हमारे समय के सब से ज़रूरी सरोकारों को लेकर वीरेन डंगवाल की अति सचेत कविता इधर के सालों में ज़्यादा पैनी और विस्तृत होती गई है. हिन्दी साहित्य में खूब उद्धृत की जाने वाली "इतने भले नहीं बन जाना साथी, जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी" उनके पहले काव्य संग्रह 'इसी दुनिया में' की एक कविता की शुरुआत है. इस किताब की भूमिका में कवि-अनुवादक-नाटककार नीलाभ जी ने उन्हें "दुर्लभ कविताओं का कवि" बतलाया था. वीरेन डंगवाल अपनी कविताओं को लेकर बेज़ारी की हद तक लापरवाह आदमी हैं. मुझे याद पड़ता है किस तरह स्वयं नीलाभ ने अनेक अन्य साथियों की मदद से वीरेन जी की यहां वहां बिखरी कविताओं को खोज-समेट कर इस किताब की पांडुलिपि तैयार की थी.
उनके अगले संग्रह 'दुश्चक्र में सृष्टा' के आने में दस से अधिक साल लगे. अब उनके तीसरे संग्रह की तैयारी है. इस प्रकाशनाधीन संग्रह की तकरीबन सारी कविताएं तमाम साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं. साहित्य अकादेमी पुरुस्कार से सम्मानित इस बड़े कवि के इसी प्रकाशनाधीन संग्रह से से प्रस्तुत हैं दो अदद कविताएं.
कुछ कद्दू चमकाए मैंने
कुछ कद्दू चमकाए मैंने
कुछ रास्तों को गुलज़ार किया
कुछ कविता-टविता लिख दी तो
हफ़्ते भर ख़ुद को प्यार किया
अब हुई रात अपना ही दिल सीने में भींचे बैठा हूँ
हाँ जीं हाँ वही कनफटा हूँ, हेठा हूँ
टेलीफोन की बगल में लेटा हूँ
रोता हूँ धोता हूँ रोता-रोता धोता हूँ
तुम्हारे कपडों से ख़ून के निशान धोता हूँ
जो न होना था वही सब हुवां हुवां
अलबत्ता उधर गहरा खड्ड था इधर सूखा कुआँ
हरदोई मे जीन्स पहनी बेटी को देख
प्रमुदित हुई कमला बुआ
तब रमीज़ कु़र्रैशी का हाल ये था
कि बम फोड़ा जेल गया
वियतनाम विजय की ख़ुशी में
कचहरी पर अकेले ही नारे लगाए
चाय की दुकान खोली
जनता पार्टी में गया वहाँ भी भूखा मरा
बिलाया जाने कहॉ
उसके कई साथी इन दिनों टीवी पर चमकते हैं
मगर दिल हमारे उसी के लिए सुलगते हैं
हाँ जीं कामरेड कज्जी मज़े में हैं
पहनने लगे है इधर अच्छी काट के कपडे़
राजा और प्रजा दोनों की भाषा जानते हैं
और दोनों का ही प्रयोग करते हैं अवसरानुसार
काल और स्थान के साथ उनके संकलन त्रय के दो उदाहरण
उनकी ही भाषा में :
" रहे न कोई तलब कोई तिश्नगी बाकी़
बढ़ा के हाथ दे दो बूँद भर हमे साकी़ "
"मजे का बखत है तो इसमे हैरानी क्या है
हमें भी कल्लैन द्यो मज्जा परेसानी क्या है "
अनिद्रा की रेत पर तड़ पड़ तड़पती रात
रह गई है रह गई है अभी कहने से
सबसे ज़रूरी बात।
उधो, मोहि ब्रज
(इलाहाबाद पर, अजय सिंह, गिरधर राठी, नीलाभ, राजेन्द्र त्रिपाठी और भाई ज्ञान के लिए)
गोड़ रहीं माई ओ मउसी ऊ देखौ
आपन-आपन बालू के खेत
कहां को बिलाये ओ बेटवा बताओ
सिगरे बस रेत ही रेत.
अनवरसीटी हिरानी हे भइया
हेराना सटेसन परयाग
जाने केधर गै ऊ सिविल लैनवा
किन बैरन लगाई ई आग.
वो जोशभरे नारे वह गुत्थमगुत्था बहसों की
वे अध्यापक कितने उदात्त और वत्सल
वह कहवाघर!
जिसकी ख़ुशबू बेचैन बुलाया करती थी
हम कंगलों को
दोसे महान
जीवन में पहली बार चखा जो हैम्बरगर.
छंगू पनवाड़ी शानदार
अद्भुत उधार.
दोस्त निश्छल. विद्वेषहीन
जिनकी विस्तीर्ण भुजाओं में था विश्व सकल
सकल प्रेम
ज्ञान सकल.
अधपकी निमौली जैसा सुन्दर वह हरा-पीला
चिपचिपा प्यार
वे पेड़ नीम के ठण्डे
चित्ताकर्षक पपड़ीवाले काले तनों पर
गोंद में सटी चली जाती मोटी वाली चींटियों की क़तार
काफ़ी ऊपर तक
इन्हीं तनों से टिका देते थे हम
बिना स्टैण्ड वाली अपनी किराये की साइकिल.
सड़कें वे नदियों जैसी शान्त और मन्थर
अमरूदों की उत्तेजक लालसा भरी गन्ध
धीमे-धीमे से डग भरता हुआ अक्टूबर
गोया फ़िराक़.
कम्पनीबाग़ के भीने-पीले वे ग़ुलाब
जिन पर तिरछी आ जाया करती थी बहार
वह लोकनाथ की गली गाढ़ लस्सी वाली
वे तुर्श समोसे मिर्ची का मीठा अचार
सब याद बेतरह आते हैं जब मैं जाता जाता जाता हूं.
अब बगुले हैं या पण्डे हैं या कउए हैं या हैं वकील
या नर्सिंग होम, नये युग की बेहूदा पर मुश्किल दलील
नर्म भोले मृगछौनों के आखेटोत्सुक लूमड़ सियार
खग कूजन भी हो रहा लीन!
अब बोल यार बस बहुत हुआ
कुछ तो ख़ुद को झकझोर यार!
कुर्ते पर पहिने जीन्स जभी से तुम भइया
हम समझ लिये
अब बखत तुम्हारा ठीक नहीं.
12 comments:
वीरेनजी मेरे शहर के कवि हैं। उनसे बेहद प्यार है। काफी हद तक वह लापरवाह कवि हैं मगर उनकी लापरवाही उन्हें हमारे बीच बड़ा बनाती है। भाषा के मामले में उनका जबाव नहीं। कवि की जो-जैसी भाषा होनी चाहिए वह उनके पास है। उनकी एक और उम्दा कविता है कटरी का कल्लू। कभी उसे भी यहां छापें।
भाई अंशुमाली जी
'कटरी का कल्लू' तो नहीं, हां 'कटरी की रुक्मिणी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा' नाम से उनकी कविता ज़रूर है. संभवतः आप उसी की बात कर रहे हैं. व्यक्तिगत रूप से वह मुझे इधर के सालों में लिखी उनकी सबसे अच्छी रचना लगती है ('पोदीने की बहक' के बाद). उसे लगा तो मैं दूं यहां पर वह बहुत लम्बी है (संभवतः वीरेनदा की सबसे लम्बी कविता है) और ब्लॉग पर एक पोस्ट की कुछ सीमाएं होती हैं. फिर भी देखिये हो सकता है कभी लगा ही दूं.
बाक़ी आपका आभार याद दिलाने के लिये.
समझ कम है परन्तु जितनी समझ आई अच्छी लगीं। धन्यवाद।
घुघूती बासूती
अधपकी निमौली जैसा सुन्दर वह हरा-पीला
चिपचिपा प्यार
वे पेड़ नीम के ठण्डे
चित्ताकर्षक पपड़ीवाले काले तनों पर
गोंद में सटी चली जाती मोटी वाली चींटियों की क़तार
- बहुत खूबसूरत, बहुत बढिया लिखा।
सुन्दर अभिव्यक्ति।
हां अशोक भाई ठीक पकड़ा आपने। आप सही हैं।
....खंडित गद्यकथा' जरूर पेश करें अशोक दद्दा.अपने प्रिय कवि के तीसरे संग्रह का इंतजार है.रही बात इन कविताओं की तो 'बोफ़्फ़ाईन' से उम्दा कोई और शब्द हो तो उसे समझ लें.
जैसी आख्या (आई मीन आग्या ... माने आज्ञा) जनाब-ए-आला मधुकर गाज़ीपुरी साहब.
कबाड़ी 'खुस'हुआ
bahut achhi kavitayen...sangrah ki pratiksha rhegi...
दरअसल ये सहमतिपूवर्क उड़ाई कविताएं हैं जो एक मनीजर कमलेदीच्चित ने बीस वाट के बल्ब की रोशनी में इंटरसिटी के डिब्बे में भीड़ और शोर के बीच हिटलर की आत्मकथा के प्रभाव में अपने ब्रीफकेस पर होटलों से यत्नपूर्वक जुटाए गए खुरदुरे नैपकिनों पर लिखी थीं। यह बात वीरेन जी ने मुझे खुद तुलसीदास की तेरहवीं के मौके पर मुझे बताई थी।
बहरहाल समय के साथ इन कविताओं के अक्षर थोड़े घिस गए हैं, प्लग कार्बन के साथ रहने का अभ्यस्त हुआ है, पंक्तियां विरल हुई है इससे हवा आने-जाने लगी हैं।
युवा नही जानते, आजादी के तुरंत बाद के दिनों में जब कविताएं फ्रिज में नहीं रखने का रिवाज नहीं चला था और लकड़ी का कोयला रूपया सेर बिकने लगा था तब जाड़े में इन दोनों कविताओ को रेल से देश भर में घुमाया जाता था और रेलवे स्टेशनों इसके गुनगुने अक्षरों का स्पर्श करने के लिए भीड़ लगती थी। औरतें ऊन के गोले इन अक्षरों पर लुढ़कने देती थी ताकि वे उनसे चीन के साथ लड रहे फौजियों के लिए स्वेटर बुन सकें। नेहरू खुद ऐसे स्वेटर की लालसा भीतर लिए खुरदुरी अचकन पहने लगे थे।
कुछ कविता-टविता लिख दी तो
हफ़्ते भर ख़ुद को प्यार किया
बहुत सुंदर आत्मविवेचना !
सतीश
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