Monday, May 5, 2008

हम नींद में भी दरवाजे पर लगा हुआ कान हैं


आज हमारे आसपास विविध संदर्भॉं से उद्भूत ,विविध व्याख्याओं से विस्तारित विविध प्रकार का स्त्रीवाद है।स्त्रीवाद का एक अकादमिक-प्राध्यापकीय एंगल भी है तथा स्त्री स्त्रीवादियों और पुरुष स्त्रीवादियों के विरोध और सामंजस्य की जुगलबंदी से उपजा पापुलर किस्म का स्त्रीवाद भी.राजनीतिक,सामाजिक,आर्थिक,धार्मिक आदि-आदि मोर्चे पर जूझती स्त्रियों की जिजीविषा और जीवट के दस्तावेज भी हमसे दूर नहीं हैं फिर भी स्त्री के लिये अपनी कही बात के ध्यान से सुने जाने की लड़ाई जारी है.इस लड़ाई में उपालंभ,उम्मीद,उत्साह तथा उग्रता के साथ उहापोह भी है जैसा कि हर लड़ाई के आरंभिक दौर में होता है.


'हमारे समाज और साहित्य में महिलायें'विषय पर एक पेपर तैयार करते वक्त बार-बार एक कविता याद आती रही और उस पेपर के आखिरी हिस्से में वह कविता उधृत भी की।मैं जैसा भी लिखता हूं उससे एकाध लोगों को प्रायः यह शिकायत रहती है कि मैं अक्सर 'पर्सनल' हो जाता हूं,कहे -लिखे-बोले से तटस्थ रहना कठिन हो जाता है.इस सवाल का जवाब मेरे पास फिलहाल यही है कि शब्द और कर्म में दूरी कम से कम बनी रहे तो ठीक लगता है.रोजाना सुबह बच्चों के स्कूल चले जाने के बाद और काम पर जाने से पहले का जो वक्फा मिलता है उसमे हम 'दोनो परानी'कविताये सुनते-सुनाते हैं या फिर संगीत.काम भी निरन्तर चलता रहता है और कविता -संगीत भी. प्रस्तुत कविता का वाचन हम लोग अक्सर करते हैं.आप भी पढ़ें-


हम औरतें / वीरेन डंगवाल


रक्त से भरा तसला हैं
रिसता हुआ घर के कोने-अंतरों


हम हैं सूजे हुए पपोटे
प्यार किए जाने की अभिलाषा
सब्जी काटते हुए भी
पार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुई प्रेतात्मायें


हम नींद में भी दरवाजे पर लगा हुआ कान हैं
दरवाजा खोलते ही
अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल पर
पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं


हम हैं इच्छा मृग


वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो
चौकड़ियां मार लेने दो हमें कमबख्तो।


(कविता 'इसी दुनिया में' संग्रह और कवि वीरेन डंगवाल की तस्वीर कवि शिरीष कुमार मौर्य के ब्लाग'अनुनाद'से साभार)

1 comment:

लोकेन्द्र बनकोटी said...

Tareef karne ki ichcha ho rahi hai magar jaise himmat nahi pad rahi. Manto ki bhi aisi si hi ek kahani thi jissey padne ke baad bhi kuch yu hi laga tha. "Hatak" thi shaayad.