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कुंवर नारायण
कविता आज सिर्फ बुनियादी आवगों (प्राइमरी पैशंस) की कविता नहीं रह गई है। इस माने में वह कम से कम एक तह और ज्यादा गहरी तो हुई ही है वह बुनियादी आवेगों के प्रति सचेत और सतर्क है। यह शिकायत कि आज की कविता अतिबौद्धिक है और सहज बोधगम्य नहीं एक हद तक जायज होते हुए भी उतनी जायज नहीं जितनी यह शिकायत की आज बहुत-सी सहज ही बोधगम्य कविता प्रासंगिक नहीं। आज कविता के लिए महसूस करना काफी नहीं, महसूस किए हुए को और महसूस करते हुए को सोचना-समझना भी जरूरी है।
विचारशीलता आधुनिक सम्वेदना का अनिवार्य हिस्सा है और एक जरूरी यकीन भी है कि अगर अक्ल आदमी की दुश्मन नहीं तो अक्ल कविता की भी दुश्मन नहीं हो सकती। इन सदी के प्रमुख विचारक और चिंतक मार्क्स्, फ्रायड, आइन्स्टाइन, सार्त्र आदि अमानव नहीं थे, न ही उनका लेखन और चिंतन कविदृष्टि-विहीन है। आज अधिकांश जो कुछ भयानक और अनचाहा हमारे जीवन में हो जाता है उसकी जड़ में बौद्धिकता नहीं, मूर्खता होती है-मूर्खतापूर्ण उत्तेजनाएं और अपने तत्काल स्वार्थ से आगे न सोच पाने की बौद्धिक असमर्थताएं। विचार-सम्पन्नता अकाव्यात्मक नहीं-उस कवित्व का आधार है जो हम उपनिषदों, गीता, कबीर, गालिब आदि में पाते हैं। मैं यहां छद्-बौद्धिकता या अति-बौद्धिकता की बात नहीं कर रहा। एख कविता में विचारों और भावना्अों की आपेक्षिक स्थितियां, उनके सही या गलत या कमजोर अर्थ विन्यास पर गुणात्मक असर डालती है। अगर एक कवि के स्वभाव में यह आवश्यक संतुलन नहीं है कि वह कविता में विचारों के दबावों और आग्रहों को किस तरह उभारे और सुरक्षित रखे तो ज्यादा संभावना यही है कि वह उन्हें अपने उद्गारों या भावनाअों द्वारा ऊपर से चमका-दमका (ग्लैमराइज) करके रह जाएगा, हमें उनके भीतरी तर्क की शक्ति और अनुभूति तक नहीं पहुंचा पाएगा। जो कवि इस अोर पूरी तरह सचेत हैं कि विचारशीलता और भावनाएं आदमी को दो भिन्न प्रकार की (विरोधी प्रकार की नहीं) क्षमताएं हैं, उसकी कविताअों में हम एक खास तरह का विचारों का उदात्तीकरण पाएंगे, मात्र उनका उद्दीपन नहीं।
(कवि द्वारा लिखे गए निबंध अमानवीयकरण के खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया से साभार)
1 comment:
बिल्कुल ठीक !
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