दिलीप मंडल ने कुछ समय पहले मोहल्ले पर अपनी एक पोस्ट में इस भय को अभिव्यक्ति दी थी कि कहीं हिन्दी साहित्य वाला रोग ब्लॉग को न लग जाए। इधर उसके बाद इस ब्लॉग जगत में जो जो कुछ हुआ है वह दिलीप मंडल को महसूस हुए आसन्न भय से भी ज़्यादा डरावना है और मुझे यह स्वीकार कर लेने में बहुत शर्म महसूस हो रही है कि जिस हिन्दी साहित्य की कुकुरगत्त करने में आत्ममोह में आकंठ डूबे चुनिन्दा रचनाकार-आलोचकों की सेना को सवा शताब्दी से अधिक समय लगा था, उसकी टक्कर का महाकार्य करने में ब्लॉगवीरों की एक जमात ने कुछ महीने भर लिए। यानी रसातलयात्रा अभी और आगे तक जारी रह सकने की भरपूर गुंजाइश है।
आज इरफ़ान, अविनाश और सुजाता और कुछ अन्य लोगों की पोस्टों में इस महाकार्य से उपजी खीझ की तार्किक और आवश्यक परिणति है। भड़ास नाम का ब्लॉग के प्रमुख मॉडरेटर जब काफ़ी शुरू में हमारे समय के सबसे सचेत कवि वीरेन डंगवाल को उदधृत कर रहे थे तो लगता था कि शायद हिन्दी पत्रकारों की किसी उतनी ही सचेत जमात आप से रू-ब-रू है। उस के बाद भाषा की दुर्गति करने का जो कार्य लगातार इस ओपन स्पेस में किया गया, वह गलीज और तीव्र पतनगामी होता चला गया और उस के बाद स्त्रियों को लेकर जिस तरह की अश्लील ज़बान में तंज़ कसे गए, वह मेरे हल्द्वानी शहर के सबसे हलकट और कमीन गुण्डों को शर्मसार करने को पर्याप्त थे।
फिर चोखेरबाली और अन्ततः मनीषा पाण्डेय इस दिशाहीन, चरित्रहीन 'मुहिम' के निशाने पर आते हैं। अब यह 'मुहिम' (इसे 'डिफ़ेन्ड' तक करने को यहां तर्क-कुतर्क पेश किए जा रहे हैं) पिछले कुछ दिनों से सिर्फ़ मनीषा पाण्डेय को लेकर केद्रित हो गई है। भड़ास नाम के ब्लॉग के प्रमुख मॉडरेटर ने यदि वीरेन डंगवाल (जो हमारे कबाड़ख़ाने के श्रेष्ठ कबाड़ियों से सरगना भी हैं) को पढ़ा है ('गुना है' पढ़ा जाए) तो वे वीरेन दा की "रक्त से भरा तसला हैं हम औरतें" वाक्य से शुरू होने वाली कविता की आखिरी पंक्ति से ज़रूर परिचित होंगे: " वंचित स्वप्नों की चरागाहों में हमें चौकड़ियां तो भर लेने दो, कमबख़्तो!"
अपनी भाषा और अपनी औरतों के साथ जाने-अनजाने बुरा व्यवहार करने वाली क़ौमें उजड़ जाने के लिए अभिशप्त होती हैं।
कविता-स्त्री विमर्श-समाज-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता-सरोकार वगैरह शब्द सुनने-बोलने में बहुत अच्छे लगते हैं लेकिन इन विषयों में डील करते हुए जिस मर्यादा और भाषाई संयम की दरकार होती है, उस लिहाज़ से भड़ास का एकमात्र एजेन्डा यह लगने लगा है कि किसी भी तरह यहां ब्लॉग के संसार में भी आत्ममोह में लिथड़ी लिजलिज पैदा की जाए ताकि इस नवीन और अतिप्रभावी माध्यम में आने वाली पीढ़ियां हमारी पीढ़ी को लगातार गालियां देती जाए। यह तय है अभी और भी विवेकवान और ऊर्जावान युवतर पीढ़ियां आने वाले सालों में अपने लिए और बाकी लोगों के लिए इस ओपन स्पेस को कई गुना अर्थपूर्ण बनाएंगी। रहा सवाल भड़ास से पैदा हुई मेरी व्यक्तिगत निराशा और वितृष्णा का, तो अपने अज़ीज़ दोस्त नूर मोहम्मद 'नूर' का एक शेर पेश करते हुए मैं इरफ़ान की हर बात का अनुमोदन कर रहा हूं:
बेमुरव्वत सभी बेदर्द लुटेरे निकले
जिनको मल्लाह समझते थे लुटेरे निकले
(ताज़ा समाचार यह है कि भड़ास पर मनीषा पाण्डेय का मोबाइल नम्बर तक सार्वजनिक कर दिया गया है। इस कृत्य की सराहना तो क़तई नहीं की जा सकती। बस साहब लोगों से इस नम्बर को तुरन्त हटाने का अनुरोध ही किया जा सकता है।)
4 comments:
भड़ासियों से पूछने का मन है कि मूर्खता और अभद्रता की कोई समय सीमा या 'एक्सपायरी डेट' नहीं होती क्या ? बहुत हुआ . अब उन्हें अक्ल को भी थोड़ी तवज्जोह देनी चाहिए .
प्रियंकर जी ने कहा है;
"अब उन्हें अक्ल को भी थोड़ी तवज्जोह देनी चाहिए ."
@ प्रियंकर जी
वही तो कर रहे हैं. भडासी अपनी अक्ल को तवज्जो ही तो दे रहे हैं.
परसाई जी ने कहीं लिखा था; 'हैं फूहड़ और ख़ुद को बता रहे हैं फक्कड़. इस आत्मविश्वास के साथ कि लोग उन्हें वही समझते हैं.....'
क्या करते हैं अशोक, ऐसे मन क्यों छोटा करते हैं। इस सब से कुछ नहीं होता। गाली-गलौज, कुवचन, अपशब्द, लैंगिक शब्द-विन्यास वाला यह ऐसा ही हमारा समाज है, जिससे हमारा भाषिक समाज पता नहीं कैसे बहुत दूर चला गया है। औरत और मर्द अलग-अलग ऐसी ही भाषाओं में जीते हैं लेकिन कॉमन स्पेस में अगर यही सब आ जाता है तो अचानक शीलभंग जैसा लगने लगता है। नायक-खलनायक की जेहनियत से बाहर आइए। कहीं कुछ नहीं होगा। कल-परसों सारा कुछ पहले से कहीं ज्यादा सहज ढंग से चलने लगेगा।
चंदूभाई ,आप सहजता से सब कह जाते हैं। मानता हूं कि सब सामान्य हो जाएगा पर जो कुछ परखा जाएगा उस पर दिमाग कभी कुछ नहीं सोचेगा ? क्या बार बार टपकती बरसाती की मरम्मत नहीं होती ? प्रगतिशीलता के नाम पर
पाखंड कामन स्पेस में कब तक ? गंदगी से कतरा कर निकलने की आदत डालना ज्यादा सही है या गंदगी को दूर ही कर दिया जाए, यह सोच सही।
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