बीसेक साल पुरानी बात होगी. नैनीताल में पढ़ते हुए जब भी मौका मिलता था हम दो - चार दोस्त अक्सर रानीखेत की तरफ़ निकल जाया करते थे. रानीखेत से हम दोस्तों का अपनापा नैनीताल में पढ़ने वाले अपने दीप भाई की वजह से पैदा हुआ था और अब भी क़ायम है. दीप भाई रानीखेत के एक प्रतिष्ठित परिवार से ताल्लुक रखते हैं.
ख़ैर उन दिनों नैनीताल में पढ़ाई करते हुए, हमारी आवारागर्दी में शराब नामक तत्व की नई नई घुसपैठ हुई थी और झूठ क्यों कहूं उसमें काफ़ी मज़ा आने लगा था. शराब महंगी होती थी और पैसे नहीं होते थे. जैसे तैसे महीने में एकाध बार 'मिलौचा' करके चार-पांच यार लोग अद्धा खरीद लाते थे. उसी में बाका़यदा पार्टी हो जाया करती थी. तलब अलबत्ता हमेशा अधूरी ही संतुष्ट हो पाती थी.
इन विषम परिस्थितियों में दीप भाई रानीखेत में मिलने वाली इफ़रात दारू का आईना झलकाते झलकाते हमें जब तब वहां ले जाया करते थे. रानीखेत में कुमाऊं रेजीमेन्ट का मुख्यालय है और रानीखेत शहर देश के बचे-खुचे कैन्टोनमेन्टों में है. जाहिर है फ़ौजी भाइयों की मेहरबानी से सस्ती दारू की सप्लाई वहां सदैव ज़ोरों पर रहती है. यह शराब सस्ती होने के साथ साथ बिना मिलावट की भी होती थी. सुधीजन 'आर्मी की है' जुमले का महात्म्य समझते होंगे.
रानीखेत क्लब में हर बृहस्पतिवार को सिविलियनों के लिये चार बोतलें ऑफ़ीसर्स मैस से आती थीं. क्लब में एकाध साल पहले आग लगी थी और वह बिल्कुल उजड़ा हुआ रहा करता था. सन १९३२ से वहां काम कर रहे बहादुरदा (जो नब्बे से ऊपर के हो चुकने के बावजूद आज भी कार्यरत हैं) नाप नाप कर चार रुपये प्रति पैग के नियत रेट पर तबीयत हरी करने का सत्कर्म किया करते थे. चूंकि क्लब वीरान रहा करता था सो ज़्यादातर लोग वहां आग लगने के बाद से आना बन्द कर चुके थे और बृहस्पतिवार के इस कार्यक्रम की ख़बर बहुत गोपनीय तरीके से कुछ ही लोगों को मालूम थी. इस ख़बर को जानने वाले भाग्यशालियों में दीप भाई के कारण हम भी शामिल थे.
अक्सर बृहस्पतिवारों को हम लोग किसी न किसी बहाने से रानीखेत निकल जाया करते थे. बृहस्पतिवार की आधी रात को क्लब से मीठी नीमबेहोशी में बाहर निकलना रूटीन में शुमार हो गया था. हम लोग अक्सर वापस दीप भाई के घर की तरफ़ पैदल जाते हुए आर्मी स्कूल और एम ई एस कॉलोनी के आगे से गुज़रते थे. पहरेदार गश्त लगाया करते थे और हमें दूर से आता देख कर पहले सीटी बजाते थे, फिर ज़ोर से कुछ शब्द कहते थे और हमें नज़दीक से देख लेने के बाद उनका व्यवहार सामान्य हो जाता था. उनके बोले गये शब्द शुरू में मेरे ज़रा भी पल्ले नहीं पड़ा करते थे. असल में जानने की न ताब होती थी न इच्छा.
बाद में ध्यान देने पर अस्पष्ट तरीके से 'हुकुम सदर की फन्टश फूं' जैसा कुछ लगातार सुनाई देने लगा. अपनी ध्वन्यात्मकता के कारण यह काफ़ी आकर्षक लगने लगा.
एक बार मैं इस बात का ज़िक्र कई साल बाद अपने एक कर्नल दोस्त से कर बैठा. वह सुनकर हंसते हंसते दोहरा हो गया. सामान्य हो चुकने के बाद उसने जो बताया उसका सार कुछ यूं था:
इंग्लैण्ड में युद्ध के समय, रात को अपनी छावनियों की पहरेदारी कर रहे सैनिक को जब भी किसी तरह की मानवीय आहट सुनाई देती थी तो वह पूछा करता था : "Who comes there? Friend or foe?" इस की प्रतिक्रिया में दूसरी तरफ़ से मिलने वाले के उत्तर पर ही पहरेदार की अगली कार्रवाई निर्भर किया करती थी.
"Who comes there? Friend or foe?" ही इस पोस्ट के शीर्षक का ध्वन्यानुवाद है.
11 comments:
sahi hai guru.. :)
हा हा... पर मजाक़ को दरकिनार कर के सोचें तो आजकल का शहरी भारतीय जीवन भी पश्चिमी जीवन का ऐसा ही अनुवाद हो गया है. अर्थहीन.
muje yad aa gai wo ranikhet club ki saam,
deepu/prabhat da ko salam jo is clab ke darshan karaye,
sab kuch aaj bhe achaa lagta hai,
ashok da kabhi ja payange ab ranikhet club ?
pandey jee (press wale)almora se,bhatti main ghuss gaye ik roj..daru jyada ada lee the..
kya baat hai..
is bari bhimtal gaya to jibu kachyar, or deepu se jarur milenge..
sukria dost
आपने याद दिलाया तो ''हुकुम सदर'' का एक और मज़ेदार किस्सा याद आया।
गोरखपुर में कई साल पहले कवि सम्मेलन से कविगण आधी रात के बाद लौट रहे थे। कुछ पूरी तरह टुन्नायमान थे तो कुछ टौन्यावस्था की अलग-अलग मंज़िलों पर थे। कवि सम्मेलन टाउनहॉल में था और ठहराव की जगह पर जाने के लिए कचहरी के वीरान मैदान को पार करके जाना था। झूमते-बतियाते कवियों का काफ़िला चला जा रहा था कि रात के सन्नाटे को चीरती हुई एक कड़क आवाज़ गूँज उठी - ''हुकुम सदर!'' सारे कवि वहीं जमकर रह गए। लाठी की ठकठक सुनाई दी और फिर चौकीदार नज़र आया। लालटेन उठाकर एक-एक के चेहरे को देखा, पूछा कहाँ से आ रहे हो? किसी तरह उसे यकीन आया कि बात भले ही कविता-शविता की कर रहे हैं लेकिन लोग गड़बड़ नहीं लग रहे हैं। उसके टलने के बाद जुलूस आगे बढ़ा तो पता चला कि श्याम नारायण पाण्डे (हल्दीघाटी वाले वीर रस के कवि) तो नदारद हैं। आवाज़ लगाई गई तो पाण्डे जी ने एक वकील की चौकी के नीचे से झाँककर पूछा 'कौन था - चला गया?'
बहुत मजेदार किस्सा बताया। रानीखेत की याद भी आ गई।
घुघूती बासूती
मजेदार.
बहुत बढिया. पटना के किसी 'गर्दनिया बाज़ार' के बारे मे सुना था कि कहते थे आज़ादी के आन्दोलन के दौरान प्रदर्शनकारियो को ब्रिटिश इण्डिया पुलिस गर्दन से दबोच कर जेल ले जाने वाली गाडियो मे भरती थी इसलिये बाद मे उस ज़गह पर लगने वाले बाज़ार को लोग 'गर्दनिया' बाज़ार कहने लगे.
हकीकत ये थी कि वहा कम्पनी 'गार्डेन' था. 'गार्डेन' ही पहले 'गर्दन' और फिर 'गर्दनिया'बनकर बाज़ार के साथ नत्थी होकर हमारे 'राष्ट्रीय स्वाभिमान' का इज़ाफ़ा करने लगा.
रोचक। गिरमिटिया भी तो फंताश फूं की तरह ही अंग्रेजी शब्द का ध्वन्यानुवाद है।
हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा-हा...............
हरियाणे में आपको आज भी एक-आध चौकीदार अपने इस धर्म का निर्वाह थोड़े से अलग ध्वन्यानुवाद के साथ करते मिल जाएंगे। वे कहते हैं "हूकमदार फ़टाफ़ट"
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