इधर कुछ दिनों से रोज़ रात को गुरुदत्त की कोई न कोई फ़िल्म ज़रूर देख रहा हूं. कोई ख़ास वजह नहीं बस ऐसे ही. गुरुदत्त की सात-आठ फ़िल्मों के अच्छे डीवीडी प्रिन्ट तो जाने कब से रखे हुए थे पर इन दिनों अचानक ही यह शुरू हुआ.
यह आज़ादी के तुरन्त बाद का दौर था जब राज कपूर, मेहबूब ख़ान, बिमल रॉय और गुरुदत्त सरीखे लोग एक साथ महान फ़िल्में बना रहे थे. कभी - कभी सोचता हूं १९५० के दशक जैसी चेतना और रचनात्मक ऊर्जा क्या एक साथ इस क़दर फिर से विस्फोटित हो सकेगी हिन्दी सिनेमा में.
ख़ैर. पिछली दो रातों से लगातार 'प्यासा' देखी है. पहले भी कई बार देखी है.
पहले लगता था कि 'प्यासा' फ़क़त गुरुदत्त की फ़िल्म है. लेकिन बार बार देख चुकने के बाद अब मेरा मानना है कि यह एस डी बर्मन, साहिर लुधियानवी और वहीदा रहमान की भी उतनी ही है जितनी गुरुदत्त की. जॉनी वॉकर की भी. माला सिन्हा की भी और रहमान की भी। और मोहम्मद रफ़ी साहब और गीता दत्त के बारे में क्या ख़याल है!
यह आज़ादी के तुरन्त बाद का दौर था जब राज कपूर, मेहबूब ख़ान, बिमल रॉय और गुरुदत्त सरीखे लोग एक साथ महान फ़िल्में बना रहे थे. कभी - कभी सोचता हूं १९५० के दशक जैसी चेतना और रचनात्मक ऊर्जा क्या एक साथ इस क़दर फिर से विस्फोटित हो सकेगी हिन्दी सिनेमा में.
ख़ैर. पिछली दो रातों से लगातार 'प्यासा' देखी है. पहले भी कई बार देखी है.
पहले लगता था कि 'प्यासा' फ़क़त गुरुदत्त की फ़िल्म है. लेकिन बार बार देख चुकने के बाद अब मेरा मानना है कि यह एस डी बर्मन, साहिर लुधियानवी और वहीदा रहमान की भी उतनी ही है जितनी गुरुदत्त की. जॉनी वॉकर की भी. माला सिन्हा की भी और रहमान की भी। और मोहम्मद रफ़ी साहब और गीता दत्त के बारे में क्या ख़याल है!
ग़ज़ब की स्क्रिप्ट, बेहतरीन फ़िल्मांकन और साहिर के कालजयी गीतों में एस डी बर्मन का मीठा संगीत.
सुनिये इस फ़िल्म के कुछ अद्भुत गीत
(जाने वो कैसे लोग थे)
(आज सजन मोहे अंग लगा ले)
(हम आपकी आंखों में)
(ये दुनियां अगर मिल भी जाए तो क्या है}
(जिन्हें नाज़ है हिन्द पर)
1 comment:
मैंने नैनीताल के अशोक सिनेमा हॊल में पहली फ़िल्म 'प्यासा'देखी थी,गांव से शहर में पढने आया था.भाई ! उसकी याद ताजा कर दी इस पोस्ट ने.
आनंद-मौजा ही मौजा!
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