Friday, September 26, 2008

कौन है श्रीधर वाकोड़े?

गीत चतुर्वेदी परम प्रतिभाशाली कबाड़ी हैं - श्रेष्ठ कबाड़ियों की जमात में उनका नाम बेवजह ही नहीं है. कुछ समय पहले उन्होंने अपने ब्लॉग पर एक ज़बरदस्त पोस्ट लगाई थी. उक्त पोस्ट मुझे लगातार हॉन्ट करती रहती है और झूठ नहीं कहता उसका गद्य इस क़दर लुभावना और मर्मभेदी है कि मुझे उसे बार-बार पढ़ने की लत पड़ चुकी है.

यह हो ही सकता है कि मेरा अपना आग्रह बाक़ी लोगों को नागवार गुज़रे पर मैं इतनी बार इस पोस्ट को पढ़ चुकने और उससे आजिज़ न आने के उपरान्त गीत के गद्य की इस शानदार बानगी को कबाड़ख़ाने के पाठकों के सम्मुख रखने के लालच को रोक नहीं पा रहा हूं. ये रही वह असाधारण पोस्ट:


किताब के पहले पन्‍ने पर दस्‍तख़त-सा आदमी


श्रीधर वाकोड़े कौन है, मुझे नहीं पता, पर इसका नाम मैं बरसों से पढ़ता आ रहा हूं। मेरी कई किताबों के शुरुआती पन्नों पर मराठी में उसके दस्तख़त हैं। उसे देखने की इतनी आदत पड़ गई है कि कई बार मैं उसकी तरह दस्तख़त करना चाहता हूं।

अरिहंता ने बताया था कि वह चिकनी का पप्पा है। चिकनी कौन है? उससे बातचीत में पता लगा, आगे किसी बिल्डिंग में रहती है और यहां बस पकड़ने आती है और यहां के लड़के उसे टापने में कोई क़सर नहीं बाक़ी रखते।

अरिहंता कौन है? सिर्फ़ इतना जानता हूं कि मुलुंड चेक नाके के पास उसकी रद्दी की दुकान थी, जो अब वहां नहीं है। उसका असली नाम भी नहीं पता। उसके दुकान का नाम था अरिहंता पेपर मार्ट, तो मेरी स्मृति में उसका नाम यही बस गया है।

मैंने उससे कहा था, मुझे उसके घर ले चलेगा? तो उसे लगा कि मैं भी चिकनी की क़तार में हूं। मैंने कहा, नहीं, उसके बाप के पास? वह बोला, सब लड़की के पीछे और तू बाप के पीछे, सही है बावा।

पर अरिहंता कभी लेकर नहीं गया। मैंने भी फिर कभी पूछा नहीं। श्रीधर वाकोड़े उसके यहां अपनी किताबें बेचता रहा और मैं वहां से उन किताबों को ख़रीदता रहा। यह सिलसिला बारह-तेरह साल पहले शुरू हुआ था। श्रीधर वाकोड़े के दस्तख़त वाली पहली किताब जो मिली थी, वह थी मारकेस की 'नो वन राइट्स टु द कर्नल'। इस तरह उसने मारकेस से परिचय कराया। उस संग्रह की एक कहानी उस वक़्त भी मुझे बहुत पसंद आई थी, वह थी 'ट्यूज़डे सीएस्टा'। वह अब भी मेरी पसंदीदा कहानी है। बाद में मारकेस को और पढ़ा, तो पता चला, वह उनकी भी पसंदीदा है। बर्गमान की 'द मैजिक लैंटर्न' और बुनुएल की 'द लास्ट साय' भी वहीं मिली। 'पिकासो इन इंटरव्यूज़', इनग्रिड बर्गमैन की मराठी में आत्मकथा, मैरी पिकफोर्ड, डगलस फेयरबैंक्स, विवियन ली और क्लार्क गैबल की जीवनियां। और एक नई-नवेली एलन सीली की 'द एवरेस्ट होटल'। इन सबमें श्रीधर वाकोड़े अपनी लचकदार साइन और पेंसिल के निशानों के साथ मौजूद है। जहां दुख और उदासी की सबसे गहरी पंक्तियां हैं, किसी मटमैले पुच्छल तारे की तरह उसकी पेंसिल वहां से ज़रूर गुज़री है। जिन पन्नों पर आंख गीली हो जाए, उन पन्नों को शायद बार-बार पढ़ा गया। उनके किनारे मुड़े हुए रहे होंगे, क्योंकि तिकोना मोड़ अब भी वहां निशान में है। उसकी किताबें उसके और मेरे बीच जाने कैसा रिश्ता बनाती हैं।

वह क्या था, कोई कलाकार या कोई संघर्षरत फिल्मकार या कोई नाटककार, अभिनेता, कोई लेखक-कवि या फिर कोई साधारण पाठक? किसी साधारण पाठक के पास तो ये किताबें मिलने से रहीं। कोई नामचीन रहा होगा, इसमें भी शक है, क्योंकि बिल्कुल पास के अरिहंता के लिए वह सिर्फ़ चिकनी का पप्पा था। फिर क्या था वह? अरिहंता की दुकान रोड वाइडेनिंग में उजड़ गई और अरसे से मुंबई अपने से छूटी हुई है। अब रद्दी की दुकानें भी दिखती नहीं। जो दिखती हैं, उनमें अख़बार, फेमिना, कॉस्मो मिलती हैं, कहीं दबाकर रखी कोई पुरानी डेब या पीबी।

जिन किताबों को कोई भी पढ़ा-लिखा शान से अपनी शेल्फ़ में लगाकर रखे, उन किताबों को वह बाक़ायदा पढ़कर या बरसों संभालकर, एक दिन रद्दी में क्यों बेच आता था? एक दोस्त से यह बात की, तो वह जि़ंदगी और मौत के अद्वैत में लग गया- हर किताब को एक दिन रद्दी की दुकान में जाना होता है।

कई बार लगता है कि वह शब्दों से बाहर निकल गया कोई पात्र है, जो शुरुआती ख़ाली पन्ने पर सिर उचकाकर उपस्थिति दर्ज करा रहा हो। या ड्रामे के ठीक पहले परदा खींचने वाला हाथ है, जिसकी उंगलियों की झलक तक हमको नहीं दिख पाती। या कैमरे की नज़र से छूट गया एक भरा-पूरा लैंडस्केप हो या एडिटिंग टेबल पर कट कर गिर गया कोई दृश्य हो। वह आलमारी से निकलकर फुटपाथ पर पहुंच गई कोई किताब ही रहा हो। मेरी किताबों के बीच वह किसी असहाय किसान की तरह लगता है, जिस पर एक-एक टुकड़ा ज़मीन बेचने का बज्जर गिरा हो। अशोक के बाद कलिंग पर राज करने वाले राजा खारवेल की तरह, इतिहास में जिसके पास कोई जीवन नहीं बचा, हाथीगुफा की दीवारों पर गुदा नाम बचा बस। वैसे ही, श्रीधर वाकोड़े भी कोई जीवन था या सिर्फ़ किताबों पर लिखा हुआ एक नाम?

जब भी किताबी कोना पर जाता हूं, श्रीधर वाकोड़े बेसाख़्ता याद आता है। क्‍या आपकी किताबों में भी कोई श्रीधर वाकोड़े रहता है?

5 comments:

गिरीश मेलकानी said...

गीत चतुर्वेदी को बधाई इतना अच्छा लिखने के लिए.

शिरीष कुमार मौर्य said...

अरुण बनजीZ याद हैं अशोक दा? उनकी किताबों के साथ भी दिल्ली में यही हो रहा है और वहां कोई गीत चतुर्वेदी भी नहीं!
शास्त्रीय संगीत 650 कैसेट अलबत्ता वे मुझे दे गए हैं !

Unknown said...

अद्भुत। एक छूट चुकी गाड़ी से हिलता बुक-लवर का हाथ।

महेन said...

पढ़ा था वैतागवाड़ी में।
I am jealous. मुझे न तो कोई श्रीधर वाकोड़े मिला न कोई अरुण बनर्जी।

ravindra vyas said...

ek baar fir maza aaya!