बहादुर शाह ज़फ़र की यह बेहद मशहूर ग़ज़ल गा रहे हैं जनाब हबीब वली मोहम्मद. हबीब साहब को आप कबाड़ख़ाने में पहले भी सुन चुके हैं. उनका परिचय जानने के लिये और उनकी गाई एक और ग़ज़ल यहां सुनी जा सकती है.
अशोक भाई हबीब साहब ने वाक़ई कमाल कर दिया है इस ग़ज़ल में .... हालांकि मुझे आज भी रफ़ी साहब वाले version की ही धुन पहले याद आती है.. शायद बचपन से वही सुनता आया हूँ इस लिए. लेकिन जब ये सुनता हूँ तो एक अजीब सा एहसास होता है .... बहुत बहुत शुक्रिया इसे सुनवाने का.
अपना 'कबाड़खाना' तो संगीतखाना हो रिया है जय हो ! बनी रहे दुकान आते रैं गिराक! अपन कू भी मिलती रहे संगीत की खुराक इस नदिया में नहलाते रहो बाबूजी छपाक-छपाक!
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अशोक भाई हबीब साहब ने वाक़ई कमाल कर दिया है इस ग़ज़ल में .... हालांकि मुझे आज भी रफ़ी साहब वाले version की ही धुन पहले याद आती है.. शायद बचपन से वही सुनता आया हूँ इस लिए. लेकिन जब ये सुनता हूँ तो एक अजीब सा एहसास होता है .... बहुत बहुत शुक्रिया इसे सुनवाने का.
अपना 'कबाड़खाना' तो संगीतखाना हो रिया है
जय हो !
बनी रहे दुकान
आते रैं गिराक!
अपन कू भी मिलती रहे संगीत की खुराक
इस नदिया में नहलाते रहो बाबूजी छपाक-छपाक!
badii puraani baat hai ye to..kaafi dino se dhuundh rahi thii..shukriyaa
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