकता है। बिल्कुल वीरान सी एक गली में घुसकर आप तीनेक सौ साल पुराना ज़ीना चढ़कर यहाँ पहुँचते हैं। यह एक राजकीय संग्रहालय बना दिया गया है अब। टिकट लेकर हम पहले कमरे में घुसते हैं - लकड़ी के फर्श वाले इस छोटे से कमरे के बीचोंबीच बीथोवन का पियानो रखा हुआ है। जुबैर उस पियानो को हौले से छूता है और साथ चल रही संग्रहालय की एक रिसेप्शनिस्ट से बार-बार पूछता है - क्या यही वो पियानो है जिस पर बैठकर बीथोवन ने अपने संगीत की रचना की थी? वह बार - बार सकारात्मक उत्तर देती है-उसकी आवाज में विचित्र सी ऊब भी है। मुझे अच्छा नहीं लगता-मैं बाकी कमरों में चला जाता हूँ - ये रही बीथोवन के हाथ की लिखावट, ये उसकी छठी सिम्फनी का छठा ड्राफ्ट, ये कुर्सी, ये मेज; दीवारों पर तस्वीरें हैं। एक तस्वीर बीथोवन की शवयात्रा की है। शवयात्रा के समय जैसे समूचा संगीतप्रेमी वियेना उमड़ आया था। भीड़ को नियंत्रित करने के लिये पुलिस और सेना की मदद लेनी पड़ी थी। लकड़ी के पुराने फर्श पर चलने से जूतों की चरमर होती है। दूसरे वाले कमरे की खिड़की से बाहर वियेना विश्वविद्यालय की पुरानी भव्य इमारत दिखाई देती है और दूर एक बड़े गिरजाघर का शिखर।

पांच मंजिल उतरकर हम वापस सड़क पर आते हैं और एक संकरी गली का रूख करते हैं जहाँ से तीखी ढाल वाली कोई चालीस सीढियां उतरकर बीथोवन शाम को टहलने जाया करते थे। तेज ठण्डी हवा चल रही है और पेड़ों से गिरे हुए पत्ते इधर-उधर उड़ रहे हैं। जुबैर कहता है उसे थर्राहट हो रही है इतने बड़े संगीतकार के इतने पास जाकर। मुझे इन सीढ़ियों पर उतरते हुए बार-बार मीर तकी मीर का शेर याद आ रहा है -


इस दश्त में अय सैल, सम्हल ही के कदम रख,
यां दफ़्न हर कदम पे मेरी तिश्नालबी है

बीथोवन अगर उर्दू शायरी करते होते तो शायद जुबैर से यही शेर कहते।
***

डोएबलिन्गर हॉप्टश्ट्रासे 92, पर एक छोटा सा मकान है जिसे अब एरोइका हाउस के नाम से जाना जाता है। सन् 1803 में बीथोवन ने ई-फ्लैट मेजर में यहाँ अपनी तीसरी सिम्फनी रची थी जिसे `एरोइका´ के नाम से ख्याति मिली। इस सिम्फनी ने बीथोवन को पश्चिमी संगीत में एक क्रान्तिकारी के रूप में स्थापित किया। शुरू में बीथोवन ने इसे नेपोलियन बोनापार्ट को समर्पित किया था पर 1804 में यह जानने के बाद कि नेपोलियन को फ्रांस का सम्राट घोषित किया गया है, बीथोवन ने यह समर्पण वापस ले लिया। इस बार हम वीडियो कैमरा लेकर आये हैं। संग्रहालय के रिसेप्शन पर बैठे सज्जन दबी जबान में हमें उसके इस्तेमाल की इजाजत दे देते हैं। दो कमरों के इस छोटे से अपार्टमेन्ट के बाहर एक छोटा सा बगीचा है। बगीचे में लगे एक पेड़ की तरफ इशारा करके संग्रहालय वाले सज्जन बताते हैं कि चार सौ साल पुराने इस पेड़ की छांह में बीथोवन ने गर्मियों की कई दोपहरें गुजारी थीं। अपार्टमेन्ट के भीतर कुछ फर्नीचर, कुछ तस्वीरें और बीथोवन की हस्तलिपि के चन्द नमूने हैं - बहुत ज्यादा कुछ नहीं। बाहर एक बेहद बूढ़ा आदमी लाल टोपी और सुर्ख लाल जैकेट पहले पत्तों को बुहार कर इकट्ठा कर रहा है। ठीक बगल के अपार्ट मेन्ट से एक महिला अपने कुत्ते के साथ बाहर निकलती है और हम पर एक उचटती हुई निगाह डालकर चल देती है।

जो भी हो वह बीथोवन के एरोइका हाउस की पड़ोसन तो है ही।

एरोइका हाउस में जी भर फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी के बाद हम रूख करते हैं प्रोबूसगासे 7 की तरफ जहाँ एक और घर है : बीथोवन ने अपने जीवन का एक अपेक्षाकृत निराशापूर्ण समय वहाँ बिताया था। उन्होंने अपने भाइयों को वहाँ से एक पत्र लिखा था जिसे हेलीगेनस्टेटर टेस्टामेन्ट के नाम से जाना जाता है। यह बात अलहदा है कि यह पत्र कभी भेजा नहीं गया। हेलीगेनश्टाट एक छोटा गाँव हुआ करता था जहाँ के पानी के स्रोतों में कई औषधीय गुण थे। अपने सार्वजनिक स्नानागारों के लिये विख्यात इस गाँव में 1750 के आसपास वियेना के धनाढ्य वर्ग ने छुट्टियाँ मनाने का प्रचलन चलाया। अपने बहरेपन का इलाज कर पाने की उम्मीद में बीथोवन यहाँ रहे थे। जब यहाँ आकर उन्हें निराशा ही मिली तो अपने घनघोर विषाद में उन्होंने अपने भाइयों को एक भावनात्मक पत्र लिखा। आज यह गाँव वियेना के उन्नीसवें डिस्ट्रिक्ट का हिस्सा है।

प्रोबूसगासे का यह छोटा सा दुमंजिला मकान बीथोवन की निराशा और अंधेरे भरे समय का गवाह है। बीथोवन अपने बहरेपन से जूझ रहे थे और संगीत रचना करने वाले का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि वह खुद अपने बनाये संगीत को न सुन सके।

यहाँ बीथोवन के व्यक्तिगत इस्तेमाल की कुछ चीज़ें, मृत्यु के बाद बनाया गया उनका मुखौटा और उनके बालों की एक लट सुरक्षित हैं- संगीत से सम्बन्धित कुछ तस्वीरें, कागजात और उपकरण भी प्रदर्शित किये गये हैं।

यहाँ एक बहुत जबरदस्त आदमी से मुलाकात हुई- जमील साहब करीब सत्तर साल के हैं और बीथोवन के इस घर के केयरटेकर हैं-यानी संग्रहालय के कर्मचारी। हमें देखकर वे पहले पूछते हैं- 'इण्डियन?'- हम लोग हाँ कहते हैं हालांकि जुबैर और बाबूभाई भारतीय नहीं हैं। फिर अपनी जर्मन में ही वे कहते हैं-'इण्डियन म्यूजिक?'- हम हामी भरते हैं। अपनी करीब-करीब शरारती आंखों से वे हमें देखते हुए कहते हैं- 'मुकेश ... रफी ...?'

बीथोवन के घर में रफ़ी और मुकेश का नाम!

फिर वे कहते हैं कि एक और गायक था पुराना-साइगेल। 'सहगल!' मैं पूछता हूँ. 'हाँ , हाँ, सहगल!' फिर अचानक वे कहते हैं- 'अच्छा, चलो बाई- अन्दर चलो'।

मैं उनको लेकर अब भी असमंजस में हूँ। भीतर एक जापानी लड़की हैडफोन लगाकर संगीत सुन रही है। हमारे पीछे-पीछे वे भी आ जाते हैं और खिड़की से बाहर नीचे एक छोटे से बगीचे की तरफ इशारा करके वह कुवाँ दिखाते हैं जिसमें औषधीय गुणों से परिपूर्ण पानी सामने के पहाड़ों से आया करता था। कैमरा चलाना है तो कोई दिक्कत नहीं- जमील साहब को कोई आपत्ति नहीं।बदकिस्मती से कैमरे की बैटरी खत्म हो गई है- हम उसे चार्ज करने की जुगत के बारे में सोचते हैं और बाबूभाई कहते हैं कि शायद जमील साहब इजाजत दे दें- उन्हें कोई आपत्ति नहीं। हमें उनसे थोड़ी देर बात करने का समय और मिल जाता है।

जमील साहब अफगानिस्तान से चालीस साल पहले यहाँ आकर बस गये थे। अब वे चौहत्तर साल के हैं और अकेले रहते हैं। जीवन-यापन के लिये यह नौकरी करना उनकी मजबूरी है। रोज सुबह नौ बजे यहाँ पहुचने के लिये वे छ: बजे तड़के अपना घर छोड़ देते हैं- फिर बस, ट्राम और अंडरग्राउण्ड बदलते-बदलते यहाँ आकर ताला खोलना, साफ-सफाई वगैरह। शाम छ: बजे छुट्टी होती है-फिर वही ढाई-तीन घंटे का वापस घर का सफर। हर रोज। यह सब बताते हुए उनकी आंखों में जरा भी आत्मदया नहीं है- वे अपने प्रकट खिलंदड़ेपन का आनन्द लेते हैं। मैं उनके परिवार के बारे में जानना चाहता हूँ पर वे उसका जवाब देने के बजाय संगीत को लेकर एक लतीफा छोड़ते हैं।

लतीफा इस तथ्य को जानने के बाद छेड़ा जाता है कि मेरे साथी बांग्लादेशी हैं। जमील साहब का लतीफा क्या है एक मजाकिया वक्तव्य भर है। वे कहते हैं- 'संगीत बंगाल में पैदा हुआ, हिन्दुस्तान में बड़ा हुआ, पाकिस्तान में बूढ़ा हुआ और अफगानिस्तान में जाकर उसकी मौत हो गई!'

फिर वे एक भरपूर ठहाका लगाते हैं और कहते हैं- 'अच्चा, चलो बाई! कैमरा!'

फुरसत के क्षणों में `मुगल-ए-आजम´ देखने और कुन्दन लाल सहगल सुनने वाले जमील साहब को हिन्दी के कुछेक जुमले याद आते हैं और आज उन्हें हमारे रूप में बढ़िया श्रोता मिले हैं। वे हमसे पोस्टरों के पैसे नहीं लेते और कहते हैं- 'हम सब भाई हैं ... ओ के, खुदाहाफिज़!'
... खुदा हाफिज़ जमील साब! ...

3 comments:

मुनीश ( munish ) said...

KYA BAAT HAI ! MAZA LA DIYA JI.

मुनीश ( munish ) said...

BHAI PAHAAD SAMBANDHI LEKHAN OR LEKHKO KO AP YAHAN BANAYE RAKHEN. MAIN TO KHAAS KAR YAHAN IS VASTE AATA HOON.APSE TASVEER CHHAPNE KA FIR AGREH HAI, KHAAS KAR PAHADON KI.

Vineeta Yashswi said...

bahut rochak lekh hai. par ke maza aa gaya...