Monday, September 22, 2008

प्रकृति कविता है, मनुष्य गद्य या कथा



श्रीनरेश मेहता
प्रकृति न तो कृपण और न ही पक्षपात करती है। यदि वह नदी, पहाड़ या वनराशि बनकर खड़ी या उपस्थित है तो वह सबके लिए है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसे कितना ग्रहण करते हैं। वस्तुतः प्रकृति कविता है और मनुष्य गद्य या कथा। प्रकृति को अपने होने के लिए किसी अन्य की उपस्थिति की अपेक्षा नहीं होती। वह वस्तुतः ही सम्पूर्ण है लेकिन मनुष्य नहीं। अपनी पूर्णता के लिए मनुष्य को अन्य की उपस्थिति ही नहीं, सहभागिता भी चाहिए होती है। यह सहभागिता ही वह घटनात्मकता है जिसके बिना मनुष्य का अक्षांश-देशांतर इस देशकाल में परिभाषित नहीं किया जा सकता। अपने देशकाल के साथ यह संबंध-भाव ही सारी लिखित-अलिखित घटनात्मकता या कथात्मकता को जन्म देते हैं। संबंध, वस्तुतः मनुष्य का भोग रूप हैं। व्यक्तियों और वस्तुअों के माध्यम से यह भोगरूप प्रतिफलित होता है। शायद इसीलिए प्रकृति में विशाल पर्वत, उत्कट नदियां, प्रशस्त रेगिस्तान आदि कोई पात्र या चरित्र नहीं हैं। इन सबकी उपस्थिति काव्य-बिम्बों की भांति होती है और उपरान्त मौन घटनाहीनता में तिरोहित हो जाती है। चाहे वह नदी का समुद्र में विलीन होना हो, कविता होना है, कभी कथा नहीं। शताब्दियों से हवाएं और अंधड़ सहारा के असीम बालू व्यक्तित्व को उलट-पुलट रहे हैं, सूर्य, धूप की भट्टी में सबको रोज तपा रहा होता है परन्तु रेगिस्तान हैं कि अपने पर कविता का यह झुलसा वस्त्र नहीं उतारता। लेकिन इसके ठीक विपरीत मनुष्य है, वह अपने घर की दीवारों पर ही नहीं बल्कि देशकाल की दीवारों पर भी कीलें गाड़ कर वस्त्र, चित्र या और कुछ टांगकर निश्चिन्त होना चाहता है। और यहीं से मनुष्य और प्रकृति में अंतर या दूरी आरंभ हो जाती है। सूर्यास्त चित्र बनकर अपनी सारी गतिशीलता खोकर जड़ हो जाता है। चित्रवाला सूर्यास्त जड़ है लेकिन आकाश वाला नहीं।
इसी प्रकार संबंधों को जब हम भोग बना लेते हैं तब वे जड़ हो जाते हैं। तब वे या तो सुख या दुःख देने लगते हैं। चूंकि सुख क्षणिक होता है, इंद्रियगत होता है इसलिए इंद्रिय-तृप्ति के बाद वही दुःख में परिणत हो जाता है। शायद हमारे चारों अोर इस ताने-बाने को कथा या उपन्यास कहते हैं। वैसे उन दिनों ऐसा विश्लेषण करना संभव नहीं था, लेकिन प्रकृति से संलाप करना सीख रहा था।
हम अनिकेतन (मेरे लेखन के पचास वर्ष) से साभार
पेंटिंगः रवींद्र व्यास

4 comments:

PREETI BARTHWAL said...

बिलकुल सही प्रकृति कविता ही है।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

अच्छा लगा पढ़कर
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चन्द्रकुमार

दीपा पाठक said...
This comment has been removed by the author.
दीपा पाठक said...

अच्छा आलेख लेकिन साथ में लगाई गई पेंटिंग शब्दों से कहीं अधिक प्रभावशाली। आपके चित्रों में प्रकृति के रंग बहुत ही खूबसूरती के साथ उभरते हैं। बहुत सुंदर।