ब्लॉग और भाषा का जनपक्ष पोस्ट पर कई टिप्पणियां आई हैं। इन टिप्पणियों को एक साथ रखने का मकसद ये है कि बहस आगे बढ़े। इस बहस में हम सबके लिए कुछ न कुछ है। वैसे भाषा तो बहुत मनमाने तरीके से बहती है। कभी कोई कोई किनारा तोड़ देती है, तो कभी रास्ता बदल लेती है तो कभी अंत:सलिला बन जाती है। कभी संस्कृत बनकर पोथियों में दम तोड़ देती है तो कभी लैटिन बनकर शास्त्रीय तो हो जाती है फिर लोक से नाता जोड़ते ही पहले तो वल्गर लैटिन बन जाती है आगे चलकर कई यूरोपीय लैंग्वेज फॉर्म में तब्दील हो जाती है। खैर, शामिल हो जाइये इस बहस में। इस बहस में मेरा पक्ष इतना सा है कि शास्त्रीय भाषा, शुद्ध भाषा के साथ लोक और "अशुद्ध" को भी जीने का अधिकार मिले। और ब्लॉग पर तो इस अधिकार को मांगने की जरूरत भी नहीं है।
-दिलीप मंडल
भाषा की शुद्धता और अशुद्धता से कहीं ज्यादा जरुरी है भाषा मे मिठास होना।
इष्ट देव सांकृत्यायन said...
हिन्दी भाषा का कुल इतिहास ही सौ साल का है. इसके पहले का जो हिन्दी साहित्य उपलब्ध है वह हिन्दी का नहीं, हिन्दी की डकैती का है. कबीर-रैदास-गोरख भोजपुरी के हैं, तुलसी-जायसी अवधी के, सूर-मीरा-रसखान आदि ब्रज के और विद्यापति मैथिल के. जब हिन्दी हिन्दी नहीं थी. टैब इन्ही लिंग दोषियों को मिल कर हिन्दी के साहित्य को रीढ़ दी गई और इनमें से कोई नुक्ता-उक्ता भी नहीं जनता था. आज अगर इन्हें हिन्दी से निकाल दें तो हिन्दी की फिर वही दशा होगी. असल में हिन्दी आज तक राजभाषा ही रह गई, राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई. इसकी वजह कुछ और नहीं, ऐसे ही सरकारी चमचों का हिन्दी का नीतिनिर्धारक होना है.
एक बात और. जो लोग कहते हैं कि बिहार या यूपी या कहीं और वालों का लिंग कमजोर होता है तो उससे तुरंत यह सवाल करें की उसने इस्तेमाल करके देखा क्या? आखिर ऐसे कोई कुछ कैसे कह सकता है!
हिन्दी का नेट संस्करण रचा जा रहा है और हम इसके साक्षी है.
भाषा या भासा तो बहता पानी है, बहेगा...ही.
आपकी बात को उचित संदर्भ में समझने की कोशिश कर रहा हूँ उसी तरह जैसे आपने मेरी बात समझी होगी. भाषा के लोकपक्ष के समर्थन में आपकी बातों से उन्हें भी शक्ति मिलेगी जो अपनी मूर्खताओं को दार्शनिक जामा पहनाना चाहते हैं, इस ख़तरे से में अवगत हूँ. अगर हमारे लालन-पालन में और शिक्षण में कोई कमी है तो हम अपने बच्चों को उसका शिकार नहीं बनने देना चाहते और बच्चे ही क्यों, मौक़ा लगते ही अपनी कोशिशों से उस किये को अनकिया करना चाहते हैं.सीखना तो एक प्रक्रिया है जिसे उदाहरण के लिये अंग्रेज़ी का बरताव करते हुए जी जान से अपनाते हैं. मैं लोकभाषा के बारे में कुछ कहने के लिये ख़ुद को बहुत छोटा समझता हूँ और हर तरह की लोक अभिव्यक्तियों का सम्मान करता हूँ.
मुझे बताइये कि ख़लीफ़ाओं से जुडे ख़िलाफ़त शब्द को जब आप विरोध के अर्थ में प्रयोग करते हैं तो अर्थ बदलता है या नहीं? जब आप ख़ुलासा को खोलकर बताने के लिये काम में लाते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि खोल को आप ख़ोल से गड्डमड्ड कर रहे हैं.
एक मोटा अंतर यह है कि कल तक लोग "प्रसारकों से" सीखा करते थे कि कैसे बोला जाय और प्रसारक इस ज़िम्मेदारी को समझते हुए अपनी तैयारी करते थे,आज प्रसारक "लोगों से" से सीखते हैं कि वे कैसे बोलते हैं क्योंकि अपनी तैयारी के लिये न तो उनमें इच्छाशक्ति है और न ही उसका माहौल. क्या आप भी कुएँ में गिरे आदमी को कुएँ में गिरकर निकालने के समर्थक हैं?
आइये इस ज़िम्मेदारी को समझें कि लोग हमसे सीखते हैं और इसके लिये हमें थोडा परिश्रम करना होगा. मैं ख़ुद जिस क़स्बे में पैदा हुआ वहाँ से किश्त, ग़ुफ़ा, सफ़ल और ग़ज़ जैसी बुराइयाँ लाया था लेकिन समझने के क्रम में मैंने इन्हें ठीक किया.
इरफ़ान भाई , मैं सीखने के लिये तैयार हूँ.शागिर्द बनायेंगे क्या?
आपका सही नाम लिखना तो सीख ही लिया. ;-)
दिलीप जी, आपकी बात से मै सहमत हू। हिन्दी एक बनती हुई भाषा है। इसका अभी स्थिरीकरण नही हुआ है। विकासशील जीवित भाषाओ का स्थिरीकरण होता भी नही है। मै खुद छ्त्तीसगढ के सीमान्त के एक गाव से हू। ६ से ८ दर्ज़े तक 'गलत हिन्दी' लिखने के लिए हमारे नम्बर काटे जाते रहे। हमे दण्ड मिलता रहा। बाद मे हमने जाना कि अरे ये तो खडी हिन्दी के भीतर भी 'कोलोनीज़' है। साहित्य मे आकर तो यह पारदर्शी आईने जैसा साफ़ हुआ। 'शुद्ध हिन्दी' लिखना और 'एक स्थिरीक्रित' 'मानकीक्रित' या फिर काशी-प्रयाग-उत्तरकाशी के 'महामण्डलेश्वरो'द्वारा निर्धारित 'हिन्दी' लिखना, और इसके बरक्स अपनी 'मात्रिभाषा हिन्दी' लिखना...अलग-अलग मुद्दे है। इतनी सहजता से इस बहुत गम्भीर मुद्दे को उठाने के लिए बधाई।
आप की सब बातें जायज़ है पर साथ-साथ इरफ़ान की चिंताएं भी.. उन्होने परिश्रम करके अपने को ठीक किया है.. मैं खुद भी लगातार अपने हिज्जों और नुक़्तों को लेकर सचेत बने रहने की कोशिश करता हूँ और मानता हूँ कि जो भी ज़िम्मेदारी के स्थानों पर हैं वे भी इसे समझें.. नहीं तो एक मधुर भाषा की मधुर ध्वनियों को खोकर नुक़सान हमारा ही होगा..
दीलीप जी तर्क और कुतर्क लगभग हर चीज़ के दिए जा सकते है। अपने जीवन मे बहुत कुछ हम स्व -अभ्यास से सीखते है, अपने आस-पास लोगो को सुनकर सीखते है, रेडियो- टीवी से भी सीखते है, और दूनिया भर की किताबो से भी। फिर इस सीख-सीख कर कभी इस लायक भी हो जाते है कि ज्ञान के सागर मे एक बूँद खुद भी मिला दे। स्कूल से, या कोलेज से सिर्फ बुनियादी शिक्षा मिलती है, या कहे तो एक मतलब मे साक्षर हो जाते है, शिक्षा जीवन के विभिन्न आयामों से जीवनभर हमारे चाहे-अनचाहे चलती रहती है। भाषा की शिक्षा भी इसके इतर नही है, इसे भी लागातार साधना पड़ता है, शब्दावली मे लगातार नए शब्द भरने पड़ते है. प्रवाह का ख्याल, नया ट्रेंड के शब्द, नए उच्चारण, ये सब भी स्कूल के बहुत आगे जाते है। फिर नुक्तों का इस्तेमाल को भी इसी सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा क्यो ना माना जाय। उर्दू के शब्द, संस्कृत के शब्द, देशज भाषाओं के शब्द, अंग्रेजी के शब्द, सभी से मिल कर हिन्दी बनी है। पर बहुत से देशज शब्द संस्कृत और उर्दू और अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों की टांग तोड़कर बने है।
खासतौर पर अगर सरल, सुगम, और सही शब्द है तो कम से कम लिखने वालों को उन्ही को इस्तेमाल करना चाहिऐ। कम से कम उन लोगो को जो लिखने-पढने के काम से रोटी खाते है। उद्दहरण के लिए, लगभग सारी हिन्दी पत्ती के देहाती, समय के लिए "टेम" बोलते है, हमारे पास सही शब्द वक़्त और समय दोनो है ।
इसी तरह सिगरेट अंग्रेजी से है, पर उसकी खोज भी अंग्रेजो ने ही की, उसके लिए 'धूम्रदंडिका' कहना फ़जूल है।
इसी तरह का शब्द है, 'चिरकुट' जो अवधी का है पर बड़ा उपयोगी।
हर चीज़ को अच्छा बनाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है, फिर पत्रकारों, लेखकों से ये उम्मीद क्यो न की जाय?
पोस्ट में मेरी टिप्पणी का ज़िक्र है इसलिए लिख रह हूँ.
Apparently हिन्दी में एक saying है.. सब धान बाईस पसेरी.. आप ने वाही कर दिया.... दिलीप कुमार को happy birth day कहने पर objection raise करने वाला में ही था. लेकिन आपने मुझे उन लोगों के rank में put कर दिया जो language fanatic हैं. what I mean is that यार तुसी समझते हो न की this hindi fundamentalism is you know चलने वाला नही है. you are right... language को river के माफिक flow करने देना चाहिए... but you know... पुराने type की thinking hold करने वाले एकदम stupid बात करते हैं. After all हिन्दी को इस globalised world में survive करना है या नही?
Dilip, you are a genius. नही सच्ची मुची... jokes apart. Oh, by the way, who cares about लिंग भेद यार. as long as आप अपनी बात explain कर सकते हैं... किसे फुरसत है without any reason हिन्दी के grammer का रोना रोये... I mean, you know... why bother !!
And believe me you, में ख़ुद यही मानता हूँ, अगर हमारे आपके जैसे लोग language को open up .... your know.. open up नही करेंगे, ताब तक these hindi walas will not learn.
Keep it up, buddy.