Friday, June 20, 2008
शायरी मैंने ईजाद की
१९४६ में गाज़ीपुर में जन्मे अफ़ज़ाल अहमद सय्यद के माता-पिता बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए थे. फ़िलहाल कराची में रहकर पत्रकारिता करने वाले अफ़ज़ाल को हिन्दी पाठकों के सम्मुख लाने का बड़ा काम ज्ञानरंजन जी द्वारा संपादित पत्रिका 'पहल' ने किया था. 'पहल' का वह पूरा का पूरा अंक अफ़ज़ाल अहमद की कविताओं का चयन ही था. 'छीनी हुई तारीख़', 'दो ज़बानों में सज़ा-ए-मौत' और 'खेमः-ए-सियाह' उनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं. अफ़ज़ाल ने गज़लें भी काफ़ी लिखी हैं पर पाकिस्तान के बाहर उनकी ख्याति उनकी नज़्मों की वजह से फैली.
अफ़ज़ाल ने बड़े पैमाने पर अनुवाद का काम किया है. उन्होंने मिरोस्लाव होलुब, येहूदा आमीखाई, दुन्या मिखाइल, ताद्यूश रूज़ेविच, ज़्बिगिन्यू हेर्बेर्त, यान प्रोकोप, ताद्यूश बोरोव्स्की, विस्वावा शिम्बोर्स्का, अलैक्सांद्र वाट, मैरिन सोरेस्क्यू, ओसिप मैन्डेल्स्ताम और ओरहान वेली जैसे कवियों के उर्दू में तर्ज़ुमे किये हैं. अनुवादों की उनकी फ़ेहरिस्त में ज्यां जेने और गोरान श्तेफ़ानोव्स्की के नाटक भी हैं और गाब्रीएल गार्सिया मारकेज़ का उपन्यास 'क्रोनिकल ऑफ़ अ डैथ फ़ोरटोल्ड' भी.
भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े शायरों में शुमार किए जाने वाले अफ़ज़ाल अहमद ने बहुत पुरातन छवियों और विम्बों को बेहद आधुनिक शैली के साथ जोड़ कर अपना एक अलग अन्दाज़-ए-बयां ईजाद किया. आज प्रस्तुत है उनकी एक कविता:
शायरी मैंने ईजाद की
काग़ज़ मराकशियों ने ईजाद किया
हुरूफ़ फ़ोनेशियनों ने
शायरी मैंने ईजाद की
कब्र खोदने वालों ने तन्दूर ईजाद किया
तन्दूर पर कब्ज़ा करने वालों ने रोटी की परची बनाई
रोटी लेने वालों ने क़तार ईजाद की
और मिलकर गाना सीखा
रोटी की क़तार में जब चींटियां भी आकर खड़ी हो गईं
तो फ़ाक़ा ईजाद हुआ
शहवत बेचने वाले ने रेशम का कीड़ा ईजाद किया
शायरी ने रेशम से लड़कियों के लिये लिबास बनाए
रेशम में मलबूस लड़कियों के लिए कुटनियों ने महलसरा ईजाद की
जहां जाकर उन्होंने रेशम के कीड़े का पता बता दिया
फ़ासले ने घोड़े के चार पांव ईजाद किए
तेज़ रफ़्तारी ने रथ बनाया
और जब शिकस्त ईजाद हुई
तो मुझे तेज़ रफ़्तार रथ के नीचे लिटा दिया गया
मगर उस वक़्त तक शायरी मुहब्बत की ईजाद कर चुकी थी
मुहब्बत ने दिल ईजाद किया
दिल ने खे़मा और कश्तियां बनाईं
और दूर दराज़ के मुक़ामात तय किए
ख़्वाज़ासरा ने मछली का कांटा ईजाद किया
और सोए हुए दिल में चुभो कर भाग गया
दिल में चुभे हुए कांटे की डोर थामने के लिए
नीलामी ईजाद हुई
और ज़ब्र ने आख़िरी बोली ईजाद की
मैंने शायरी बेचकर आग ख़रीदी
और ज़ब्र का हाथ जला दिया
(ईजाद करना: आविष्कार करना, मराकश: मोरक्को, हुरूफ़: शब्द का बहुवचन, फ़ोनेशिया: भूमध्यसागर और लेबनान के बीच एक स्थान, फ़ाक़ा: भूख, शहवत: काम वासना, मलबूस: कपड़े धारण किए हुए, महलसरा: अंतःपुर, ख़्वाज़ासरा: हिजड़ा, ज़ब्र: दमन और अत्याचार)
* कल आपको अफ़ज़ाल की एक और कविता पढ़ने को मिलेगी.
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8 comments:
अशोक भाई बहुत बहुत शुक्रिया अफ़ज़ाल साहब की ये कविता हम तक पहुँचाने का. बहुत उम्दा.
सचमुच बेहतरीन कविता.आभार!
कबाड़खाना के पाठकों तक पहुंचाने का आभार! अच्छी कविता - अच्छा काम ! मेरे पास से ये संग्रह खो गया। लिप्यंतरण शायद विजय कुमार का है ?
शुक्रिया अशोक जी, इसे यहाँ साझा करने के लिए. अफ़ज़ाल साहब की और नज़्मों का इंतज़ार रहेगा.
धन्यवाद इस बेहतरीन कविता को यहाँ प्रस्तुत करने के लिए...और कविताओं का इंतज़ार रहेगा
और आपने ये तमीज़ ईजाद करवाई अशोक भाई कि आँखें खुली रखो और पढ़ो तो बहुत कुछ है ऐसा जो पढ़ा नहीं है ....जाना नहीं....सुना नहीं...गुना नहीं.....क्या ख़ाक किया मैने अभी तक
मरहबा मरहबा , और पंगेबाजी हमने इजाद की
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