मैं चिर श्रद्धा लेकर आई
वह साध बनी प्रिय परिचय में,
मैं भक्ति हृदय में भर लाई,
वह प्रीति बनी उर परिणय में।
जिज्ञासा से था आकुल मन
वह मिटी, हुई कब तन्मय मैं,
विश्वास माँगती थी प्रतिक्षण
आधार पा गई निश्चय मैं।
प्राणों की तृष्णा हुई लीन
स्वप्नों के गोपन संचय में,
संशय भय मोह विषाद हीन
लज्जा करुणा में निर्भय मैं।
लज्जा जाने कब बनी मान,
अधिकार मिला कब अनुनय में
पूजन आराधन बने गान,
कैसे, कब? करती विस्मय मैं।
उर करुणा के हित था कातर
सम्मान पा गई अक्षय मैं,
पापों अभिशापों की थी घर,
वरदान बनी मंगलमय मैं।
बाधा-विरोध अनुकूल बन
अंतर्चेतन अरुणोदय में,
पथ भूल विहँस मृदु फूल बने,
मैं विजयी प्रिय, तेरी जय में।
Thursday, October 23, 2008
सुमित्रानंदन पंत की कविताः विजय
कौसानी (बागेश्वर, अल्मोड़ा) में जन्में सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता था, उनका वास्तविक नाम गौंसाई दत्त था जिसे बाद में पसंद ना आने के कारण उन्होंने बदल कर सुमित्रानंदन रख लिया। उन्ही की लिखी है ये कविता विजय।
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Tarun
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3 comments:
Pantji ko sammanjanak dhang se aapne shradhanjali dee hai.
यह पंत जी हे थे जिन्होंने कहा था -
'सुन्दर हैं विहग सुमन सुन्दर
मानव तुम सबसे सुन्दरतम.'
हिन्दी कविता के स्कूली / विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रम में पढ़ाए जाने के कारण हम हिन्दी वालों ने पंत को 'प्रकॄति के सुकुमार कवि'तक सीमित कर दिया है. बहुत ही विशल और वैविध्य से भरा रचना फलक है इस साहित्यकार का. 'हार'जैसा उपन्यास देने वाले वाले और 'कला और बूढ़ा चाँद' तथा 'रूपाभ' के संपादक की परिधि व परिव्याप्ति मात्र 'छायावाद' भर नहीं है.
इस पोस्ट के जरिए कम से कम मुझे तो यह मौका मिला है कि एक बार फिर से पंत को गौर से पढ़ूं.
शुक्रिया, भाई तरुण!
तरुण,
अबके बार जब भेंट होगी तब तुम्हें कविवर पंत जी ( यानि मेरे ससुरजी के छोटे चाचा 'नानका') के हस्ताक्षर वाली 'उत्तरा' के दर्शन करवाउंगी|
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