Friday, April 4, 2008

जिन्दगी की तपती दोपहर के धूप-बैंक की आग

शब्दों के खलिहान में अनाज और भूसा अलग-अलग करने उपक्रम में लगे लोगों के लिए 'इस महादेश के वैज्ञानिक विकास के लिए प्रस्तुत प्रगतिशील रचनाओं की अनिवार्य पुस्तक'या अव्यावसायिक ,अनियतकालिक पत्रिका 'पहल' कितनी जरूरी है,यह बताने की बात नहीं है।अबतक इसके ८७ अंक आ चुके हैं.साहित्य के समकाल में सक्रिय एक लंबी कतार इसके माध्यम से उदित और ऊर्जावान हुई है.इसके संपादक ज्ञानरंजन की सक्रियता,सजगता और सहजता का मूर्त रूप धारण कर 'पहल' हर बार हमारे सामने मौजूद होती है-कछ नया अलहदा और अनिवार्य-सी चीज लेकर.यह अलग तरह का प्रश्न है कि लेखन और संपादन में कौन से ज्ञानजी बेहतर और बड़े हैं.जो भी हो वे एक शानदार इन्सान हैं-आदमीयत से लबालब;जिनसे मिलकर आप चौड़े होकर लौटते हैं सिकुड़-सिमटकर नहीं.

जुलाई-सितम्बर १९९८ में देश निर्मोही की पत्रिका 'पल प्रतिपल' ने ओम भारती के संपादन में एक विशेष अंक 'साठ पार ज्ञानरंजन' निकाला था।इसमें ज्ञानजी पर बहुत जरूरी सामग्री है।इसी से ली गई कुमार विकल एक कविता' आओ पहल करें' प्रस्तुत है-
आओ पहल करें
(ज्ञानरंजन को संबोधित)
कुमार विकल

जब से तुम्हारी दाढ़ी में
सफेद बाल आने लगे हैं
तुम्हारे दोस्त
कुछ ऐसे संकेत पाने लगे हैं
कि तुम
जिन्दगी की शाम से डर खाने लगे हो
औ' दोस्तों से गाहे-बगाहे नाराज रहने लगे हो
लेकिन सुनो ज्ञान !
हमारे पास जिन्दगी की तपती दोपहर के धूप-बैंक की
इतनी आग बाकी है
जो एक सघन फेंस को जला देगी
ताकि दुनिया ऐसा आंगन बन जाए
जहां प्यार ही प्यार हो
और ज्ञान !
तुम एक ऐसे आदमी हो
जिसके साथ या प्यार हो सकता है या दुश्मनी
तुमसे कोई नाराज हो ही नहीं सकता
तुम्हारे दोस्त,पड़ौसी,सुनयना भाभी,तुम्हारे बच्चे
या अपने आपको हिन्दी का सबसे बड़ा कवि
समझने वाला कुमार विकल
कुमार विकल
जिसकी जीवन संध्या में अब भी
धूप पूरे सम्मान से रहती है
क्योंकि वह अब भी धूप का पक्षधर है
प्रिय ज्ञान
आओ हम
अपनी दाढ़ियों के सफेद बालों को भूल जाएं
और एक ऐसी पहल करें
कि जीवन -संध्यायें
दोपहर बन जाएं .

2 comments:

Ashok Pande said...

धन्यवाद सिद्धेश्वर बाबू. भाईलोगों को 'पहल' के बारे में बताने के लिए और कुमार विकल की इस पुरानी कविता की याद दिलाने के लिए.

Yunus Khan said...

भई अदभुत कविता है ।