मालवा अंचल के जिन समर्थ रचनाकारों को देशव्यापी पहचान मिली है कविवर देवव्रत जोशी उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम है.प्रगतिशील विचारधारा के इस कवि का तेवर,कहन और शिल्प एकदम अनूठा है. दिनकर,सुमन,बच्चन और भवानीप्रसाद मिश्र जैसे स्वनामधन्य साहित्यकारों का स्नेहपूर्ण सान्निध्य देवव्रतजी को मिला है. वे सुदीर्घ समय तक रतलाम के निकट रावटी क़स्बे में प्राध्यापन करने के बाद अब रतलाम में आ बसे हैं.पिचहत्तर के अनक़रीब देवव्रत जोशी प्रगतिशील लेखक संघ में ख़ासे सक्रिय रहे हैं और अब जनवादी लेखक संघ की रचनात्मक गतिविधियों में संलग्न हैं.जब कबाड़ाखाना पर मेरे द्वारा लिखी जा रही इस पोस्ट के पहले मैनें उनसे रतलाम चर्चा की तो उन्होंने बताया कि पहली रचना १९४८ में लिखी थी और बस फ़िर लिखने का सिलसिला आज तक जारी है. देवव्रतजी ने बताया कि यशपाल और राहुल सांकृत्यायन का दर्शन जीवन की एक अविस्मरणीय अनुभूति है.कविता का संस्कार देवव्रत जोशी को अपनी कवि ह्र्दय माँ से मिला.जाने माने साहित्यकार श्यामू सन्यासी देवव्रत जोशी के चाचा थे जो जापान विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रमुख रहे.बहु-भाषाविद श्यामू सन्यासी का हिन्दी साहित्य जगत में बहुत सम्मान है.हाल ही में हिन्दी के सुपरिचित कवियों पर दूरदर्शन ने फ़िल्मांकन का सिलसिला शुरू किया है और ख़ुशख़बर यह है कि देवव्रत जोशी पर भी वृत्तचित्र का निर्माण हो चुका है , प्रसारण प्रतीक्षित है.
कवि अपने स्वाभिमान,शर्तों और तासीर के साथ ही जीता है और ज़माने की परवाह किये बग़ैर अपनी सोच और समझ से ही रचनाकर्म करता है. देवव्रत जोशी के संदर्भ में यह बात एकदम खरी उतरती है.
छगन बा दमामी देवव्रत जोशी का काव्य संकलन है जिसकी शीर्षक रचना को आज कबाड़खाना पर जारी कर रहा हूँ.दमामी यानी ढोल और अन्य कई वाद्य बजाने वाली वह प्रजाति जिसका संगीत संस्कार न जाने कितने परिवारों में मंगल का अवगाहन करता है. ये कविता दर असल में रावटी में रहने वाले एक सच्चे पात्र छगन बा का कथा चित्र है.हिन्दी साहित्य में ऐसी लम्बी और कथानकपूर्ण रचनाएं कम हीं पढ़ने में आती हैं ..वर्ण व्यवस्था और छुद्रों की अपमानजन स्थितियों और एक इंसान और कलाकार के रूप में स्पंदित उनके मनोयोगों का दस्तावेज़ है यह कविता.
छगन बा दमामी
ढोल पर अपनी मनपसन्द खाल का खोल चढ़ाकर
लाये छगन बा और गले में टॉंगकर
जायज़ा लेने लगे-धिंग-धिंग, ढनढनाट...
गूँज गयी गॉंव के गोयरे से लेकर
दिशाकाश तक
ढोल की आवाज़...
पास के रनिवास में गूँजी ढोल की ढमक
कि रानियों की आत्माएँ ख़ुश हो नाचने लगीं
कि फूल बनने लगीं चम्पे की कलियॉं ।
ठाकुरजी के मन्दिर की घंटी बजने लगी आपोआप
राजकुँवर और नानी-डोड़ियॉं और मनसबदार
ढोर-ढंगर-गाय-भैंस-सॉंप-बिच्छू
निकल आये बाहर।
आम का बौर और और महकने लगा
मतवाला होकर... कुएँ का पानी
कुएँ के गले तक भर आया।
छगन बा का नया ढोल
आज गॉंव के इस छोर से
उस छोर तक बज रहा...
यूँ कहें कि छगन बा का मर्दाना पौरुष ही
झनझना रहा लगातार।
दरअसल बात ये कि छगन बा ढोल पीटते नहीं,
बजाते थे तमीज़, प्यार और मनुहार के साथ।
तीज-तेवार-शादी-ब्याव में
दमामी छगन बा रुआबदार धोती-कुर्ते में सजे
सबके आगे चलते / कि बीमार, बुज़ुर्ग भी
इन्तज़ार करते कि कब मरें और छगन बा
अर्थी के आगे ज़िंदगी की तान उछारते
ढोल बजाते चलें आगे-आगे।
बड़े सुकून और स्वाभिमान और मस्तीभरे
दिन थे वे छगन बा के।
कि एक दिन पंडिज्जी के घर से न्यौता :
कि छगन दमामी आएँ और बच्चा पैदा होने की
ख़ुशी में घर आकर ढोल बजाएँ।
सुबह-सवेरे छगन बा ने ड्रेस पहनी,
साफ़े पर तुर्रा लगाया / और ठाकुरजी के मन्दिर में
धोक देकर पहुँचे पंडिज्जी के घर।
गॉंव के नाने-टाबर और जवान लोग भी
हुजूम बनाके, हल्ला करते मस्तमगन
चले पीछे-पीछे...
कुछ कानाफूसियॉं कि "आज तो मज़ा आ जाएगा
कि छगन बा पंडिज्जी के घर-आँगने
ऐसा बजाएँगे ढोल कि राजा की
बन्दूकों की आवाज़ दुबक जाएगी...'
पंडिज्जी के ओटले पर धोक देकर
छगन बा ने शुरू किया अपना चमत्कार
कि कुँवरानियों से लेकर गॉंव की बूढ़ी ठकरानियों तक
नीम-बबूल से लेकर बूढ़े बरगद-पीपल तक
सब एक नशे में झूमने लगे।
नवजात शिशु ढोल सुनकर भरने लगा किलकारियॉं
और बहू-मॉं के थन से उमड़ी
दूध की धार-नदी के वेग से।
पास खड़े गृहस्थ सन्त बाप्पा और
उनकी मुँहबोली बेटी मनु जीजी के साथ
मैं, उनका पुत्र देवव्रत, महसूस करूँ इस बखत,
इस घड़ी, मेरा भी नया जन्म हो रहा...
लगी ऐसी झड़ी ढोल के बोल की, कि गद्गद
हो गये गॉंव के बामण-बनिए-कुम्हार
तेली-चमार, जात और पद के प्रपंचों से मुक्त
एक दूसरे के और पास, और पास आ गये।
श्रोताओं, यह घटना साठेक बरस पुरानी
कि जब ढोल के साथ एकमेक हो गये थे
छगन बा दमामी।
और ये क्या कि लोगों ने देखा अचरच से
कि वे धड़ाम से गिरे ओटले पर!
गले में टॅंगा ढोल लुढ़कता आया पगडंडी पर।
सब चुप और हैरान-
जैसे समूचे गॉंव को सूँघ लिया सॉंप ने।
तभी गरजे पंडिज्जी-""ये क्या तमाशा?
हुजूम इकट्ठा करके नाटक करता है
बेहोशी का। झटपट उठ और बजा ढोल
कि मुहूर्त निकला जा रहा कम्बख़्त!''
पंडिज्जी की गर्जना से मूर्च्छा टूटी छगन बा की
बोल सुने कठोर कटार-से, छाती छेदनेवाले
फटाफट ढोल को गले में टॉंग
वे मुड़े घर की ओर हुंकारते हुए-
""गुलाम नहीं हूँ तुम्हारा
कि छोरे के जनम पर ढोल बजाने आया
मैं बजाता हूँ अपनी मर्जी से
और ढोल बजता मेरी मर्जी से।
पूछ लो यकीन न हो तो-
अपने भाटे के भेरुजी से, घोड़ाकुंड की मस्तानी,
लहराती नदी से पूछ लो,
पूछ लो मन्दिर में बैठे ठाकुर जी से।
ढोल पेले मुझमें बजता है-मेरी रग-रग में
नाड़ी-नाड़ी में डोलता... और मजबूर कर देता मुझे
कि मैं उसे बजाऊँ। ... आज भी जब
मैं और ढोल बज रहे थे साथ-साथ और
पूरा गॉंव बज रहा था सीने में / और जब
ख़ुशी से नहाया मैं बेसुध गिर पड़ा ओटले पर
तो तुम कहते तमाशा!!''
""उठ और बजा ढोल ! हेकड़ी छोड़'',
गरजे पंडिज्जी।
""तो सुनो पंडिज्जी, बाबजी और गॉंव के सारे साबजी!
आज से नहीं बजाऊँगा ढोल-किसी के
जनम पर / किसी की मौत पर / किसी शादी-ब्याव में
तीज-तेवार पर नजर नी आवेगा छगन -
गले में ढोल बॉंधे।
पंडिज्जी, तुमने मुझे बिकाऊ ढोली और मेरे ढोल को
मरे चमड़े की खोल समझा, बस!
गुलाम नहीं मैं / और मेरा ढोल किसी के।
इसे आज, अभी टॉंगता हूँ खूँटी पे''
फिर गरजे छगन बा- ""मेरा कोई पूत,
पोता, आनेवाली पीढ़ियॉं हाथ नहीं लगावेगी इसको''
आज तो छगन बा तमतमाए हुए
साक्षात् भेरुजी लग रहे थे
पूरे गॉंव को।... और तब
एक जानखाऊ सन्नाटा पसर गया था सब तरफ़
छगन बा का प्रण सुन, टुकुर-टुकुर
ताक रहे थे लोग।
सिर झुकाये खड़े थे पंडिज्जी
रुक गयी थी नदी की धार
पहाड़ों ने सिर झुका लिये थे
पेड़ खड़े थे चुपचाप
साक्षी थी निस्तब्ध पृथ्वी और समूचा आकाश।
नवजात शिशु किलकारी भूल, रोने लगा था
और नद्दी की धार की ऱफ़्तार से उमगता
नयी मॉं के थन का धूध जम गया था औचक।
अन्धड़ और आँधियॉं थम गयी थीं
सूरज सिमट-सकुचाकर बरफ़ का गोला बन गया था।
श्रोताओं, यह एक दलित कलाकार की आत्मा
का रोष था / धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ा तीर
कठोर प्रतिज्ञा का / छूट गया था,
कभी वापस न आने के लिए।
- एक युद्धरत महाभारत को स्तब्ध और
सुन्न करता हुआ... अदृश्य कृष्ण और
भीष्म और विदुर सहित कुन्ती और
पांचाली ने महसूस किया - प्रतिज्ञा हो तो ऐसी!
और उस दिन से छगन बा दमामी
रोटी कमाने सिर्फ़ ढोलक बजाते
कथा-सत्संग में। एकान्त में कभी
देखते खूँटी पर टॅंगे ढोल को
देखते पथराई आँखों... और ढोल देखता
बोलता उनसे बिना बजे।
(दोनों के हाहाकार इतिहास में दर्ज़
नहीं... बची यह आपके कवि की आँखों
देखी काव्यकथा कि किंवदन्तियॉं सच से
ज़्यादा विश्वसनीय होती हैं।)
श्रोताओं, छगन बा छोटे-से आदमी,
लेकिन सिर से पैर, दिल से दिमाग़ तक
सिर्फ़ कलाकार कौल के पक्के।
हेकड़बाज़, तीखे तेवर वाले, हॉं, वे
अपने पूर्वज हरिदास और कुम्भन के खरे वंशज!
आज तुम्हारी बहुत याद आयी छगन बा
बरसों बाद जब मेरे घर-आँगने
पोती जनमी / तुम्हारी ढोल पर बजती
पनिहारिन की धुन सुनी मैंने उसकी किलकारी में
और फिर दिखे तुम - अतीत की आँखों में
साफ़े पर तुर्रा लगाए -
पाखंडी पंडितों और
ध्वजाधारियों को धता बताते,
उनकी औक़ात जताते।
रेखांकन:सुमंत गोले,इन्दौर
9 comments:
संजय भाई - हॉस्टल में भूपेंद्र साथ में पढता था - मालवा का ही था (जावर ?) - चमकती खिसकती आंखों वाला फुटबाल का गोलकीपर - "पेले" "नी" "भेरू जी" "भटे" के साथ-साथ, ढोल के साथ, अनायास बज गया - अंत में मैं तो ढोल की भी सोच रहा था - साभार मनीष
Very good......
अरे वाह !
देवव्रत जोशी के तो हम भी फ़ैन हैं . उनके दो गीत भी 'अनहद नाद' पर मौजूद हैं :
http://anahadnaad.wordpress.com/2008/05/08/devavrat-joshi-geet-rajadhaanee-kee-dhaj/
http://anahadnaad.wordpress.com/2008/05/06/devavrat-joshi-geet-kumbhandaas/
बहुत आभार.
संजय भाई,
इतनी अच्छी रचना से परिचित करवाने के लिये आभार!
अशोक पांडे से निवेदन है कि कुमाऊं के लोक कलाकार झूसिया दमाई का / के बारे में कुछ प्रस्तुत कर सकें तो आनंद आ जा जाय!
इस शानदार पोस्ट ले लिए संजय भाई को बधाई और 'कबाड़खाना' को डाकखाना मानते हुए यह निवेदन कि दद्दा मैंने आपको सलिल दाते की अलबम के लिए गुजारिश की थी, याद दिला रहा हूं, अनुरोध अब भी बरकरार है!
इस कविता की तुलना मंगलेश डबराल की "केशव अनुरागी" से की जा सकती है।
संजय भाई आपने वो कविता जरूर पढ़ी होगी !
एक अच्छी पोस्ट के लिए शुक्रिया।
तुम्हारा ब्लॉग कभी-कभी ही देख पाता हूं। लेकिन मजा आ रहा है। बहुत सी जरूरी सूचनायें भी मिल जाती हैं।
राजीव लोचन साह
सिध्दु दा.
राम राम.
पता ईमेल कर दीजिये...सलिल की बाँसुरी रवाना करता हूँ.
बहुत ही सुंदर कविता, मन से आह निकला, हां मुझे भी शुरू में केशव अनुरागी की याद आई।
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