( यह कविता पिछली पोस्ट वाले सिद्धेश्वर सिंह यानी जवाहिर चा के नाम )
अभी रेल आएंगी एक के बाद एक
गुंजाती हुई आसपास की हरेक चीज़ को अपनी रफ़्तार के शोर से
आएंगी लेकिन रुकेंगी नहीं
इस जगह को बेमतलब बनाती हुई पटरियों को झंझोड़ती
चली जाएंगी
भारतीय रेल्वे की समय-सारणी तक में
अपना अस्तित्व न बचा पाने वाले इस छोटे से स्टेशन पर
किसी भी रेल का रुकना एक घटना की तरह होगा
मुल्क की कुछ सबसे तेज़ गाड़ियां गुज़रती हैं यहाँ
उन सबको राह देती
हर जगह रुकती
पिटती
थम-थमकर आएगी
झांसी से आती
वाया इटारसी भुसावल को जाती
अपने-अपने छोटे-छोटे ग़रीब पड़ावों के बीच
कोशिश भर रफ़्तार पकड़ती
हर लाल-पीले सिगनल को शीश नवाती
पाँच पुराने खंखड़ डिब्बों वाली
पैसिंजर गाड़ी
लोग भी होंगे चढ़ने-उतरने वाले
कंधों पर पेटी-बक्सा गट्ठर-बिस्तर लादे
आदमी-औरतें, बूढे़ और बच्चे
मेहनतकश
उन्हीं को डपटेगा जी.आर.पी. का अतुलित बलशाली
आत्ममुग्ध सिपाही
पकड़ेगा टी.सी. भी
अपने गुदड़ों में जब कोई टिकट ढूं¡ढता रह जाएगा
उन्हें बहुत दूर नहीं जाना होता जो चलते हैं पैसिंजर से
बस इस गाँव से उस गाँव
या फिर कोई निकट का पड़ोसी शहर
उन्हे नहीं पता कि हमारे इस मुल्क में
कहाँ से आती हैं पटरियां
कहाँ तक जाती हैं?
गहरे नीले मैले -चीकट कपड़ों में उन्हें खटखटाते क्या ढून्ढते हैं
रेल्वे के कुछेक बेहद कर्त्तव्यशील कर्मचारी
वे नहीं जानते
पर देखते उन्हें कुछ भय और उत्सुकता से
अकसर वे उनसे प्रभावित होते हैं
राजधानी के फर्स्ट ए0सी0 में बैठा बैंगलोर जाता यात्री
कभी नहीं जान पाएगा
कि वह जो खड़ी थी रुक कर राह देती उसकी रेल को
एक नामालूम स्टेशन पर
लोगों से भरी एक छोटी सी गाड़ी
उसमें बैठे लोग भी यात्री ही थे
दरअसल
उन्होंने ही करनी थीं जीवन की असली यात्राएं
बहुत दूर न जाते हुए भी
कोई मजूरी करने जाता था शहर को
कोई पास गाँव से बिटिया विदा कराने
कोई जाता था बहन-बहनोई का झगड़ा निबटाने
बच्चे चूंकि बिना टिकट जा सकते थे इसलिए जाते थे
हर कहीं
उनमें से अधिकांश की अपने स्कूल से
जीवन भर की छुट्टी थी
यह आज सुबह चली है
कल सुबह पहुँचेगी
बीच में मिलेगी वापस लौट रही अपनी बहन से
राह में ही कहीं रात भी होगी
लोग बदल जाएंगे
भाषा भी बदल जाएगी
थोड़ा-बहुत भूगोल भी बदलेगा
चाय के लिए पुकारती आवाज़ें वैसी ही रहेंगी
वैसा ही रह-रहकर स्टेशन-स्टेशन शीश नवाना
ख़ुद रुक कर
तेज़ भागती दुनिया को राह दिखाना
डिब्बे और भी जर्जर होते जाएंगे इसके
मुसाफि़र कुछ और ग़रीब
दुनिया आती जाएगी क़रीब
और क़रीब
पर बढ़ते जाएंगे कुछ फासले
बहुत आसपास एक दूसरे चिपक कर बैठे होंगे लोग
लेकिन अकसर रह जाएंगे बिना मिले
रोशनी नीले कांच से छनकर
और हवा पाइपों से होकर आएगी
या फिर हर जगह
ऐसी ही खूब खुली
दिन में धूप और रात में तारों की टिमक से भरी
हवादार खिड़की होगी
अभी फैसला होना बाक़ी है यह
दुनिया
आख़िर कैसी होगी?
किसकी होगी?
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अगस्त 2005 के वागर्थ में प्रकाशित
7 comments:
दरअसल
उन्होंने ही करनी थीं जीवन की असली यात्राएं
बहुत दूर न जाते हुए भी।
बहुत संवेदनशील कविता ।
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sabhi kabaadiyon ko bahut bahut badhayee.
railway time table per sidheshwar ki tippani aur shireesh ki kavita best blog per hi honi thi.
शिरीष ,बहुत ही बढ़िया कविता!!!
ऐसे ही लिखते रहो प्यारे!
अरे एक बात तो पूछनी रह ही गई-
ये Linq.in.का क्या मसला है?बताए कोई!
एक पूरा चित्र खिंचता चला जाता है, अच्छी कविता है शिरीष भाई।
sunder shirish!
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