Thursday, May 29, 2008

इतना झीना जितना नशा, इतना गठित जितना षडयंत्र


ये अब्र पुराने हैं
बरसेंगे यहीं आकर
मेरा घर जाने हैं.

'माहिया' शीर्षक यह नन्हीं सी कविता अजन्ता देव की छोटी सी कविता-पुस्तिका 'एक नगरवधू की आत्मकथा' का हिस्सा है. जब से यह पुस्तिका मेरे पास पहुंची है, इसे दसियों बार पढ़ चुका हूं और हर बार इसमें नये अर्थ मिले हैं.

यूरोप से उधार लिये गये नारीवाद और उत्तर नारीवाद जैसे किताबी सिद्धान्तों की आड़ में युवतर कवयित्रियों की लगतार बढ़ती जाती जमात की एकांगी और रसहीन कविताओं की भीड़ में अलग से छिटक सामने आती है यह ज़बरदस्त पुस्तिका. पहली ही कविता है 'मेरा मिथ्यालय':

आमन्त्रण निमन्त्रण नहीं
अनायास खींच लेता है अपनी ओर
मेरा मिथ्यालय

श्रेष्ठ जनों के बीच
यहीं रचा जाता है
कलाओं का महारास

मेरे द्वार कभी बन्द नहीं होते
ये खुले रहेंगे
तुम्हारे जाने के बाद भी.

एक जड़ समाज की नब्ज़ पर उंगली रख कर हतप्रभ कर देने का यह क्रम अगली कविता 'विपरीत रसायन' में जारी रहता है:

स्त्रियां नहीं बन सकतीं शराबी
यह कहा होगा कवि ने
मेरे हाथ से पीकर
अगर बन जातीं स्त्रियां शराबी
तो पिलाता कौन

मेरे प्याले भरे हैं मद से
केसर कस्तूरी झलझला रही है
वैदूर्यमणि सी
कीमियागर की तरह
मैं मिला रही हूं
दो विपरीत रसायन
विस्फोट होने को है
मैं प्रतीक्षा करूंगी तुम्हारे डगमगाने की.

और आगे देखिये 'रामरसोई' शीर्षक कविता क्या कहती है:

तुम्हारी जिह्वा
ठांव-कुठांव टपकाती है लार
इसे काबू करना तुम्हारे वश में कहां
तुमने चख लिया है हर रंग का लहू

परन्तु एक बार आओ
मेरी रामरसोई में
अग्नि केवल तुम्हारे जठर में नहीं
मेरे चूल्हे में भी है
यह पृथ्वी स्वयं हांडी बन कर
खदबदा रही है
केवल द्रौपदियों को ही मिलती है
यह हांडी
पांच पतियों के परमसखा से.

यह एक बेबाक, ईमानदार कथन कहने की हिम्मत है जिसमें अजन्ता देव सारे समाज के सामने एक आईना रखती हुईं 'अन्य जीवन से' में कहती हैं:

किस लोक के कारीगर हो
कि रेशे उधेड़ कर अंतरिक्ष के
बुना है पटवस्त्र
और कहते हो नदी सा लहराता दुकूल

होगा नदी सा
पर मैं नहीं पृथ्वी सी
कि धारण करूं यह विराट
अनसिला चादर कर्मफल की तरह
मुझे तो चाहिये एक पोशाक
जिसे काटा गया हो मेरी रेखाओं से
इतना सुचिक्‍कन कि मेरी त्‍वचा
इतने बेलबूटे कि याद न आये
हतभाग्‍य पतझर
सारे रंग जो छीने गये हों
अन्‍य जीवन से

इतना झीना जितना नशा
इतना गठित जितना षडयंत्र


मैं हर दिन बदलती हूं चोला
श्रेष्ठ्जनों की सभा में
आत्मा नहीं हूं मैं
कि पहने रहूं एक ही देह
मृत्यु की प्रतीक्षा में.

"आत्मा नहीं हूं मैं" कह चुकने के साथ ही बहुत सारी जंज़ीरें यक-ब-यक खुलती चली जाती हैं. ज़रा 'कामकेलि' शीर्षक कविता को देखें:

क्या किया मैंने
शैशव से यौवन तक
किया जो भी
वह उपस्थित था धरती पर पहले से

चपल मुद्रा
चतुर स्वभाव
झीना छल
मिला सदैव अपने आसपास
वह जो साधा गया सायास
क्या नहीं था प्रकृति में अनायास

रंगों की इतनी छायाएं
ये प्राणवन्त प्रतिमाएं
फिर भी मेरी यह
दुर्दान्त धृष्टता

सृष्टि की आदिकला को
मैंने संवारा
कितने श्रृंगार
कितने कपट से
फिर भी अन्त में बच गई
केवल कामकेलि
मूक पशुओं से सीखी एक कला.

अजन्ता देव की कविताएं इधर लिखी जा रही सपाटबयानी के बीच किसी ख़ुशबूदार झोंके की मानिन्द आपको अपने लपेटे में ले लेती हैं. बहुत दिनों बाद मैंने भाषा में एक नया मुहाविरा, एक नया नैसर्गिक शिल्प और कहीं सूफ़ियाना तो कहीं मन्द्र मेघ जैसा स्वर देखा. यह एक बेहद संवेदनशील और बेहद चौकस रचनाकार है जो अपने समाज और परिवेश के दोमुंहेपन को एक पारदर्शी कौशल के साथ उघाड़ देने की हिम्मत रखता है. और भाषा के साथ वे अनन्त प्रयोग करती चलती हैं. अजन्ता देव की कविताओं का अन्डरस्टेटमेन्ट युवा कवियों के लिये मिसाल है. पुस्तिका से एक और कविता 'रंग है री':

कैसी आंधी चली होगी रात भर
कि उड़ रही है रेत ही रेत अब तक

असंख्य पदचिह्नों की अल्पना आंगन में
धूम्रवर्णी व्यंजन सजे हैं चौकियों पर
पूरा उपवन श्वेत हो गया है
निस्तेज सूरज के सामने उड़ रहे हैं कपोत

युवतियां घूम रही हैं
खोले हुए धवल केश
वातावरण में फैली है
वैधय की पवित्रता
कोलाहल केवल बाहर है
आज रंग है री मां! रंग है री!

(इस पोस्ट के लिये पहला शुक्रिया अविनाश का जिनकी मार्फ़त अजन्ता जी की इस पुस्तिका से परिचय हुआ. दूसरा शुक्रिया अजन्ता जी का जिन्होंने मुझे यह पुस्तक भेजी. पुस्तिका प्राप्ति का पता: कलमकार प्रकाशन, ६८/१७९, प्रताप नगर, सांगानेर, जयपुर -३०२०३० टेलीफ़ोन: ०१४१ ५१२२००६)

4 comments:

PD said...

'एक नगरवधू की आत्मकथा' main bhi padh chuka hun.. sach me adbhut hai..

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

अजंता जी की शानदार कविताओं की उतनी ही उम्दा समीक्षा के लिए आभार.

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

अशोक जी, मैं आपसे सम्पर्क करना चाहता हूं. कृपया मुझे मेल करें : dpagrawal24@gmail.com

siddheshwar singh said...

'पहल'-८७ में अजंता देव की कवितायें देख चुका हूं. अद्भुत है इस कवि की भाषा और कहने की शैली. किताब का जुगाड़ तो करना ही पड़ेगा. मै इस कवि की कुछ कवितायें 'कर्मनाशा' पर लगा रहा हूं.
और बाबूजी आपने जो लिखा है वह तो गजब.
जय लोया पिलाट्टिक!