पानी की रोशनी के थरथराते पुल पर
चंद्रकांत देवताले
पुकारो मत,
बस दे दो अपनी चुप्पी में थोड़ी-सी जगह
और सुला लो मुझे नींद में अपनी
देखो! परिंदों की चहचहाहट से घिरा
चल रहा है स्मृतियों का काफ़िला
हमारे आगे-पीछे
संगम है यह प्रारंभ और अंत का
हम खड़े हैं पानी की रोशनी के
थरथराते पुल पर
पतझर के नीले पड़ते उजाले में
तुम परछाईं हों वसंत की
मैं धुंध के प्रपात में गिरती इच्छा की तरह
सपने में मोहलत नहीं चाहता
कानाफूसी की तरह निहारना परस्पर
बहुत हो चुका
अब शामिल कर लो मेरी आँखों को
अपने देखने में
सचमुच, बहुत सुंदर हो गई है यह शाम
यहीं अधूरी छोड़कर अपनी बात
सूर्यास्त की चिनगारियों में
हम देख लें अंतिम आतिशबाज़ी!
(पेंटिंग ः रवींद्र व्यास )
(यह कविता उपलब्ध कराने के लिए श्री सुशोभित सक्तावत के प्रति आभार)
6 comments:
अच्छी कविता!
अच्छा चित्र !!
बधाई , कवि और चित्रकार दोनो को !!!
har bar ki tarah ek aur nayab kavita.
har bar ki tarah ek aur nayab kavita.
अब शामिल कर लो मेरी आँखों को
अपने देखने में।
बहुत सुंदर प्रस्तुति। धन्यवाद कविता और चित्र दोनों के लिए।
एक नायाब कविता पढवाने के लिये आभार!!
बहुत आभार इस उम्दा रचना के लिए.
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