Thursday, January 17, 2008

लुधियाने की लड़की

इस कविता को किसी भूमिका की दरकार नहीं है । फ़क़त इतना ही बताना चाहूंगा कि ये मेरी उस थाती का हिस्सा है जिसे मैने बड़े जतन से संजोया है और ये सिलसिला जारी है। इसे सुरक्षित रखने की खातिर मैं अपनों से भी बुरी तरह झगड़ने लगता हूं। जगतार पपीहा साहब की यह रचना ज्ञानोदय के अक्तूबर 1961 के अंक से ली गई है यानी मेरे जन्म से भी पहले की है। काफी जर्जर अवस्था में है यह अंक। इस कविता को पढ़ें और देखें कि इसमें क्या आपको आज की दिल्ली नज़र आती है ? लुधियाने की लड़की की चिंताएं अपनी जगह वाजिब हैं मगर मुझे ये सोचकर बड़ा
अच्छा लग रहा है कि देर रात आने वाले पति के साथ उसके दोस्त के बारे में सिर्फ दिमाग मे कूड़े वाली चिंता ही लड़की को परीशां कर रही है कोई और नहीं। सच कह रहा हूं न.....?




लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है

अकेली इंडिया गेट तक घूमने कैसे जाए
अकेली बाजार से साग -सब्जियां कैसे लाए
अकेली सारा दिन कैसे रहे एक कमरे में बंद
अकेली कैसे ढोलक पर गीत गाए
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है

शौहर दस बजे रात को दफ्तर से आता है
अक्सर ही साथ में दोस्त कोई लाता है
करता रहता है मोटी किताबों की भारी भारी बातें
इतना कूड़ा दिमाग में कैसे समाता है
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है

इतनी तेज़ी में कहां भागते हैं सड़को पर इतने लोग
जीवन में मिलता नहीं, कहीं रुकने का संयोग
टैक्सी के नीचे एक बूढ़ी औरत दब जाती है
मौत ही दवा है, इतना कठिन है शहर का रोग
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है

आओ, आज घर में ही बैठो, कुछ बात करें
टप्पे गा-गाकर आंगन में फूलों की बरसात करें
लोग पागल कहेंगे, कहे, अपना क्या बिगड़ता है
गीतों की शादी रचाएं, प्यार की बारात करें
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है

-जगतार पपीहा

1 comment:

अनिल रघुराज said...

जबरदस्त कविता है। खासकर आखिरी पद।

आओ, आज घर में ही बैठो, कुछ बात करें
टप्पे गा-गाकर आंगन में फूलों की बरसात करें
लोग पागल कहेंगे, कहे, अपना क्या बिगड़ता है
गीतों की शादी रचाएं, प्यार की बारात करें
लुधियाने की लड़की बहुत परीशान है।।

वैसे रब्बी शेरगिल ने जुगनी करके एक गाना गाया है जिसमें भी कुछ इसी तरह के भाव हैं।