Saturday, December 8, 2007

निदा फाजली की नज़्म: लफ़्ज़ों का पुल

मस्जिद का गुम्बद सूना है
मंदिर की घंटी खामोश
जुज्दानो मे लिपटे सारे आदर्शों को
दीमक कब की चाट चुकी है
रंग !
गुलाबी
नीले
पीले कहीं नहीं हैं

तुम उस जानिब
मैं इस जानिब
बीच में मीलों गहरा गार
लफ़्ज़ों का पुल टूट चुका है
तुम भी तनहा
मैं भी तनहा।

1 comment:

trinetra said...

Nida saheb hi kavita ko eisa samay de sakte hain, jab ki samay kisi ke paas hai nahin aur jinke pass hai, unke pass samvedana nahin. Tanhai sachmuch chautarfa hai.