Sunday, December 23, 2007

बधाई नरेन्द्र भाई

नफ़रत



देखो कितनी सक्षम है यह अब भी बनाए हुए अपने आप को चाक-चौबन्द -
हमारी शताब्दी की नफ़रत।


किस आसानी से कूद जाती है यह
सबसे ऊंची बाधाओं के परे।
किस तेज़ी से दबोच कर गिरा देती है हमें।
बाकी भावनाओं जैसी नहीं होती यह।
यह युवा भी है और बुज़ुर्ग भी।
यह उन कारणों को जन्म देती है
जो जीवन देते हैं इसे।
जब यह सोती है, स्थाई कभी नहीं होती इसकी नींद
और अनिद्रा इसे अशक्त नहीं बनाती;
अनिद्रा तो इस का भोजन है।
एक या कोई दूसरा धर्म
इसे तैयार करता है - तैनात।
एक पितृभूमि या दूसरी कोई
इसकी मदद कर सकती है - दौड़ने में!
शुरू में न्याय भी करता है अपना काम
जब तक नफ़रत रफ़्तार नहीं पकड़ लेती।


नफ़रत, नफ़रत
एन्द्रिक आनन्द में खिंचा हुआ इसका चेहरा
और बाकी भावनाएं -कितनी कमज़ोर, किस कदर अक्षम।


क्या भाईचारे के लिए जुटी कभी कोई भीड़?
क्या सहानुभूति जीती कभी किसी दौड़ में?
क्या सन्देह से उपज सकता है भीड़ में असन्तोष?
केवल नफ़रत के पास हैं सारे वांछित गुण -
प्रतिभा, कड़ी मेहनत और धैर्य।
क्या ज़िक्र किया जाए इस के रचे गीतों का?
हमारे इतिहास की किताबों में कितने पन्ने जोड़े हैं इस ने?
तमाम शहरों और फ़ुटबाल मैदानों पर
आदमियों से बने कितने गलीचे बिछाए हैं इस ने?


चलें: सामना किया जाए इस का:

यह जानती है सौन्दर्य को कैसे रचा जाए।
आधी रात के आसमान पर आग की शानदार लपट।
गुलाबी सुबहों को बमों के अद्भुत विस्फ़ोट।
आप नकार नहीं सकते खंडहरों को देखकर
उपजने वाली संवेदना को -
न उस अटपटे हास्य को
जो उनके बीच महफ़ूज़ बचे
किसी मजबूत खंभे को देख कर महसूस होता है।


नफ़रत उस्ताद है विरोधाभासों की -
विस्फ़ोट और मरी हुई चुप्पी
लाल खून और सफ़ेद बर्फ़।
और सब से बड़ी बात - यह थकती नहीं
अपने नित्यकर्म से - धूल से सने शिकार के ऊपर
मंडराती किसी ख़लीफ़ा जल्लाद की तरह
हमेशा तैयार रहती है नई चुनौतियों के लिए।
अगर इसे कुछ देर इंतज़ार करना पड़े तो गुरेज़ नहीं करती


लोग कहते हैं नफ़रत अंधी होती है।

अंधी?
छिपे हुए निशानेबाज़ों जैसी
तेज़ इसकी निगाह - और बगैर पलक झपकाए
यह ताकती रहती है भविष्य को
-क्योंकि ऐसा बस यही कर सकती है।


* नोबेल पुरुस्कार विजेता पोलिश कवयित्री विस्वावा शिम्बोर्स्का की एक और कविता।

6 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया रचना प्रेषित की है।धन्यवाद।

Reetesh Gupta said...

बहुत ही सुंदर रचना है...इसे हम तक पहुँचाने का शुक्रिया ....

अजित वडनेरकर said...

बहुत बढ़िया कविता है। ताकतवर, दमदार..

अफ़लातून said...

गजब । अमर कविता। सामयिक प्रस्तुति। अनुवादक कौन हैं ?

Bhupen said...

अरे अशोक दा, कविता चेपने के साथ ही अनुवादक के तौर पर अपना नाम भी दे देते तो अफलातून जी को सवाल पूछने की जहमत नहीं उठानी पड़ती. अफलातून जी मुझे पता है कि अनुवादक कबाड़ शिरोमणि का ही है. जल्द ही शिम्बोर्स्का की कविताओं के ढेर सारे अनुवाद भी किताब की शक्ल में दिखने वाले हैं. इंतज़ार कीजिए.

दिलीप मंडल said...

बढ़िया कविता, सुंदर अनुवाद, सही समय पर पोस्ट। बधाई।