Tuesday, June 10, 2008

राजधानियां नहीं होतीं पानी की



बहुत साल पहले अपने एक शानदार संगीतकार मित्र जगमोहन जोशी उर्फ़ मन्टू से एक गीत सुना था:

"नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूं.
मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही ही रुबाई हूं."

धुन बहुत कर्णप्रिय थी और शब्द बढ़िया. गीत में आगे नदी समुन्दर से कहती है कि वह उसकी चाहत में ऊंचाइयों का अकेलापन छोड़ कर आई है सो उसने उसे तमाम गहनों से सजाना चाहिये. नये गहनों की फ़ेहरिस्त में नदी अन्त में जोड़ती है:

"लहर की चूड़ियां पहना, मैं पानी की कलाई हूं."

पानी की कलाई को लहर की चूड़ियां पहनाने की बात करने वाला यह प्यारा इन्सान मेरा अज़ीज़ दोस्त अतुल शर्मा है. देहरादून में रहता है और स्वाभाविक रूप से कवि है. 'जवाबदावा' नाम से उसका एक उपन्यास कुछ साल पहले शाया हुआ था. टिहरी बांध, मालपा त्रासदी, उत्तराखण्ड आन्दोलन और तमाम सामयिक विषय उसके गीतों के विषय बनते हैं और ये गीत जुलूसों, फ़ैक्ट्रियों के बाहर, आन्दोलनों और जनता के बीच लगातार गाये जाते हैं. संक्षेप में कहूं तो अतुल संभवतः इस समय हिन्दी के अग्रणी गीतकारों में है. जगमोहन जोशी उर्फ़ मन्टू, जिनका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है, अतुल के गीतों को लम्बे समय से धुनों में ढाल रहे हैं और दो अलबम भी निकाल चुके हैं.

गीतकार अतुल असल में बढ़िया कवि भी है और ख़ूब कविताएं लिखता है. आज आपको अतुल शर्मा की दो कविताओं से परिचित करवाता हूं. उनकी कुछ और कविताएं आपको बाद में भी पढ़वाऊंगा:

कुर्सियां

ख़ाली कुर्सियां
आराम से बैठी हैं कमरे में

कमरे
उनके लिये कुर्सियां हैं

कुर्सियां
किसी की प्रतीक्षा नहीं करतीं

लोग बैठते हैं
कुर्सियों की गोद में

कुछ उन पर सो जाते हैं

एक पाया टूटने से पहले तक
कुर्सियां कुर्सियां रहती हैं
उसके बाद वे सरकार हो जाती हैं

पेड़ की डाल पर
कुर्सी की तरह बैठो बच्चो
यह कुर्सी सबसे ठीक है
-इसकी जड़ें हैं.

छोटा सा गांव खाड़ी, छोटी सी नदी ह्यूंल

समुद्र में देखा मैंने ह्यूंल का पानी
आंखों की खाड़ी में भी दिखा पानी
राजधानियां नहीं होतीं पानी की
पानी की होती हैं खाड़ियां

खाड़ी के कटोरे में पानी
ह्यूंल का पानी
अरण्यों के बीच से शिखरों की बांहों में
जो कुछ पलता है
वो समुद्र में दिखा
आग उसी ह्यूंल की वजह से है.

(खाड़ी: टिहरी के नज़दीक एक गांव, ह्यूंल: इसी गांव के बगल में बहने वाली छोटी सी नदी)

10 comments:

नीरज गोस्वामी said...

अशोक जी
अपने मित्र अतुल जी और उनकी विलक्षण प्रतिभा से परिचय करवाने का तहे दिल से शुक्रिया. उनको पढ़ कर संदेह की कोई गुंजाईश नहीं रहती की वे कमाल के गीतकार हैं. कुर्सियाँ वाली रचना में "यह कुर्सी सबसे ठीक है
-इसकी जड़ें हैं." लिख कर उन्होंने अपनी कलम का लोहा मनवा लिया है. मेरी तरफ़ से उन्हें और आप को बहुत बहुत बधाई. उनका लिखा कुछ और पढने को मिल जाए तो आनंद आ जाए.
नीरज

PD said...

bahut hi sundar..

मैथिली गुप्त said...

वाह अशोक जी
नदी बोली समन्दर से कई साल पहले सुना था.
ख्वाहिश है कि आप इसकी संगीतमय प्रस्तुति सुनवायें

डॉ .अनुराग said...

कविता वही है जो सबको लगे कि उसके दिल कि बात है..ओर ये बात अतुल जी मे है......

विजय गौड़ said...

अशोक भाई, मजा ही आ गया, अपने दोनों ही अजीजों का जिक्र पढ्कर. अतुल भाई की कविता निश्चित ही खूब हैं - उन्हीं के एक गीत की पंक्ति
"अब तो सडकों पर आओ, ओ शब्दों के कारीगर"
अभी फ़ोन पर बात हुई थी- मार्फ़त आपके ही. चलिये अतुल भाई को जल्द ही आप लिखो यहां वहां पर पढियेगा. पर कविता नही. कमबख्त ने कबसे वायदा किया हुआ है, उम्मीद है अब लिख ही ले जो मै लिखने को कहता रहा हूं.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

पेड़ की डाल पर
कुर्सी की तरह बैठो बच्चो
यह कुर्सी सबसे ठीक है
-इसकी जड़ें हैं.

भाई, उम्दा! बहुत उम्दा!

Dr. Chandra Kumar Jain said...

पेड़ की डाल पर
कुर्सी की तरह बैठो बच्चो
यह कुर्सी सबसे ठीक है
-इसकी जड़ें हैं.
===================
सार्थक चयन.
आभार
डा.चंद्रकुमार जैन

Rajesh Roshan said...

इन गीतों में इतनी गहराई है की एकबारगी लगता है सब कुछ समझ गए फ़िर और सोचता ह टू समझ में आता है की क्या क्या बात कही गई है. अलंकारों से भरी कविता पढ़वाने के लिए अतुल जी और अशोक जी आपका भी धन्यवाद

अजित वडनेरकर said...

उम्दा रचनाएं। शुक्रिया साहेब....

Mohinder56 said...

"नदी बोली समन्दर से मैं तेरे पास आई हूं"
कविवर डा. कुवंर बैचेन जी की रचना है... इसे सुर और प्रत्यक्ष देखना चाहे तो..

www.sahityashilpi.com पर देख सकते हैं.. उन्ही की आवाज में