'कबाड़ख़ाना' हमारे समय के अति महत्वपूर्ण कथाकार और उस से भी अधिक महत्वपूर्ण साहित्य सम्पादक श्री ज्ञानरंजन की गद्य रचनाओं का संग्रह है। यह ज्ञान जी के कभी खिलंदड़े और कभी अति गंभीर गद्य की अद्भुत बानगी प्रस्तुत करती किताब है। इसमें संस्मरण भी हैं, सम्पादकीय आलेख हैं, इन्टरव्य़ू हैं, निबन्ध-टिप्पणियां हैं और उनके एक अधूरे उपन्यास का अंश भी.
ज्ञानरंजन जी को उनकी कहानियों के लिये जानने और प्यार करने वालों के लिए यह किताब ज़रूरी लगती है. प्रस्तुत है इस से एक बहुत छोटा उद्धरण:
"हां, इस बीच घर के बाद स्कूल भी आया था। स्कूल ज़्यादा दूर नहीं. घर और स्कूल को कभी भूल नहीं सके. तब स्कूल बहुत फ़ीकी जगह था. उस समय तक स्कूल आज जैसी हत्यारी जगहें नहीं बने थे. ज़्यादा से ज़्यादा वे एक बेबस जगह थे. घर से स्कूल के बीच हम टमाटर या या खीरे का टुकड़ा होते थे या ज़्यादा से ज़्यादा दो गोलपोस्ट के बीच की गेंद.फिर भी घर से निकल कर स्कूल जाना नयापन तो देता ही था. स्कूल में हमारे सहपाठी थे हरिप्रसाद. बहुत ग़रीब घर के थे, लेकिन इस तंगदस्ती में मुरली बजाने की लत पड़ी. निकर के अन्दर छिपाकर बंसी स्कूल लाते थे. बन्सी एक फ़ुट की थी. छोटी- बड़ी रिसेस में हम बन्सी सुनते थे. क्लास में तो पूछा जाता था कि 'इज़' वर्ब है या नाउन, राणाप्रताप ने क्या प्रतिज्ञा ली थी और पानीपत की तीसरी लड़ाई कब हुई थी. हरिप्रसाद की बंसी कई बार तोड़ताड़ दी गई. कई बार किताब की जगह बंसी लाने पर उस की पिटाई हुई. अब वह या तो किताब खरीद सकता था या बंसी. उसकी बंसी में आत्मा का सुर था. वह कृष्ण जी जैसी बंसी बजाता था. आज यही लड़का विश्व-प्रसिद्ध हरिप्रसाद चौरसिया है. बाधा दौड़ में विजयी होने वाले यही इक्का-दुक्का बचपन के लोग हैं, बाक़ी तो सब काल के गाल में समा गए. ..."
इस पुस्तक का समर्पण भी बहुत शानदार है। अपनी बेटी को यह किताब समर्पित करते हुए ज्ञानरंजन लिखते हैं:
यह किताब
वत्सला, बुलबुल, ततइया, लाली और
हगडुआ को जो एक ही लड़की के कई नाम हैं
और वय में सबसे छोटी पाखी को जो इस
संसार में बड़ी होती रहेगी और हम उसे दूर से
देखते रहेंगे
*पुस्तक राजकमल प्रकाशन से छपी है और हमारे कबाड़ी मित्र चन्द्रभूषण उर्फ़ चन्दू जी ने इस का ब्लर्ब लिखा है
9 comments:
किसी तरह मार-पीटकर ज्ञान भाई से यह उपन्यसवा पूरा करा लिया जाय।
कबाड़ख़ाना या उनकी कहानियां जब भी पढ़ें, हर बार यही लगता है कि इस आदमी ने और क्यों नहीं लिखा. कितनी कहानियां, कितने उपन्यास हैं उनकी बातों में, उनसे मिलें, तो पता चलता है. चंद्रभूषण जी, आपके और हमारे जैसे कई लोग बोल-बोलकर हार गए, ज्ञान'दा पर असर ही नहीं पड़ता. कहां से कराया जाए वह टोना कि ये उपन्यास पूरा कर दें वे...
वाह साब - सैंडविच भी और गोल भी - कुछ दिन पहले सुकुल जी भी इस किताब की चर्चा कर रहे थे और चंदू भाई का इन जनरल आदेश रहा कि इन्हें पढ़ना ज़रूरी है - अगली बार - फिलहाल उत्तम कबाड़
चन्दू भाई और गीत भाई, पुस्तक मेले के समय ज्ञान जी ने मुझ से ऐसा वादा किया तो है. इन्शाअल्लाह! किताब पूरी हो जाए तो हमें किसी क्लासिक से कम तो शर्तिया कुछ नहीं मिलेगा.
ज्ञान जी की इस पुस्तक के प्रशंसक हम भी हैं भाई । अफसोस है कि पहल के संपादन ने ज्ञान जी के लेखन पर असर डाला है । वरना हम सबको कुछ अदभुत और पढ़ने मिलता । ज्ञानजी से हमें बहुत प्यार मिला है ।
`आत्मा का सुर' ज्ञानरंजन की बंसी में भी है. यही है जो पहल निकलवा ले गया. नुकसान क्या हुआ, नफा क्या हुआ, इस पीढी के बहुत से लोगों ने नहींसोचा और इस तरह जो नफा उन्होंने क्या, कौन मूल्यांकन कर सकता है? संपादन और भी करते हैं पर एक संस्कृति पूरी विकसित की, हर उम्र से दोस्ताना ढंग से वाबस्ता रहे हैं...अब इन दिनों में देखो क्या मारकाट है...न कोई पत्रिकाओं के बारे में कोई सुझाव सुनना चाहता है और न ब्लॉग के बारे में कोई आलोचना (सब के तुछेपन उनकी भाषा में ही छलकते रहते हैं) ..इस माहौल में ज्ञानरंजन कल्पना की तरह लगते हैं
ज्ञान'दा वादा निभा दें, तो बहुत अच्छा. वरना कोई जनमतसंग्रह कराके उनके पास भेजा जाए कि पब्लिक डिमांड है साब या उनका घर घेर लिया जाए, जैसा किसी ज़माने में उन्होंने भैरव प्रसाद गुप्त का घर घेरा था... किन्हीं और कारणों से... :) :) :)
सही कहा आपने इस समय में ज्ञान जी एक सपना जैसा लगते हैं ।
सुन्दर! इस किताब में ज्ञानजी के जो इंटरव्यू हैं वे डालिये।
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