Thursday, January 3, 2008
सफ़दर की याद
साल के पहले ही दिन दो दोस्त हमसे दूर चले गये थे। सफ़दर १९८९ मे और जसविन्दर १९९६ मे। यह भी सच है कि मैने अशोक को बताया था कि मै अपना जन्म दिन नही मनाता। किसी कबाडी का कोई जन्म दिन होता भी नही। वी आर जस्ट बोर्न।
मै आज से १७ साल पहले लिखी गयी वह कविता आपके हवाले करता हू जिसमे सफ़दर के लियॆ हम सबका प्यार है। याद रखे अगर आज सफ़दर और जसविन्दर होते तो वो भी हमारे मोह्ल्ले या कबाड्खाने मे होते।
वे यहीं कहीं हैं
(1 जनवरी 1990 में सफदर हाश्मी की स्मृति मे लिखी गई कविता)
वे कहीं गये नहीं हैं,
वे यहीं कहीं हैं
उनके लिए रोना नहीं।
वे बच्चों की टोली में रंगीन बुश्शर्ट पहने बच्चों के बीच गुम हैं
वे मैली बनियान पहने मलबे के ढेर से बीन रहे हैं
हरी पीली लाल प्लास्टिक की चीज़ें
वे तुम्हारे हाथ में चाय का कप पकड़ा जाते हैं
अखबार थमा जाते हैं
वे किसी मशीन, किसी पेड़, किसी दीवार,
किसी किताब के पीछे छुप कर गाते हैं
पहाड़ियों की तलहटी में गांव की ओर जाने वाली सड़क पर वे हंसते हैं
उनके हाथों में गेहूँ और मकई की बालियां हैं
बहनें जब होती हैं किसी जंगल किसी गली
किसी अंधेरे में अकेली
तो वे साइकिल में अचानक कहीं से तेज़-तेज़ आते हैं
और उनके आसपास घंटी बजा जाते हैं
वे हवा का जीवन, सूरज की सांस, पानी की बांसुरी,
धरती की धड़कन हैं
वे परछाइयां हैं समुद्र में फैली हुईं
वे सिर्फ़ हडि्डयां और सिर्फ त्वचा नहीं थे कि मौसम के अम्ल में गल जाएंगे
वे फ़क़त ख़ून नहीं थे कि मिट्टी में सूख जाएंगे
वे कोई नौकरी नहीं थे कि बरखास्त कर दिये जाएंगे
वे जड़े हैं हज़ारों साल पुरानी,
वे पानी के सोते हैं
धरती के भीतर-भीतर पूरी पृथ्वी और पाताल तक वे रेंग रहे हैं
वे अपने काम में लगे हैं जब कि हत्यारे खुश हैं कि
हमने उन्हें ख़त्म कर डाला है
वे किसी दौलतमंद का सपना नहीं हैं कि
सिक्कों और अशिर्फयों की आवाज़ से वे टूट जाएंगे
वे यहीं कहीं हैं
वे यहीं कहीं हैं
किसी दोस्त से गप्प लड़ा रहे हैं
कोई लड़की अपनी नींद में उनके सपने देख रही है
वे किसी से छुप कर किसी से मिलने गए हैं
उनके लिए रोना नहीं
कोई रेलगाड़ी आ रही है
दूर से सीटी देती हुई
उनके लिए आंसू ना-समझी है
उनके लिए रोना नहीं
देखो वे तीनों - सफदर, पाश और सुकांत
और लोरका और नजरुल और मोलाइसे और नागार्जुन
और वे सारे के सारे
ज़ल्दबाजी में आएंगे
कास्ट्यूम बदल कर नाटक में अपनी भूमिका निभाएंगे
और तालियों और कोरस
और मंच की जलती-बुझती रोशनी के बीच
फिर गायब हो जाएंगे
हां उन्हें ढूंढ़ना ज़रूर
हर चेहरे को गौर से देखना
पर उनके लिए रोना नहीं
रोकर उन्हें खोना नहीं
वे यहीं कहीं हैं ......
वे यहीं कहीं हैं ।।
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4 comments:
पुरानी यादें ताजा हो गई। धन्यवाद उदय जी ।
माफ़ करना मित्रों, यह कमबख्त रामबहादुर अब भी मेरी स्मृति से मिटा नही है. सफ़दर के साथ मारा गया सर्वहारा मजदूर.
दोनों को मेरा सलाम !!
(कोई है जो याद रखेगा रामबहादुर को? वो नेपाली मजदूर जो मारा गया था!)
यह सवाल सर्वहारा और मज़दूरो के नाम पर सत्ता की राजनीति करने वालो से पूछा जाना चाहिये। लेकिन क्या बी.बी.सी. जसविन्दर को याद करती है, जो इसी १ जनवरी को गोआ के समुद्र मे डूब गया था?
नीरज पासवान
सफदर से जुड़ी मेरे बचपन की कुछ यादें हैं। मेरी उम्र तब आठ साल थी, जब सफदर हाशमी की हत्या हुई थी। तब इतनी समझ भी नहीं थी। पापा ने बताया, उनके काम और उनकी हत्या के बारे में। माला हाशमी के साथ उनका ग्रुप उसके बाद इलाहाबाद आया था, नुक्कड़ नाटक करने। पापा मुझे अपने साथ ले गए थे। औरत और राजा का बाजा की स्मृति अब भी बरकरार है। इतनी अच्छी कविता पढ़कर पुरानी ढेरों बातें याद हो आईं।
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