कल विमल भाई ने सांसों की माला लगाकर तबीयत ख़ुश कर दी थी. मेरे पास इस क़व्वाली का एक बहुत बहुत लम्बा वर्ज़न रखा हुआ था पिछले करीब पन्द्रह साल से. मेरे याददाश्त के हिसाब से १९९० में सबसे पहले अपने रघु भाई ('बकर तोतला' फ़ेम रघुवीर यादव) ने मुझे यह सुनवाया था. वे तो सफ़र में आते - जाते एक थैले में बाबा नुसरत का अपना पूरा संग्रह बाकायदा साथ लेकर चलते थे.
इस को सुनते हुए मुझे हमेशा हरे चरागाहों पर अनन्त तक भागते चले जाने की इच्छा होती है.
ख़ैर, विमल भाई को मैंने कल ही तुरन्त फ़ोन लगाया कि मैं उन्हें यह वर्ज़न अपलोड करने के बाद भेज रहा हूं. साहब, यकीन मानिये मैंने करीब पांच - छः घन्टे इस काम में लगाए पर कुछ बात बनी नहीं. एक तो हल्द्वानी का अपेक्षाकृत धीमा ब्रॉडबैन्ड, ऊपर से करीब तीस एम बी की यह फ़ाइल. कल यह काम नहीं बन पाया. आज इन्टरनैट आर्काइव की फिर याद आई और आख़िरकार एक घन्टे में काम बन गया.
विमल भाई और उदय प्रकाश जी और दोस्त दीपक सांगुड़ी के साथ आप भी सुनिये यह दुर्लभ रचना।
इस को सुनते हुए मुझे हमेशा हरे चरागाहों पर अनन्त तक भागते चले जाने की इच्छा होती है.
ख़ैर, विमल भाई को मैंने कल ही तुरन्त फ़ोन लगाया कि मैं उन्हें यह वर्ज़न अपलोड करने के बाद भेज रहा हूं. साहब, यकीन मानिये मैंने करीब पांच - छः घन्टे इस काम में लगाए पर कुछ बात बनी नहीं. एक तो हल्द्वानी का अपेक्षाकृत धीमा ब्रॉडबैन्ड, ऊपर से करीब तीस एम बी की यह फ़ाइल. कल यह काम नहीं बन पाया. आज इन्टरनैट आर्काइव की फिर याद आई और आख़िरकार एक घन्टे में काम बन गया.
विमल भाई और उदय प्रकाश जी और दोस्त दीपक सांगुड़ी के साथ आप भी सुनिये यह दुर्लभ रचना।
बाबा नुसरत ज़िन्दाबाद!
* पता नहीं क्यों इन्टरनैट आर्काइव से यह फ़ाइल हटा दी गई है. इस का एक ट्रेलर भर लाइफ़्लॉगर पर अपलोड हो सका. फ़िलहाल उसी से काम चलाने का कष्ट करें. असुविधा के लिये माफ़ी.
3 comments:
क्या बात है आपने तो तबियत हरी कर दी...मुझे नहीं लग रहा था कि आप बड़ी फ़ाईल अपलोड करके हम तक पहुँचा पायेंगे..पर आपकी मेहनत से ये पूरी रचना हमने सुना..मस्त हो गये भाई, ढेरों शुभकामनाएं हमारी ओर से स्वीकार करें.....और इस आवाज़ के तो हम कायल हैं..एक दम भेद सी जाती है ये आवाज़...गज़ब गज़ब गज़ब....हम सुन रहे हैं मित्र आप ऐसे ही हमें सुनाते रहे...
इस प्रस्तुति में मेंडोलियन और क्लेरोनियेट का प्रील्यूड करामाती है. मुरारी बापू से सबसे पहले ये रचना सन 85 में सुनी और तबियत हरी हो गई थी लेकिन उस्तादजी की कहन करिश्माई है.आवाज़ का थ्रो जैसे चट्टान को फ़ाड कर एक हीरा बाहर आ गया और क़ायनात को दमका गया. और कव्वाली जैसे अपनी श्रेष्ठता पर हो आई है.भैया उस्तादी नहीं जता रहा हूँ अपनी जानकारी कि लेकिन की अपने ब्लॉग बिरादरों के लिये बता दूँ कि हर तरह के संगीत में सिर्फ़ और सिर्फ़ क़व्वाली ही ऐसी है जिसमें दोहे,भजन,शे’र,सोरठे और नज़्म दे दीगर भावों को जोड़ा जा सकता है और इसे क़व्वाली के शास्त्र में गिरह करना कहा जाता है ....गाने वाले के पास जो जो सुना और सहेजा ख़ज़ाना होता है किसी भी मुखड़े की क़व्वाली के अंतरों में गिरह करते जाइये. गाइये..ख़ुसरो और गिरह करते जाइये मीरा,सूर,ब्रह्मानंद,ग़ालिब,मीर,अकबर इलाहाबादी को भी ...क्या कमाल की विधा थी ये ..आज अपनी बर्बादी पर आँसू बहा रही है क़व्वाली.शुक्रिया अशोक भाई आपका अहसान रहा इस वेमिसाल रचना को विस्तार सुनवाने के लिये.
Ashok ji, kisi takniki kharabi ki vazah se yahaan chicago me ise sun nahin paa rahaa hoon. parson ghar pahunch kar sunoonga. aapke pavitra zunoon ke liye 'kudos'..big and large....
ham sab ehsaanmand hain..sanjay ji ki tarah.
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