परसों रात स्टॉकहोम से मेरे प्रिय दोस्त ज़ुबैर का फ़ोन आया. मूलतः बांग्लादेश का रहने वाला ज़ुबैर भारतीय और पाश्चात्य दोनों तरह के शास्त्रीय संगीत का ख़लीफ़ा है और उस के दो-तीन अल्बम आ चुके हैं. वह गायक तो है ही, अपने गाने भी खुद लिखता है. अपने अल्बमों का संगीत निर्देशन भी उसी ने किया है. नैनीताल, हल्द्वानी और दिल्ली से लेकर हमारी पुरानी दोस्ती और आवारागर्दियों के तार स्टॉकहोम और विएना तक बिखरे हुए हैं.
जब हम नैनीताल में कॉलेज में थे, दोस्तों के साथ आधी रातों को अक्सर किलबरी या बारापत्थर की तरफ़ टहलते निकल जाना हुआ करता था. ज़ुबैर के पास उसका गिटार होता था और हमारे पास अपनी जेब के हिसाब से खरीदा हुआ ओल्ड मॉंक की बोतल या अद्धा और कविताओं की कोई किताब.
किसी वीरान जगह पर महफ़िल सजती थी और ज़ुबैर की आवाज़ का जादू अचानक आसपास की हर चीज़ को अपनी गिरफ़्त में ले लिया करता था. अक्सर रात का आखिरी गाना 'चाहे जितना शोर करें ये नदिया के धारे ... ' हुआ करता था. मछुवारों की लोकधुन 'भटियाली' पर आधारित यह गीत मूलतः बांग्लादेश के अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध गायक अलीमुद्दीन ने गाया था. गीत की ख़ूबी यह थी कि इसे दो भाषाओं में गाया गया था.
परसों रात ज़ुबैर ने फ़ोन पर ही इस गीत की दो-एक लाइनें फिर से सुनाईं. कल दिन भर सारा घर तहस-नहस किया पर न तो अलीमुद्दीन की सीडी मिली न ज़ुबैर की. और मन में लगातार 'चाहे जितना शोर करें ये नदिया के धारे ... ' गूंजता हुआ और और बेचैन कर रहा था.
अभी सुबह उठते ही मुझे हेमन्त कुमार का पता नहीं कौन सा गीत याद आने लगा. उस की तलाश जुटा तो एक सीडी पर निगाह पड़ी और मन प्रसन्न हो गया. न मिले अलीमुद्दीन की या ज़ुबैर की सीडी, अपने हेमन्त दा ने भी तो गाया है भटियाली : एक से ज़्यादा बार. फ़िलहाल 'काबुलीवाला' फ़िल्म में गाए उनके इस गीत की धुन सौ फ़ीसदी वही है जो मुझे कल दिन भर हॉन्ट करती रही थी. यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि १९६६ में बनी इस फ़िल्म का निर्माण बिमल रॉय ने किया था. हेमेन गुप्त निर्देशक थे और संगीत दिया था सलिल चौधरी ने. बलराज साहनी साह्ब ने काबुलीवाले का रोल किया था.
अब सुनिये हेमन्त दा की आवाज़ में:
1 comment:
" प्यास लगे तो एक बराबर जिसमें पानी डाले रे !" शुक्रिया।
क्या esnips में नहीं मिला?
- अफ़लातून
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