Tuesday, January 29, 2008

कुछ तो बात आगे बढ़ाओ यारो या स्यापा मुकाओ

दिलीप मंडल जी द्वारा शुरू की गई बहस अचानक कैसे रुक सी गई, मेरी समझ से परे है। मैं चाहता हूं इस पर बात आगे चले।

इष्ट देव सांकृत्यायन जी ने कहा कि :

हिन्दी भाषा का कुल इतिहास ही सौ साल का है। इसके पहले का जो हिन्दी साहित्य उपलब्ध है वह हिन्दी का नहीं, हिन्दी की डकैती का है. कबीर-रैदास-गोरख भोजपुरी के हैं, तुलसी-जायसी अवधी के, सूर-मीरा-रसखान आदि ब्रज के और विद्यापति मैथिल के. जब हिन्दी हिन्दी नहीं थी. टैब इन्ही लिंग दोषियों को मिल कर हिन्दी के साहित्य को रीढ़ दी गई और इनमें से कोई नुक्ता-उक्ता भी नहीं जनता था. आज अगर इन्हें हिन्दी से निकाल दें तो हिन्दी की फिर वही दशा होगी। असल में हिन्दी आज तक राजभाषा ही रह गई, राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई। इसकी वजह कुछ और नहीं, ऐसे ही सरकारी चमचों का हिन्दी का नीतिनिर्धारक होना है।

इस पर अनुनाद सिंह जी ने बहुत तर्कसंगत उत्तर दिया:

आपकी बाकी बातें ठीक हैं किन्तु यह कहना कि "हिन्दी का इतिहास केवल सौ वर्ष पुराना है" बहुत अज्ञानपूर्ण है। जब आप यह लिख रहें हैं तो आपके अचेतन मस्तिष्क में कहीं ये गलतफहमी है कि भोजपुरी, मैथिली आदि हिन्दी नहीं है। जरा दुनिया की कोई भाषा बताइये जिसकी उपबोलियाँ न हों। छोटा सा ब्रिटेन है, उसमें ही अंग्रेजी की दसों बोलियाँ हैं।दूसरी बात, जरा सोलहवीं शताब्दी की अंग्रेजी पढ़िये; क्या आपको समझ आ जायेगी? नहीं। हर भाषा समय के साथ बदलती है। हिन्दी भाषा इस दृष्टि से एक हजार वर्ष पुरानी है।रही बात भाषा में मिलावट की। एक छोटी सीमा तक ये ठीक है किन्तु जब मूल भाषा ही अल्पमत में आने लगे तो बहित बुरी बात है। इस प्रवृत्ति का विरोध होना ही चाहिये।वज्ञानिक दृष्टि से शोर और संगीत में कोई अन्तर नहीं है क्योंकि दोनो ही वायु के कणों के दोलन के परिणाम हैं। किन्तु कितने लोग मानेगे कि शोर और संगीत में कोई अन्तर नहीं है?

मेरी प्रतिक्रिया यह थी:

हिन्दी साहित्य के इतिहास पर अनुनाद सिंह जी की टिप्पणी से मैं सहमत हूं। भोजपुर-अवध-ब्रज और मिथिला के अलावा भी कई जगहों पर हिन्दी अपने अपने स्तरों पर विकसित होती रही है और हो रही है - (मिसाल के तौर पर उत्तराखंड के कुमाऊं में बोली जाने वाली खास लहज़े वाली हिन्दी की एक झलक मनोहरश्याम जोशी जी की 'कसप' जैसी रचनाओं में पाई जा सकती है। इसी कुमाऊं में गुमानी जैसा हिन्दी कवि "को जानै था विल्लायत से यहां फ़िरंगी आवैगा" जैसी भाषा बीसवीं सदी के पहले दशक में लिख रहा था।) और अनवरत विकसित होते जाने की प्रक्रिया ही किसी भी भाषा की लोकप्रियता और समृद्धि की पहली शर्त है।

अंग्रेज़ी के जिस रूप की तरफ़ अनुनाद सिंह जी ने ध्यान खींचा है उस पर कुछ बताया जाना ज़रूरी लगता है। १६वीं शताब्दी में जब अंग्रेज़ी अपने शैशव पर थी तब हमारे यहां तुलसीबाबा महाकाव्य रच रहे थे। क्या कारण रहा होगा कि अंग्रेज़ी लगातार दुनिया की सबसे लोकप्रिय और सम्पन्न भाषा बनती जा रही है और हम यहां हिन्दी भाषा के इतिहास और हिन्दी-उर्दू वगैरह से आगे नहीं बढ़ पा रहे!

अंग्रेज़ी दुनिया की सबसे लालची भाषा है इस लिये वह सबसे लोकप्रिय है। वह दुनिया भर की भाषाओं से शब्द और शब्द-समूह उधार लेने में कोई हिचक नहीं रखती। हिन्दी से इतर भारत की सारी ज़बानों के शब्द उस के शब्दकोश के हिस्से हैं और जापानी के भी। उसे तो कुरासाओ जैसे सूक्ष्म द्वीप की पापियामेन्तो भाषा से भी शब्द मांगने में शर्म नहीं आती। और अब जब हमारे यहां हिन्दी-उर्दू के मेलजोल से बनी जिस तरह की भाषा समाज में जज़्ब हो जानी चाहिए थी, उस पर अभी भी विचित्र (कम से कम मुझे वे विचित्र लगती हैं) बहसें चला करती हैं। कबीर-रैदास-गोरख-तुलसी-जायसी सूर-मीरा-रसखान और विद्यापति को याद करते हुए अगर आप नज़ीर, वली, मीर, ग़ालिब फ़िराक़ का ज़िक्र नहीं करेंगे तो आप ऐसी हिन्दी की बात कर रहे होंगे जो सिर्फ़ किताबों में पाई जाती है।

हिन्दी और उर्दू लगातार एक दूसरे से मिलाकर बोले जाते रहे हैं और हमारे पुरखे उस आलीशान मिश्रण की गरिमा और शालीनता बनाए रखना जानते थे और जिसे हमारे समकालीन शायर बशीर बद्र 'वो इत्रदान सा लहज़ा मेरे बुज़ुर्गों का' कह चुके हैं। अभी मैंने फ़हमीदा रियाज़ का एक उपन्यास खत्म किया है और यकीन मानिए उस में इस सादगी और संयम के साथ हिन्दी के ऐसे ऐसे मीठे और शानदार शब्दों का प्रयोग किया गया है कि आपको लगता ही नहीं कि आप उर्दू की किताब पढ़ रहे हैं। पाकिस्तान में आज तक किसी ने उर्दू की रचनाओं में शास्त्रीय हिन्दी के शब्दों के प्रयोग को लेकर ऐतराज़ किया हो, ऐसा कोई वाकया मेरे जेहन में नहीं है। मेरा तो यह मानना है कि हिन्दी और उर्दू के प्रयोग को लेकर उपजी बहसों के पीछे कहीं न कहीं हमारे अवचेतन में अंग्रेज़ी का बढ़ता प्रसार रहा है। और वह भी नकली नफ़ासत से लिथड़ी अधकचरी अंग्रेज़ी का जिसे महानगरों के बड़े स्कूलों में बोलते बोलते रईसों के बच्चों ने भारत के नए मीडिया की बुनियाद रखी। जब देखा गया कि असल मार्केट हिन्दी का है तो उस के बाद ... । दिक्कत उस के बाद ही शुरू हुई है। हिन्दी न जानने वाला बॉस जब हिन्दी लिखवाता है या उसे करेक्ट तरीके से लिखने के लिए ज़ोर देता है, इस बारे में मीडिया से जुड़े दोस्त ज़्यादा व्यक्तिगत अनुभव बांट सकते हैं और हम सब जानना चाहेंगे कि असल में क्या होता है कि हिन्दी चैनलों के दर्शकों के हाथ हिन्दी का सबसे पलीत और निखिद्द संस्करण लगता है। क्या कई बार नौकरी बचाने की विवशता तो ऐसा नहीं कराती। पता नहीं, इस बारे में मैं कभी कुछ नहीं कह पाता। मेरे खुद के बड़े पक्के पक्के यार जो एक ज़माने में राबर्ट पिर्सिग की नई किताब को पा और पढ़ लेने के बाद महीनों बौराये फ़िरते थे, आज किताब का ज़िक्र आने पर 'राग दरबारी' के एक मास्टर का सा भाव मुंह पर ले आते हैं कि 'जी घिन्ना गया किताबों से साहब'। ये पक्के यार बड़े चैनलों में ऊंची नौकरियां करते हैं और साल-दो साल में होने वाली मुलाकातों में "वापस पहाड़ आकर" लिखने-पढ़ने में बुढ़ापा काटने के महान प्रयोजन हेतु मुक्तेश्वर-रामगढ़ में प्लाट खोज देने का ज़िम्मा दे जाते हैं। अस्तु, इस बारे में कम लिखे को कम ही पढ़ा जाए।

हिन्दी और उर्दू की नुक्ताचीनी पर मैं इरफ़ान की बातों से सहमत हूं और सीखने का हिमायती हूं। आपको नुक्ता लगाना नहीं आता तो सीखा जा सकता है। दिलीप भाई की पिछ्ली पोस्ट पर अजित वडनेरकर जी ने शब्दकोशों की महत्ता को चिन्हित किया है और यही बात इरफ़ान भी कहते हैं।

सही भाषा लिखे-बोले जाने की ज़रूरत हमेशा रही है। वर्षों से सार्वजनिक स्थानों पर गलत लिखी और सही जाती हिन्दी भाषा को बचाने का काम कई स्तरों पर जारी है लेकिन ये प्रयास नगण्य हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे बच्चों या उन के बच्चों के पास जो हिन्दी पहुंचेगी उस में खूब मिठास होगी और खूब खुलापन भी होगा।

मैं जल्द ही एक पोस्ट लगाने वाला हूं जिस में आपको बताया जायेगा कि आत्म मोह के दलदल में आकंठ डूबे हमारे महान हिन्दी साहित्य समाज में किस किस तरह के अकल्पनीय प्रयोग किए जा रहे हैं ताकि हिन्दी की जितनी जल्दी हो ऐसी की तैसी फेरी जा सके।

एक छोटा सा कमेन्ट जन सेवक सर के लिए भी था :

जन सेवक जी की बात मेरी समझ में कतई नहीं आई. अलबत्ता उस में सायास प्रयोग किए गए अंग्रेज़ी शब्दों में एक 'ग्रामर' की 'स्पैलिंग' गलत है. ऐसा यहां इस लिये लिख रहा हूं कि 'ग्रामर' की गलत स्पैलिंग लिखने पर मुझे छ्ठी क्लास में मार पड़ी थी: स्कूल में भी और घर में भी.

अस्तु, यहां भी कम लिखे को कम समझा जाए, ऐसी मेरी प्रार्थना है।

*यहां जिन जिन टिप्पणियों का सन्दर्भ दिया गया है, उन्हें दिलीप मंडल जी की पोस्ट पर देखा जा सकता है।

3 comments:

Third Eye said...

अशोक पांडे जी,

अच्छा तो आपको ग्रामर की सही स्पैलिंग आती है. आपने मेरी टिप्पणी में हिंदी वर्तनी की गलतियों पर ध्यान क्यों नहीं दिया?

यही वो गूढ़ प्रश्न है जिसका उत्तर जाने बिना भाषा पर चलने वाली सभी बहसें बेमानी साबित होंगी.

आपने 'सच्ची मुची' को दुरस्त करते हुए सच्ची मुच्ची नहीं लिखा. आपने सिर्फ ग्रामर की स्पैलिंग गलत होने पर ही जोर दिया.

देखा जाए तो बात बहुत छोटी है लेकिन विश्लेषण करेंगे तो असली बात निकल आएगी.

मैं तो आपके बारे में नहीं जानता, लेकिन ऐसा लगता है कि आपके गाँव में अंग्रेजी का अब भी हव्वा है और थोड़ा बहुत अंग्रेजी जानने वाले आप अकेले व्यक्ति वहाँ हैं. आपको अच्छा भी लगता होगा कि गाँव के बच्चे कहते हैं कि देखो अशोक भाईसाहब को अंग्रेजी भी आती है.

बात यही है. यही मूल मंत्र है. समस्या की जड़ यही है, जिस पर मैं आप सबका ध्यान कब से खींचने की कोशिश कर रहा हूँ. अब जो मैं लिखने जा रहा हूँ उस बात पर कृपया ध्यान देना अशोक पांडे जी और अगर हो सके तो दिलीप मंडल भाई भी.

1- जब हम गलत हिंदी लिखते या बोलते हैं तो उसे कूल समझा जाता है.
2- जो भाषा के भ्रष्ट इस्तेमाल की ओर ध्यान खींचता है उसे कूपमंडूक और विघ्नसंतोषी बताया जाता है.
3- कहा जाता है कि भाषा तो बहता पानी है, उसे शुद्ध बनाने वाले ही भाषा के दुश्मन हैं.
4- मेरी जिस चलताऊ टिप्पणी में आपने ग्रामर की स्पैलिंग गलत होने की बात कही है उसीमें हिंदी के छह शब्दों की स्पैलिंग भ्रष्ट है. लेकिन आपने उधर ध्यान नहीं दिया.
5- धयान इसलिए नहीं दिया क्योंकि हिंदी की गलतियाँ हैं ना यार. सब चलता है. हिंदी तो अभी आकार ग्रहण कर ही रही है. ये सब तो होगा.
6- गलती अंग्रेजी में नहीं होनी चाहिए क्योंकिः
अ) वह साहबों की भाषा है, ब) वह पढ़े लिखों की भाषा है, स) अंग्रेजी में गलती वही करता है जो अनपढ़ या पिछड़ा होता है, जो अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में नहीं पढ़ा होता है, अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में इसलिए नहीं पढ़ा होता क्योंकि उसके माता पिता गरीब होते हैं.
7- अंग्रेजी के किसी उपसंपादक से पूछिए कि गलत भाषा का इस्तेमाल करने वाले को किस नजर से देखा जाता है.
8- हिंदी लिखने वाले को बाकायदा समझाया जाता है (और समझाने वाले अब वही लोग हैं जिनके माता पिता गरीब थे और उन्हें कॉन्वेंट नहीं भेज सके) कि गलत लिखो, गलत बोलो. इसे बौद्धिक जामा पहनाने के लिए कहा जाता है -- सड़क की भाषा बोलो यार.

मेरा नतीजाः मैं समझता हूँ कि हिंदी बरतने वाले एक तो अंग्रेजी के भौकाल से निकलें. हिंदी को लेकर हीनग्रंथि न रखें और ये भी न समझें कि अगर उन्हें अंग्रेजी आती है तो वो साहब हो गए या फिर साहब जैसे हो गए.

कोई गलतफहमी न हो इसलिए जोर देकर कहना चाहता हूँ कि -- अंग्रेजी सीखें. जरूर सीखें और साहित्यिक अंग्रेजी सीखें. लेकिन हिंदी में बेबात अंग्रेजी सिर्फ ज्ञान बघारने के लिए न डालें, जरूरत हो तभी डालें.

आप सभी बहुत विद्वान लोग हैं. उम्मीद रखता हूँ कि मेरी इस टिप्पणी को निजी हमला नहीं माना जाएगा. उम्मीद तो ये भी करता हूँ कि कबाड़खाने का कोई सदस्य इसे बाकायदा एक स्वतंत्र पोस्ट की तरह प्रकाशित भी करेगा.

लेकिन साहब, आपका ब्लॉग. आप मालिक हैं.


पोस्ट में मेरी टिप्पणी का ज़िक्र है इसलिए लिख रह हूँ.

Apparently हिन्दी में एक saying है.. सब धान बाईस पसेरी.. आप ने वाही कर दिया.... दिलीप कुमार को happy birth day कहने पर objection raise करने वाला में ही था. लेकिन आपने मुझे उन लोगों के rank में put कर दिया जो language fanatic हैं. what I mean is that यार तुसी समझते हो न की this hindi fundamentalism is you know चलने वाला नही है. you are right... language को river के माफिक flow करने देना चाहिए... but you know... पुराने type की thinking hold करने वाले एकदम stupid बात करते हैं. After all हिन्दी को इस globalised world में survive करना है या नही?

Dilip, you are a genius. नही सच्ची मुची... jokes apart. Oh, by the way, who cares about लिंग भेद यार. as long as आप अपनी बात explain कर सकते हैं... किसे फुरसत है without any reason हिन्दी के grammer का रोना रोये... I mean, you know... why bother !!

And believe me you, में ख़ुद यही मानता हूँ, अगर हमारे आपके जैसे लोग language को open up .... your know.. open up नही करेंगे, ताब तक these hindi walas will not learn.

Keep it up, buddy.

मुनीश ( munish ) said...

इस सारीबहस का कुल जमा सुंदर परिणाम ये रहा के एक अनाम टिप्पणीकार ने अपना नाम जनसेवक होना स्वीकार किया बताते हैं .मैं बालपन मे संस्कृत का तालिब रहा जिसमे कहा गया है कि:वादे जायते सत्यम अर्थात वाद-विवाद से सत्य निकल ही आता है ! secret revealed ha...ha...ha..!!

अजित वडनेरकर said...

बढ़िय है अशोक भाई। भाषाओं के रक्षक कभी शब्दों के खजाने पर ताला डालकर नहीं बैठते बल्कि शब्दों की तिजौरी तो बिना ताले की होती है। यहां तो हर आगत का स्वागत होना चाहिए।
जनसेवकजी की टिप्पणी भी जोरदार है। इसे स्वतंत्र पोस्ट की तरह लगवा दीजिए भाई।