Friday, March 28, 2008

हर क़िस्म का भारतीय अमीर होकर एक क़िस्म का चेहरा बन जाता है

बीसवीं सदी के महानतम हिन्दी कवियों में एक रघुवीर सहाय जी के अन्तिम कविता संग्रह 'एक समय था' से कुछ कविताएं प्रस्तुत हैं. भारतीय समाज की विद्रूपताओं को बेहद सधी हुई निगाह से देखने वाले रघुवीर जी बेहद साधारण लगने वाले अनुभवों को बड़े विचार-संसार का हिस्सा बना देने की दुर्लभ ताक़त रखते थे.

नई पीढ़ी

एक नौजवान और उससे छोटी एक छोकरी
हर रोज़ मिलते हैं
चकर चकर बोलती रहती है लड़की
पुलिया पर बैठे लड़के को छेड़ती

वह सोच में पड़ा बैठा रह जाता है
दोनों में एक भी तत्काल कुछ नहीं मांगता
न तो वफ़ादारी का वायदा, न बड़ी नौकरी समाज से
वे एक क्षण के आवेग में सिमट रहते हैं

यह नई पीढ़ी है
भावुकता से परे व्यावहारिकता से अनुशासित
इस नई पीढ़ी को ऐसे ही स्वाधीन छोड़ दें.

हंसी जहां खत्म होती है

जब किसी समाज में बार बार कहकहे लगते हों
तो ध्यान से सुनना कि उनकी हंसी कहां ख़त्म होती है
उनकी हंसी के आख़िरी अंश में सारा रहस्य है

अकेला

लाला दादू दयाल दलेला थे
जेब में उनकी जितने धेला थे
उनके लिए सब माटी का ढेला थे
ज़िंदगी में वे बिल्कुल अकेला थे

हिन्दुस्तानी अमीर

किस तरह की सरकार बना रहे हैं
यह तो पूछना ही चाहिए
किस तरह का समाज बना रहे हैं
यह भी पूछना चाहिए

हमारे घरों की लड़कियों को देखिए
हर समय स्त्री बनने के लिए तैयार
सजी बनी

हिन्दुस्तानी अमीर की भूख
कितनी घिनौनी होती है
बड़े बड़े जूड़े काले चश्मे
पांव पर पांव चढ़ाए
हवाई अड्डे पर एक लूट की गंध रहती है
चिकने गोल गोल मुंह
अंग्रेज़ी बोलने की कोशिश करते हुए

हर क़िस्म का भारतीय अमीर होकर
एक क़िस्म का चेहरा बन जाता है
और अगर विलायत में रहा हो तो
उसका स्वास्थ्य इतना सुधर जाता है
कि वह दूसरे भारतीयों से
भिन्न दिखाई देने लगता है
उनमें से कुछ ही थैंक्यू अंग्रेज़ी ढंग से कह पाते हैं
बाक़ी अपनी अपनी बोली के लहज़े लपेट कर छोड़ देते हैं.

4 comments:

Unknown said...

बहुत सही पढाया - अब चलें आज किरचें बुहारनी हैं [ :-)] - मनीष

Unknown said...

achchhi yad dilayee aapne...shukriya

अनूप शुक्ल said...

अच्छी कवितायें।

इरफ़ान said...

वाह वाह वाह.