उदयप्रकाशजी की सफदर हाशमी पर लिखी पोस्ट कबाड़खाने में पढ़ी। पुरानी यादें ताजा हो गईं। सफदर नहीं रहे यह सुना था शायद बीबीसी पर या किसी और माध्यम पर, ठीक से याद नहीं। सन्नाटा खिंच गया था। न तब इफरात एसटीडी फोन होते थे और मोबाईल जैसी चीज़ों की तो बात ही क्या। मै नवभारत टाइम्स के जयपुर संस्करण मे था तब। डेस्क की ड्यूटी के साथ ही शाम को रामनिवास बाग में रवीन्द्र भवन जाकर कल्चरल रिपोर्टंग करना मेरे शौकिया असाइनमेंट में शामिल था।
जयपुर में खूब थियेटर होता था तब। आज भी होता होगा। मगर सफदर की मौत पर कुछ नही हुआ। चटक कर एक तिलमिलाने वाली हैडिंग लगाई थी, रंगमंच ने खामोशी ओढ़ी...बड़ा बोल न मानें, मगर फिर जो पूरे सौ दिन तक सफदर का हल्ला बोल हम सभी साथियों ने खेला। नौकरी छोड़-छोड़ कर रोज़ इनोवेटिव रोल के लिए रवीन्द्र मंच पर पहुंच जाते ।
धरती बांटी ,सागर बांटा मत बांटो इन्सान को
सफदर की मौत के बाद शुरू हुई उस रंगमंचीय पहल को जयपुर वाले अब भूल गए होंगे मगर कृष्णकल्पित, अजंता चौधरी, अंजू ढ़ड्ढा मिश्र, डा सत्यनारायण , साबिर भाई , आलोक शर्मा, शकील अख्तर जैसे तमाम और दूसरे मित्र जो तब भी किसी न किसी रूप में मीडिया से ही जुडे थे और आज दिल्ली, जयपुर, भोपाल जैसे कोनों में अपना काम कर रहे हैं निश्चित तौर पर याद करते होंगे। देश भर में ऐसी अनूठी पहल नहीं हुई थी। पूरे सौ दिनों तक जयपुर के अलग-अलग इलाकों में हमने हत्यारे नुक्कड़ नाटक का प्रदर्शन किया था। साबिर भाई इसके निर्देशक थे, वे आज भी जयपुर में रंगकर्म कर रहे हैं। मुझे ध्यान आता है कि टीवी के व्यस्त कलाकार अनूप सोनी भी तब जयपुर में ही रंगकर्म में प्रवीण हो रहे थे।
उसके बाद हम लोग दिल्ली मे चल रहे आंदोलन में शामिल होने गए। मंडी हाऊस में बनाई गई मानव शृंखला में शामिल होने बालीवुड से भी लोग आए थे जिनमें शबाना, एके हंगल जैसे लोग खास थे।
आंदोलन लंबा चला था। पर मुझे यह भी याद है कि मेरी उस हेडिंग और राइटअप पर जो वहां के एक बड़े दैनिक के वरिष्ठ पत्रकार की प्रतिक्रिया क्या थी। वह थी - ये नाम तो कभी सुना नहीं, आप तो ऐसे हल्ला मचा रहे हैं जैसे ड्रामे का बड़ा आर्टिस्ट मर गया है। अब मैं उन्हें छोटे बड़े का क्या भेद समझाता। अलबत्ता आज तो उन्हें ये लिंक दे सकता हूं ताकि सफदर का सिर्फ शाब्दिक अर्थ वो जान सकें। - रंगमहल के दस दरवाज़े
3 comments:
माफ़ करना मित्रों, यह कमबख्त रामबहादुर अब भी मेरी स्मृति से मिटा नही है. सफ़दर के साथ मारा गया सर्वहारा मजदूर.
दोनों को मेरा सलाम !!
(कोई है जो याद रखेगा रामबहादुर को? वो नेपाली मजदूर जो मारा गया था!)
रामबहादुर की विगत विस्मृत स्मृतियों को नमन् । राजेश जी आपकी भावनाओं को सलाम।
इसमें कोई भूल-चूक , लेनी-देनी तो नहीं हुई न....
नही अजित भाई, बिल्कुल नहीं.
रामबहादुर की भी जान वैसे ही गयी जैसे सफ़दर की. उसी जगह, उन्हीं गुंडों के हाथों.
लेकिन पार्टी-लाइन से बंधे कुछ लोगों को बार बार याद दिलाना चाहता हूँ की "सर्वहारा की राजनीति" से सर्वहारा का नाम ही मिटा दोगे और फिर भी मानवता को मुक्त करने का दंभ पालोगे!!
इसीलिए जब जब और जहाँ जहाँ सफ़दर हाश्मी की शहादत की बात की जाती है, मैं हर उस जगह उस नेपाली मजदूर रामबहादुर को याद करता हूँ.
सफ़दर के नाम पर पहले दुकान खुली और अब वो दुकानें शापिंग मॉल्स मैं बदल गयी हैं.
इन दूकान वालों को रामबहादुर का नाम यज्ञ मैं विघ्न जैसा लगता है -- जैसे देवताओं के पवित्र अग्निकुंड मैं किसीने मांस का टुकडा डाल दिया हो.
आप की संवेदना का तो मैं कायल हूँ.
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