Friday, July 18, 2008

जब केवल पाँच प्रश्न हुआ करते थे हल करने को, अनिवार्य थे कबीर

नैनीताल में कॉलेज हॉस्टल में एक कविता पोस्टर के माध्यम से आशुतोष ने हरीशचन्द्र पाण्डे नाम से परिचय कराया था. फ़क़त छः पंक्तियों की इस नन्ही सी कविता में पाण्डे जी हमारे घर-परिवार की एक करुण सच्चाई से आपका सामना कराते हैं:

पिता पेड़ हैं
हम शाखाएं हैं उनकी
मां छाल की तरह चिपकी पड़ी है पूरे पेड़ पर
जब भी चली है कुल्हाड़ी
पेड़ या उसकी शाखाओं पर
मां ही गिरी है सबसे पहले टुकड़े टुकड़े हो कर


बड़ी मुश्किल से खोजने पर कुछेक महीनों बाद इलाहाबाद से छपी उनकी कविताओं की एक बहुत ही दुबली सी पुस्तिका 'कुछ भी मिथ्या नहीं है' कहीं से हाथ लगी. एक से एक जटिल विम्ब इस कवि की सरल और सुग्राह्य भाषा में बहुत आसानी से प्रवेश करते चले जाते थे. इन विम्बों में गुंथे होते थे हमारे समय के सबसे ज़रूरी और मुश्किल सवाल भी. कहना न होगा मैं जल्दी ही हरीशचन्द्र पाण्डे जी का फ़ैन बन गया था और वह स्टेटस आज भी बरकरार है. इन सालों में उनसे कुछेक आत्मीय मुलाकातें हुईं और वे अपनी कविताओं की ही तरह एक बेहद सादगीभरे व्यक्ति के रूप में मेरे भीतर अपनी जगह बनाए हुए हैं.

१९५२ में जन्मे हरीश चन्द्र पाण्डे इलाहाबाद में महालेखाकार कार्यालय में नौकरी करते हैं. 'कुछ भी मिथ्या नहीं है' के लिए उन्हें १९९५ का सोमदत्त सम्मान दिया गया. कविताओं की उनकी पहली बड़ी किताब 'एक बुरूँश कहीं खिलता है' कुछ साल पहले छपी (साल मुझे याद नहीं आ रहा). हिन्दी जगत में इसे काफ़ी चर्चित पुस्तकों में गिना गया और उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के सर्जना पुरुस्कार से सम्मानित हुई. प्रतिष्ठित केदार सम्मान और ऋतुराज सम्मान भी इस कवि को मिल चुके हैं.

वर्ष २००६ में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उनका नवीनतम संग्रह 'भूमिकाएं ख़त्म नहीं होतीं' प्रकाशित हुआ है. पहली ही कविता 'एक दिन में' में वे कहते हुए इस संग्रह की टोन स्थापित करते हुए लिखते हैं:


... एक दिन में नहीं बन गयी पुस्तक

लेकिन
एक दिन में नष्ट किया जा सकता है कोई भी पुस्तकालय ...


काव्यात्मक प्रौढ़ता तो इस में है ही, नए जोखि़म उठाने का साहस भी इस संग्रह की कविताओं में नज़र आता है और अगर मैं भविष्य में उनसे बहुत बड़े काम की उम्मीद कर रहा हूं, तो यह मेरा विश्वास है.

इसी संग्रह 'भूमिकाएं ख़त्म नहीं होतीं' से प्रस्तुत हैं आपके लिए कुछ कविताएं:


एक दिन में

दन्त्य ‘स’ को दाँतों का सहारा

जितने सघन होते दाँत
उतना ही साफ़ उच्चरित होगा ‘स’
दाँत छितरे हो तो सीटी बजाने लगेगा

पहले पहल
किसी सघन दाँतों वाले मुख से ही फूटा होगा ‘स’
पर ज़रूरी नहीं
उसी ने दाख़िला भी दिलवाया हो वर्णमाला में ‘स’ को
सबसे अधिक चबाने वाला
ज़रूरी नहीं, सबसे अधिक सोटने वाला भी हो

यह भी हो सकता है
असमय दन्तविहीन हो गये
या आड़े-तिरछे दाँतों वाले ने ही दिया हो वर्णमाला को ‘स’
अभाव न ही दिया हो भाव

क्या पता किसी काट ली गयी जुबान ने दिया हो ‘ल’
अचूमे होठों ने दिया हो ‘प’
प्यासे कण्ठ ने दिया हो ‘क’
क्या पता अभवों के व्योंम से ही बनी हों
सारी भाषाओं की वर्णमालाएँ
और एक दिन में ही नहीं बन होगी कोई भी वर्णमाला...

ध्वनि शुरू हो इस यात्रा में
वर्णमाला तक
आये होगें कितने पड़ाव
कितना समय लगा होगा
कितने लोग लगे होगें !

दिये होंगे कुछ शब्द जंगलों ने कुछ घाटियों ने
कुछ बहाव ने दिये होंगे कुछ बाँधों ने
कुछ भीड़ के एकान्त ने दिये होंगे
कुछ धूप में खड़े पेड़ों की छाँव ने
कुछ आये होंगे अपने ही अन्तरतम से
और कुछ सूखे कुओं की तलहटी से
कुछ पैदाइशी किलकारी ने दिये होंगे
कुछ मरणान्तक पीड़ा ने
सुनी गयी होंगी ये सारी ध्वनियाँ सारी आवाज़ें
सुनने वाला ही तो बोला करता है

पहली बार बोलने से पूर्व
जाने कितने दिनों तक
कितने लोगों को सुनता है एक बच्चा
जाने कितने लोग रहे होगें
कितने दिनों तक
शब्दों को सुनने ही से वंचित

न सुनने ने भी दिये होगें कितने-कितने शब्द

एक दिन में नहीं बन गये अक्षर
एक दिन में नहीं बन गयी वर्णमाला
एक दिन में नहीं बन गयी भाषा
एक दिन में नहीं बन गयी पुस्तक

लेकिन
एक दिन में नष्ट किया जा सकता है कोई भी पुस्तकालय

बुद्ध मुस्कराये हैं

लाल इमली कहते ही इमली नहीं कौंधी दिमाग़ में
जीभ में पानी नहीं आया
‘यंग इण्डिया’ कहने पर हिन्दुस्तान का बिम्ब नहीं बना

जैसे महासागर कहने पर सागर उभरता है आँखों में
जैसे स्नेहलता में जुड़ा है स्नेह और हिमाचल में हिम
कम से कमतर होता जा रहा है ऐसा

इतने निरपेक्ष विपर्यस्त और विद्रूप कभी नहीं थे हमारे बिम्ब
कि पृथिवी पर हो सबसे संहारक पल का रिहर्सल
और कहा जाए
बुद्ध मुस्कराये हैं

ले देकर एक

कोई नहीं बच पाया इस असाध्य रोग से कहा उसने

वो नहीं बचा इलाहाबाद का और लखनऊ का वो
और वो तो दिल्ली जा कर भी नहीं बच पाया
और तो और मन्त्रीजी नहीं बच पाये लन्दन जाकर

उसने दस-बारह ऐसे और रोगियों के नाम लिये
फिर रोगी की ओर निराशा से देख कर धीमे से कहा
-बच नहीं पाएगा ये

दस-बारह क्या सैकड़ों रोगी थे उस असाध्य रोग के और
जो बच नहीं पाये थे

लेकिन पास ही खड़े उनके मित्र को याद नहीं आये वे सब
उसने कहा बनारस में हैं मेरे एक घनिष्ठ
जो पीड़ित थे इसी असाध्य रोग से
बहुत ही बुरी दशा थी उनकी
वे ठीक हो गये बिल्कुल और दस साल से ठीक-ठाक हैं
उसने रोगी की ओर देख कर कहा
-ये भी ठीक हो जाएगा

वही नहीं, जहाँ जो असाध्य रोगी मिला
उसने उससे यही बात कही कि बनारस में....

उसके पास ले-देकर एक उदाहरण था

यहाँ में कहाँ वह क़ुव्वत

यहाँ आटे की चक्की है

एक जंग लगे टिन को रगड़-रगड़
प्राइमर के ऊपर काला रंग पोत
सफ़ेद अक्षरों में लिखा गया है इसे
और टाँग दिया गया है बिजली के खम्भे के सीने पर

यहाँ आटे की चक्की है
इस इबारत के ठीक नीचे बना है एक तीर

यहाँ में कहाँ वह क़ुव्वत
कि ग्राहक को ठीक-ठाक पहुँचा सके चक्की तक

माना कि बड़ी सामर्थ्य है शब्द में

बैठक का कमरा

चली आ रही हैं गर्म-गर्म चाय भीतर से
लज़ीज़ खाना चला आ रहा है भाप उठाता
धुल के चली आ रही हैं चादरें परदे
पेंण्टिग पूरी होकर चली आ रही है
सँवर के आ रही है लड़की

जा रहे हैं भीतर जूठे प्याले और बर्तन
गन्दी चादरें जा रही हैं परदे जा रहे हैं
मुँह लटकाये लड़की जा रही है
पढ़ लिया गया अख़बार भी

खिला हुआ है कमल-सा बाहर का कमरा

अपने भीतर के कमरों की क़ीमत पर ही खिलता है कोई
बैठक का कमरा
साफ़-सुथरा सम्भ्रान्त

जिसे रोना है भीतर जा के रोये
जिसे हँसने की तमीज नहीं वो भी जाए भीतर
जो आये बाहर आँसू पोंछ के आए
हँसी दबा के
अदब से

जिसे छींकना है वहीं जाए भीतर
खाँसी वहीं जुकाम वहीं
हँसी-ठट्ठा मारपीट वहीं

वहीं जलेगा भात
बूढ़ी चारपाई के पायों को पकड़ कर वहीं रोएगा पूरा घर
वहीं से आएगी गगनभेदी किलकारी और सठोरों की ख़ुशबू

अभी-अभी ये आया गेहूँ का बोरा भी सीधे जाएगा भीतर
स्कूल से लौटा ये लड़का भी भीतर ही जा कर आसमान
सिर पर उठाएगा

निष्प्राण मुस्कुराहट लिये अपनी जगह बैठा रहेगा
बाहर का कमरा

जो भी जाएगा घर से बाहर कभी, कहीं
भीतर का कमरा साथ-साथ जाएगा

कबीर

(1)

सामने छात्रगण
गुरु पढा रहे हैं कबीर

सूखते गलों के लिए
एक काई लगे घड़े में पानी भरा है

गुरु पढ़ा रहे हैं कबीर
बीच बीच में घड़े की ओर देख रहे हैं

बीच-बीच में उनका सीना चौड़ा हुआ जा रहा है

(2)

कौन जाएगा मरने मगहर
सबको चाहिए काशी अभी भी
मगहर वाले भी यह सोचते हुए मरते हैं सन्तोष से

वे मगहर में नहीं
अपने घर में मर रहे हैं

(3)

इतनी विशालकाय वह मूर्ति
कि सौ मज़दूर भी नहीं सँभाल पाये
उसे खड़ा करना मुश्किल

पत्थर नहीं
एक पहाड़ पूजा जाएगा अब

(4)

एक नहीं
दसियों लाउडस्पीकर हैं
एक ही आवाज़ अपनी कई आवाज़ों से टकरा रही है
पखेरू भाग खड़े हुए हैं पेड़ों से
अब और भी कम सुनाई पड़ता है ईश्वर को

(5)

जब केवल पाँच प्रश्न हुआ करते थे हल करने को
अनिवार्य थे कबीर
आज अनगिनत प्रश्न हैं

* यहां भी देखें: नया साल मुबारक हो

11 comments:

Pratyaksha said...

बहुत बढिया ..खासकर एक दिन में ...

ghughutibasuti said...

सभी कविताएँ एक से एक बढ़कर हैं। आशा है कभी कवि की पुस्तकें मेरे हाथ भी आएँगी। पढ़वाने के लिए धन्यवाद।
घुघूती बासूती

Satish Saxena said...

जब केवल पाँच प्रश्न हुआ करते थे हल करने को
अनिवार्य थे कबीर
आज अनगिनत प्रश्न हैं
किसके थे कबीर ? हिन्दुओं के ? या मुसलमान के ?
पहले देशभक्त और समाज भक्त थे कबीर ! उन्होंने सिखाया था कि आपस में धर्म को लेकर मत लड़ो, उन्होंने दोनों को बीरा भला कहा था मगर कबीर दोनों के थे !
क्या अब कबीर कभी नही आयेंगे यहाँ ? कौन समझायेगा हमें ईमानदारी और निष्पक्षता ?

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

एक दिन में नहीं बन गयी पुस्तक
लेकिन
एक दिन में नष्ट किया जा सकता है कोई भी पुस्तकालय ...
बशीर बद्र साहब की लाइनें याद आ रही हैं:

उम्र कट जाती है एक घर बनाने में
उन्हें तरस भी नहीं आती बस्तियाँ जलाने में

Anonymous said...

वाह! ख़ासकर एक दिन में, बुद्ध मुस्कुराए हैं और बैठक का कमरा. और यह,

"एक नहीं
दसियों लाउडस्पीकर हैं
एक ही आवाज़ अपनी कई आवाज़ों से टकरा रही है
पखेरू भाग खड़े हुए हैं पेड़ों से
अब और भी कम सुनाई पड़ता है ईश्वर को"

सचमुच वाह!

Udan Tashtari said...

यहाँ प्रस्तुत करने का आभार. आनन्द आ गया.बहुत आभार.

शिरीष कुमार मौर्य said...

मंगलेश डबराल की एक प्रसिद्ध कविता में संगतकार का ज़िक्र आता है, जो अपने स्वर को ऊंचा न उठाने की कोशिश करता है और कवि उसे उसकी विफलता नहीं मनुष्यता के रूप में स्थापित करता है। समकालीन कविता के मुख्य स्वरों में देंखे तो कई नाम हैं, जिनकी कीर्ति दिग्दिंगत में गूँज रही है। इन मुख्य स्वरों में एक बेहद शांत और धैर्यपूर्ण आवाज़ लगभग संगतकार की-सी विनम्रता, मनुष्यता और सामर्थ्य के साथ रह-रहकर सुनाई देती रही है। यह आवाज़ बहुत ऊंची और बेहद प्रभावशाली तानों के जादू में खोये हुए मुख्य स्वरों के बीच कविता के स्थायी को पकड़े हुए एक अद्भुत सादगी से अपना काम करती है। इस आवाज़ का नाम हरीशचन्द्र पाण्डे है। वे समकालीन हिन्दी कविता के संगतकार हैं, जो आगे निकले हुए मुख्य गायकों को पीछे छूटे सामान की याद दिलाते हैं और कई बार उसे बटोरते-सहेजते भी हैं।

anurag vats said...

shirish ji ne bahut sateek likha hai...yh sangrah padha-guna hua hai...aur mn men yh baat bhi ghumad rhi thi ki kaise pandeyji ki idhar ki kavitaon tk phuncha jaye...is dhyanakarshan se kuch aur vikal hua hun...umeed hai ek din bhet jayengi unki nai kavitayen bhi...

Neeraj Rohilla said...

सारी कवितायें सहेज के रख ली हैं, बार बार पढेंगे । बहुत आभार,

इस एक ने तो विचलित कर दिया है:

इतनी विशालकाय वह मूर्ति
कि सौ मज़दूर भी नहीं सँभाल पाये
उसे खड़ा करना मुश्किल

पत्थर नहीं
एक पहाड़ पूजा जाएगा अब

Neelima said...

कविताए अच्छी लगीं !पढवाने के लिए शुक्रिया !

डॉ .अनुराग said...

एक दिन में बहुत कुछ मिल गया ,पिता वाली कविता तो सहेज कर रखने जैसी है.........बहुत बहुत शुक्रिया........