प्राथमिक स्तर की अपनी पढ़ाई-लिखाई 'बोरिस कानवेंट' में बड़े मौज में हुई और बाकी तमाम मौजों के साथ उस समय गजब की एक मौज यह थी कि महीने - दो महीने में 'इटैलियन स्टाइल' में बाल कटवाने का लुत्फ़ मिला करता था. यह बोरिस कानवेंट कहीं और नहीं अपने ही गांव मिर्चा में था और यह दीगर बात है कि उसकी दीवारों पर बे.प्रा.पा.( बेसिक प्राईमरी पाठशाला ) लिखा हुआ था .पाठशाला के तीनों कमरों और एकमात्र ओसारे की छत गायब थी और हम भविष्य के कर्णधार प्राय: महुए के पेड़ के नीचे निज-निज गृह से लाया हुआ बोरा या बोरिया बिछाकर इमला,नकल,अंकगणित,पहाड़े आदि पढ़ा करते थे. अध्ययन के इस अनव्रत क्रम में तख्ती, कापी, किताब,स्याही-दवात व सरकंडे की कलम की जितनी अनिवार्यता थी उतना ही अथवा उससे कहीं अधिक अनिवार्य उपादान बोरा या बोरिया था. अब आप ही विचार करें कि अपने उस स्कूल को 'बोरिस कानवेंट' न कहें तो और क्या कहें? अब रही बात 'इटैलियन स्टाइल' में बाल कटवाने की तो आप यूं समझ लें कि 'जम्बू द्वीपे - भारतखंडे' के तत्त्कालीन पूर्व रेलवे के मुगलसराय और बक्सर स्टेशनो के बीच अवस्थित दिलदारनगर नामक जंक्शन के रेलवे फ़ाटक के अगल-बगल विराजमान नाई महाराज एक ईंट पर बैठे हैं और दूसरी ईंट पर उनका सम्मानित ग्राहक तथा धड़ाधड़ काट रही है कैंचियां, उछल रहे हैं उस्तरे. अगर आपने यह दृष्य देख रक्खा है तो ठीक नहीं तो कल्पना करने कोशिश करें, संभवत: समझ में आ जाय इटैलियन स्टाइल की हेयर कटिंग. अब साहब ! ऐसे माहौल से आने वाले बन्दे का अंग्रेजी ज्ञान कैसा होगा क्या बतायें? वैसे यह भी सच है बिना बताए आप समझ भी नहीं पायेंगे. सो बताना यह है कि इस बन्दे ने छठवीं कक्षा से ए.बी.सी.डी. सीखनी शुरू की और उस्तादों की इनायत व खुद की लगन का परिणाम यह रहा कि आर.के.जी.ए.वी. इंटर कालेज,दिलदारनगर,जिला-गाजीपुर यू.पी. में हाईस्कूल और इंटर दोनो में अंग्रेजी में टॊप किया किया. आगे की पढाई अंग्रेजियत के तलछट वाले शहर नैनीताल में हुई. मतलब यह कि हर तरफ़ अंग्रेजी ही अंग्रेजी. अब ऐसे होनहार के अंग्रेजी ज्ञान का मुजाहिरा न हो तो बहुत नाइंसाफ़ी होगी. इसलिए पेश हैं इन पंक्तियों के लेखक के विद्यार्थी जीवन के जीवंत अंग्रेजी ज्ञान के तीन जीवित नमूने -
नमूना नंबर वन / क्लास- सेवेंथ (बी) -
अंग्रेजी मास्साब ने छमाही इक्जाम के लिए 'माइ स्कूल' शीर्षक से एस्से तैयार करवाया था लेकिन गजब तो यह हुआ कि पेपर में प्रश्न कुछ और ही आ गया. प्रश्न था - 'राइट ऐन एस्से ऒन योर स्कूल' . थोड़ी देर के लिए तो अपना सिर चकरा गया था, फ़िर लगा छपाई की गलती से ऐसा हो गया होगा.मास्साब से मिनमिनाते हुए कुछ कहा तो उन्होंने ऐसे घूरा कि ....अब तो बस्स यही बाकी था कि अक्ल के घोड़े दौड़ाओ, जितना दौड़ा सको. मरता क्या न करता, दौड़ा दिया जी टॊप गियर में, कच्ची गोलियां तो खेली नहीं थी. याद किए एस्से में जहां-जहां 'माइ' था वहां-वहां 'योर' कर कर दिया, मसलन- याद किया था कि 'माइ स्कूल्स नेम इज..डैश-डैश..' और लिखा 'योर्स स्कूल्स नेम इज...डैश-डैश..' . जहां - जहां 'माइ', वहां - वहां 'योर'.कोई नकल नहीं ,कोई मिलावट नहीं - एकदम खांटी,एकदम प्योर.. अब यह न पू्छिएगा कि कुछ दिनों बाद कापी दिखाते वक्त क्लास सेवेंथ (बी) में क्या ड्रामा हुआ था ? इतने विलक्षण, इतने प्रतिभाशाली विद्यार्थी की क्या गत्त बनी थी?
नमूना नंबर टू / क्लास- एम. ए। -
एक जन थे अरविंद के. पांडेय - एम.एस-सी.(केमेस्ट्री) के स्टूडेंट. वे हमारी तरह गांव-गिरांव से नहीं बल्कि दिल्ली से आए थे और फ़र्र-फ़र्र इंगलिश बोला करते थे, वे गिटार बजाकर अंग्रेजी गाने भी गाया करते थे और ब्रुकहिल छात्रावास के सभी विद्यार्थियों को 'डार्लिंग' कह कर संबोधित करते थे.तमाम रईसी शौको के साथ पांडेय जी को लॊन टेनिस खेलने का शौक भी था. एक दिन शाम के वक्त उन्होंने होस्टल में अपन को फ़ोन कर कहा - 'डार्लिंग,मैं न्यू क्लब टेनिस खेल रहा रहा हूं. इफ़ यू आर कमिंग डाउनटाउन काइंडली ब्रिंग माय ब्लेजर. एंड अगर मैं कोर्ट पर न मिलूं तो मार्कर से पूछ लेना कि मैं क्लब में कहां हूं और क्या कर रहा हूं' .खैर, ब्लेजर लेकर अपन कोर्ट पहुंचे तो मिस्टर पांडेय नहीं दिखे. अंदर क्लब में जाकर रिसेप्शन पर ठसकेदार अंग्रेजी में पूछा- 'एक्स्क्यूज मी,ह्वेयर आइ कैन फ़ाइंड मिस्टर मार्कर?
'मिस्टर मार्कर?
रिसेप्शन - पुरुष भकुआया-सा ताकने लगा. शायद वह मेरे अंग्रेजी ज्ञान को भांप गया था.बोला- 'आपको काम क्या है? किससे मिलना है? मार्कर नाम का कोई मेंबर नहीं है इस क्लब में' .
'यह कोट अरविंद पांडे जी को दे देना' कहकर अपन मालरोड की ओर खिसक लिए. रात को डिनर के समय जब यह किस्सा छिड़ा तो खूब मौज हुई.अरविंद के. पांडेय - एम.एस-सी.(केमेस्ट्री) के स्टूडेंट ने फ़रमाया - ओ डार्लिंग, ओ माय गुडनेस, मार्कर कोर्ट में लाइन खीचने वाले या चूना डालन वाले सहायक कर्मी को बोलते हैं'. अब भाई लोग-बहन लोग ,अपना क्या दोष? अपन तो मार्कर को मार्कर सरनेम धारी कोई जेंटलमैन समझ बैठे थे.
नमूना नंबर थ्री / क्लास- पी-एच. डी। -
दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में लेक्चरर का ईंटरव्यू देने जाना हुआ. जे.एन.यू. में एक दोस्त के साथ ठहरे. वह उसी दिन कोई प्रतियोगी परीक्षा देने ग्वालियर निकल लिया. अपन निपट अकेले. पूर्वांचल से ६६६ नंबर की बस पकड़ी, गंगा के सामने गिरे, चोट खाई, बस कंडक्टर की गालियां झेलीं और मरहम-पट्टी से लैस होकर कर इंटरव्यू दिया. अगले दिन तक दोस्त लौटा नहीं था. सितम्बर की उमस भरी गर्मी, पट्टी बदलवाना जरूरी परंतु यह हो तो कहां -कैसे? अपनखरामा-खरामा मुनीरका पहुंचे. थोड़ा ध्यान देने पर एक क्लीनिक दिखा तो लपक कर शीशे का दरवाजा अंदर ठेलते हुए अंदर पहुंचे और सोफ़े पर उठंग लिए. अंदर का मंजर इतना मोहक,मारक और मादक था कि क्या कहने. सुंदर-सुंदर देवियां और बला की बालायें. एक भी अकेली नहीं सबके सथ कम से कम एक सुंदर श्वान और अपन निपट अकेले, संग में न कुत्ता न बिल्ली. जब वहां विद्यमान मनुष्यों और पशुओं की निगाहें मुझी टिक गईं तो दिमाग में भार्गव बुक डिपो चौक वाराणसी द्वारा प्रकाशित 'भार्गवा'ज स्टैंडर्ड इलस्ट्रेटेड डिक्शनरी' के पन्ने घूमने लगे.अरे यार ! बाहर 'पेट्स क्लीनिक' का बोर्ड लगा था,पी.ई.टी. पेट,पेट माने पालतू जानवर, यह तो कुत्तों का अस्पताल है ,भागो. अब साहब ! इसमें अपनी क्या खता थी ,अपन तो यही समझ के घुस लिए थे कि यह पेट्ट सरनेम धारी किसी डाक्टर का क्लीनिक होगा .दुनिया में तरह - तरह के नाम-सरनाम होवें है!
उपसंहार-
अब तो भई बात यह है कि अंग्रेजी भाषा जो न कराए वह कम है ! शायद इसीलिए तो अंग्रेजी में दम है ! ! ऊपर लिखे तीन किस्सों के आधार पर अब यह न समझ लीजिएगा कि इस बन्दे का अंग्रेजी ज्ञान कुछ कम है ! ! !
जय कबाड़ - जय जुगाड़ !
18 comments:
सितारगंज वाले सेन्ट मल्होत्रा पब्लिक मान्टेसरी स्कूल की क़सम, भौत मौज आई बाऊजी! उत्तमोत्तम कबाड़! जै हो बाबा गाज़ीपुरी लमझन्नैट की!
मैने अंग्रेजी नाम वाले इंग्लिश स्कूलों में पढाई की...वुडलैंड ऐकाडमी,फिर बीरशीबा सीनियर सैकेंडरी स्कूल..अंग्रेजी..बहुत साल से पढ़ा रहा हूं...लेकिन अभी भी कई सब्जियों तक के अंग्रेजी नामों का पता नहीं है...कई बार मामला फंस जाता है...दरअसल अंग्रेजी बोले वाले अस्सी फीसदी लोग HMT वाले हैं..एचएमटी यानी हिंदी मीडियम टाइप.. अपने स्कूल में हिंदी के अलावा सारे पिरड अंग्रेजी में थे..लेकिन दिमाग का हिंदी वाला हिस्सा सबसे ज्यादा काम करता था...अब भी करता है..यकीन जानिये..सरपट अंग्रेजी बोलने वाले अस्सी फीसदी शहरी बच्चों की लिखने वाले अंग्रेजी खराब ही निकलेगी..घर से टाट की बोरी लाकर पढ़ना..और अंग्रेजी में फर्स्ट क्लास लाना..कमाल है...सलाम है..
विपिन देव त्यागी
हा हा... माई के जगह योर
वैसे ये तो बताए ही नही की जब कापी चेक हूई तो कितने नंबर(मार) मीले(खाए) थे आप?
बहुत मजबूत अंग्रेजी है जी आपकी! बहुत पढ़ लिये।
भाई साहब आप तो बड़े मजबूत निकले...। मैं भी इसी बिरादरी से हूँ। बस सेन्ट बोरिस का सुख केवल दो साल मिल सका था, इस लिए इतनी मजबूती नहीं आ पायी।
ऐसे किस्से मुझे इलाहाबाद के जी.एन. झा हॉस्टेल में देखने को मिले थे।
आप अच्छा लिख्ते हैं। किसी खास नाम पर ब्लाम् होना और उस पर वैरायटी में लिखना बेहद पेचीदा होता है। आप इसको बखूबी अंजाम दे रहे हैं। आपकी रूचि क्रिकेट में भी है जानकर अच्छा लगा।
इस कमबख्त अंग्रेजी ने जो न कराया हो वो कम है......मजेदार किस्से रहे!
हिला कर रख दिया आपने..
हम भी सेंट टाटपट्टी स्कूल से पढ़े हैं। एक किस्सा हम भी सुनाएंगे कभी हां मगर पिटने का डर है।
रोचक विवरण, ऐसा लगा जैसे बचपन के दिन और अंग्रेजी के साथ मेरी मुठभेड़ ताजा हो गई हो।
bahut achhe!
गज़ब कर दिया,अन्ग्रेज़ो से सारा हिसाब चूकता कर दिया
अंग्रेजी बहुते जालिम भासा है...माई स्कूल याद करो तो पेट एनीमल काऊ भूला जाता था ....पुराने दिन याद करके आन्नद आ गया....धन्य हो प्रभु....
बहुत बढ़िया, पुराने दिनों की याद दिला दी , हम में से ज्यादातर इसी दौर से गुजरे हैं।
Nice blog keep up the good work...
Great Sidheswar! I first thought you are talking of Arvind Upadhyaya. Later I remembered Arvind pande, The Seenkia pahalwan.
This is a beutiful piece of work. Isko kahin or bhi chepo.
best wishes,
Prem
बुरी अंग्रेजी के विषय में आप अच्छे हैं पर इस विषय के पीएचडी तो हम ही हैं। आज भी किसी को भी टक्कर दे सकते हैं।
मिस्टर मार्कर... हा हा हा ये भी खूब रहा।
बहुत मजेदार पोस्ट, अपने राबाइका (राजकीय बालिका इंटर कॉलेज) वाले दिन याद आ गए जहां हमें बैठने के लिए बोरियां भी नसीब नहीं होती थी।
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