Monday, September 29, 2008

शायरी के मैदान में, कोमल, हरी दूब...महबूब



समय जिन लोगों के साथ सौतेला व्यवहार करता है उनमें से एक हैं रमेश शर्मा ’महबूब’ इन्दौर में रहते हुए नगर पालिक निगम में बरसों मुलाज़िमत की.पूरा जीवन ही ग़रीबी और अभावों की दास्तान रहा. श्रमजीवी और फ़क़ीराना अंदाज़ से ज़िन्दगी बसर करने वाले महबूब को डॉ.शिवमंगलसिंह सुमन जैसे समर्थ वरिष्ठ कवियों का प्रेमपूर्ण सान्निध्य मिला. कविता के साथ महबूब ने हिन्दी ग़ज़ल में भी अजूबे किये. इन ग़ज़लों में ज़िन्दगी,समाज और परिवेश का दर्द चीख़ता सा सुनाई देता है.कहीं कहीं व्यंग्य का टोन भी बख़ूबी मौजूद है महबूब की रचनाओं में.एक शेर मुलाहिज़ा फ़रमाएँ;

यह न प्रकाशित हो पाएगी ख़बर किसी अख़बार में ,
सारी रात नर्तकी नाची अंधों के दरबार में !



वरिष्ठ कवि और महबूब के अनन्य सखा श्री नरहरि पटेल कहते हैं......

‘महबूब' नाम के इन्सानी चोले में एक निहायत नेक और मौलिक रूह बसती है। आधुनिक कविता/शायरी में "महबूब' जैसे संवेदनशील रचनाकार की बड़ी अनदेखी हुई है, क्योंकि अपने समग्र प्रकाशन के लिये उनकी जेब हमेशा ख़ाली रही और मंच पर चमकने-दमकने के लिये उन्हें कोई "जेक' लगाना नहीं आया! आज उन जैसे सीधे-सादे मौलिक क़लमकार में इंसानी करुणा देखते ही बनती है! "महबूब' ने हमेशा ज़िंदगी की क्रूर वास्तविकता और संवेदनहीनता पर बेशक़ीमती रचनाएँ रची हैं। अपने समय के शीर्ष और जुझारू समर्थ कवि बालकृष्ण शर्मा "नवीन' ने जब उन्हें पहली बार सुना तब भरे समारोह में नवीनजी की आँखों से अश्रुधारा बह चली थी। उनके ये आँसू ‘महबूब' की प्रेरणा बने।

‘महबूब' की शायरी में सादगी और गहराई है। सामाजिक प्रदूषणों और उपयोगितावादी तौलिया-संस्कृति के दूषित तटबंधों को निरंतर तोड़ती रही है ‘महबूब' की शायरी। संघर्षरत जीवन जीने वाले इस फ़ाक़ामस्त भावुक शायर की चंद बानगियॉं ख़ुद पता देती हैं कि उनके रचाव में ईमानदारी और अपने समय की बेहाली को दर्शाने की कितनी ताक़त है ! ख़ास बात यह है कि उन्होंने शायरी की किसी पाठशाला या कालेज का कभी मुँह नहीं देखा। शायरी उन्होंने अनुभूतियों की किताब-क़लम से ही पढ़ी-लिखी। सचमुच ‘महबूब' दिखने, लिखने और रहने में मालवा के बाबा नागार्जुन हैं।

कबाड़ख़ाना पर एक अपरिचित काव्य हस्ताक्षर को प्रस्तुत कर मन विशेष ख़ुशी का अनुभव कर रहा है.तसल्ली से यदि आप महबूब की रचनाओं को पढ़ सके तो शायद यही इस संघर्षशील शायर के प्रति एक सच्ची आदरांजली होगी.आपकी टिप्पणियाँ उन तक पहुँचाकर मैं अपने आपको भी धन्य समझूँगा.

(१)
ख़ूबसूरत प्यारी-प्यारी औरतें
द़फ़्तरों में न्यारी-न्यारी औरतें

औरतें कुछ हैं ग़रीबी की शिकार
कुछ नज़र आईं शिकारी औरतें

कुछ तो हैं वी.आय.पी. की सूटकेस
कुछ नज़र आईं सफ़ारी औरतें

साग-भाजी लेके घर जाती हुईं
द़फ़्तरों से थकी-हारी औरतें

द़फ़्तरों में इन दिनों ‘महबूब' जी
जा रहीं घर से हमारी औरतें

(२)
मेहमॉं आएँगे, ख़बर आई है
न नमक है, न घर में राई है

न तो नीचे से ज़ेब में आटा
और न ऊपरी कमाई है

कुर्सियॉं किनके साथ जाएँगी
कुर्सियॉं किनके साथ आईं हैं ?

आप घर आयेंगे, पछताएँगे
न चटाई, न चारपाई है

भूख खाना बनाने बैठी है
पूछती है दियासलाई है ?

मक़्ता ‘महबूब' का लगा होगा
ये ग़ज़ल दर्द ने सुनाई है

(३)
दरख़्तों की कटाई हो रही है।
परिन्दों की बिदाई हो रही है।।

अपाहिज की तरह मौसम खड़ा है।
दिसम्बर में जुलाई हो रही है।।

तऱक़्क़ी आदमी ने इतनी की है।
जहॉं गड्ढे थे खाई हो रही है।।

शहर बदबू से जाना जा रहा है।
शहर भर में सफ़ाई हो रही है।।

दुल्हन बिन ब्याहे अपने घर गई है।
हमारी जगहॅंसाई हो रही है।।

करेंगे दोस्ती कल ख़ूब पक्की।
हमारी हाथापाई हो रही है।।

नहीं ख़ाली है दिल ’महबू’ साहब।
किसी से आशनाई हो रही है।।

(४)
सपने सजा रहा हूँ मैं मछली की आँख में
एक घर बना रहा हूँ मैं मछली की आँख में

आये हो मेरा काम ज़रा देखकर जाना
हीरा बिठा रहा हूँ मैं मछली की आँख में

देखो जो सजावट को तो तारीफ़ भी करना
दुनियॉं सजा रहा हूँ मैं मछली की आँख में

काजल ही मेरे पास है और कुछ भी नहीं है
काजल लगा रहा हूँ मैं मछली की आँख में

देखोगे अगर ग़ौर से हर चीज़ दिखेगी
दुनिया दिखा रहा हूँ मैं मछली की आँख में

’महबूब' कहॉं दिल है हमें भी तो बताओ
हॅंसकर बता रहा हूँ मैं मछली की आँख में

(५)
अब चैन किसको आता है घर छोड़ने के बाद
लगता है घर बुलाता है घर छोड़ने के बाद

उस हमउम्र दरख़्त की यारी भी ख़ूब है
सपनों में आता-जाता है घर छोड़ने के बाद

खुलती थी आँख जागता था घर सुबह-सुबह
कोई नहीं जगाता है घर छोड़ने के बाद

घर सुनता-समझता है मगर बोलता नहीं
यादों के ख़त भिजाता है घर छोड़ने के बाद

यों तो कईं मकान में आये, गये, रहे
कुछ भी नहीं सुहाता है घर छोड़ने के बाद

’महबूब' से मिलने के इरादे हैं आज भी
ख़्वाबों में गुनगुनाता है घर छोड़ने के बाद

9 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

इन पाँचों रचनाओं को पढ़ कर नजीर अकबराबादी की याद आई।

Ashok Pande said...

ग़ज़ब का बयान है मेहबूब साहेब का. एक से एक अशाआर. द्विवेदी जी की बात से पूरा इत्तेफ़ाक़.

...

अपाहिज की तरह मौसम खड़ा है।
दिसम्बर में जुलाई हो रही है।।

... क्या बात है. शुक्रिया संजय भाई!

Udan Tashtari said...

वाह जी वाह!! आनन्द आ गया!

vipin dev tyagi said...

करेंगे दोस्ती कल ख़ूब पक्की
हमारी हाथापाई हो रही है..
बहुत खूब महबूब साहब...

गिरीश मेलकानी said...

आनन्द आ गया.

ravindra vyas said...

आप जैसे कद्रदान ही इन्हें याद करते हैं संजयभाई, शहर तो इन्हें भुला देगा।

siddheshwar singh said...

अनुभूतियों की किताब-क़लम से पढ़ने-लिखने और शायरी करने वाले व सचमुच ‘महबूब' दिखने, लिखने और रहने में मालवा के बाबा नागार्जुन के व्यक्तित्व और रचानाकर्म से पर्चित कराने के लिय संजय भाई को साधुवाद.महबूब'क्या लिखते हैं भाई! लफ़्जों के जरिए उनको पहचाना एक सुखद अनुभव है.बहुत बढ़िया.
महबूब'साहब तक मेरा सलाम जरूर पहुंचायें.

आदरांजली .

आये हो मेरा काम ज़रा देखकर जाना
हीरा बिठा रहा हूँ मैं मछली की आँख में.

देखा भाई, देखा.आपका काम देखा.
सलाम.

Yunus Khan said...

कितनी अजीब बात है कि ये रचनाएं सुर्खियों में नहीं आईं ।
अगर आप ना पढ़वाते तो हम इनसे परिचित भी ना हो पाते ।
अफ़सोस कि निस्‍संग शहर और निर्मम संपादक कई महत्‍त्‍वपूर्ण रचनाकारों का गला घोंट देते हैं ।
और और की रटन लगा रहा है ये पीने वाला ।

Unknown said...

’महबूब' से मिलने के इरादे हैं आज भी
ख़्वाबों में गुनगुनाता है घर छोड़ने के बाद .... शानदार प्रस्तुति