Monday, June 30, 2008

हुकुम का इक्का खेल को आगे नहीं बढ़ाता - ख़त्म कर देता है

पाकिस्तान रेडियो, इस्लामाबाद में कार्यरत नसरीन अंजुम भट्टी अपने स्त्रीसंबंधी सरोकारों के लिये जानी जाती हैं और आधुनिक पाकिस्तानी कविता में एक बड़ा नाम हैं. पेश है उनकी कविता

हुकुम का इक्का

कोई दावा न करो कि तारीख़ दावेदारों के साथ नहीं होती
दुख में ताक़त घटती है!
नहीं तो! ये दुख कम है - इससे बड़ा दुख पैदा करो
पहला दुख अपने आप कम हो जाएगा
मैंने अपना आसमान देखा!
मैंने अपनी ज़मीन देखी!
आसमान पर सितारे नहीं थे,
ज़मीन पर फ़सल नहीं
ये मेरी नस्ल नहीं
बन्दूकों की नालियां कैसी नींदें लाती हैं मन्फ़ी मन्फ़ी सी
दिन में चांद निकल भी आए
तो रात में सूरज नहीं निकलेगा
सज़ा-ए-मौत से बड़ा हुक़्म मांगें की ज़िन्दगी है
हुकुम का इक्का खेल को आगे नहीं बढ़ाता - ख़त्म कर देता है
सब दावे ख़त्म कर देता है
तारीख़ ने अपनी आंखें लिखीं, जुगराफ़िया ने अपने हाथ फैलाए
इश्क़ कहां मुक़य्यद है
गन्ने का बूटा, मेरा महबूब, और मेरी पोरें पांव के नाख़ूनों तक
ज़ख़्म, ज़ख़्म,ज़ख़्म,ज़ख़्म
ज़ख़्म घुंघरू, गन्ना गुदाज़, शहद शीरीं

कौन सा हुक्म लगाता है
हुकुम का इक्का

(तारीख़: इतिहास, मन्फ़ी मन्फ़ी: नकारात्मक, मुक़य्यद: कैद, शीरीं: मीठा)

1 comment:

siddheshwar singh said...

पाकिस्तानी शायरी के बेनजीर हिस्से से लगातार परिचय करवा रहे हो मित्र.
मैं कितना कम पढ़ पा रहा हूं आजकल.
शुक्रिया!